महाभारतम्-01-आदिपर्व-254
दिखावट
← आदिपर्व-253 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-254 वेदव्यासः |
आदिपर्व-255 → |
देवेषु पराजितेषु अशरीरवाणीश्रवणेन इन्द्रस्य निवृत्तिः।। 1 ।।
पलायमानं मयं हन्तुमुद्युक्ते श्रीकृष्णे आत्मानं शरणागतस्य मयस्य अर्जुनेनाभयदानम्।। 2 ।।
खाण्डवदाहेऽपि अश्वसेनादीनामदाहस्य वैशंपायनेन कथनम्।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-254-1x |
तथा शैलनिपातेन भीषिताः खाण्डवालयाः। दानवा राक्षसा नागास्तरक्ष्वृक्षवनौकसः।। | 1-254-1a 1-254-1b |
द्विपाः प्रभिन्नाः शार्दूलाः सिंहाः केसरिणस्तथा। मृगाश्च महिषाश्चैव शतशः पक्षिणस्तथा।। | 1-254-2a 1-254-2b |
समुद्विग्ना विससृपुस्तथान्या भूतजातयः। तं दावं समुदैक्षन्त कृष्णौ चाभ्युद्यतायुधौ।। | 1-254-3a 1-254-3b |
उत्पातनादशब्देन त्रासिता इव चाभवन्। ते वनं प्रसमीक्ष्याथ दह्यमानमनेकधा।। | 1-254-4a 1-254-4b |
कृष्णमभ्युद्यतास्त्रं च नादं मुमुचुरुल्बणम्। तेन नादेन रौद्रेण नादेन च विभावसोः।। | 1-254-5a 1-254-5b |
ररास गगनं कृत्स्नमुत्पातजलदैरिव। ततः कृष्णो महाबाहुः स्वतेजोभास्वरं महत्।। | 1-254-6a 1-254-6b |
चक्रं व्यसृजदत्युग्रं तेषां नाशाय केशवः। तेनार्ता जातयः क्षुद्राः सदानवनिशाचराः।। | 1-254-7a 1-254-7b |
निकृत्ताः शतशः सर्वा निपेतुरनलं क्षणात्। तत्रादृश्यन्त ते दैत्याः कृष्णचक्रविदारिताः।। | 1-254-8a 1-254-8b |
वसारुधिरसंपृक्ताः सन्ध्यायामिव तोयदाः। पिशाचान्पक्षिणो नागान्पशूंश्चैव सहस्रशः।। | 1-254-9a 1-254-9b |
निघ्नंश्चरति वार्ष्णेयः कालवत्तत्र भारत। क्षिप्तं क्षिप्तं पुनश्चक्रं कृष्णस्यामित्रघातिनः।। | 1-254-10a 1-254-10b |
छित्त्वानेकानि सत्वानि पाणिमेति पुनः पुनः। तथा तु निघ्नतस्तस्य पिशाचोरगराक्षसान्।। | 1-254-11a 1-254-11b |
बभूव रूपमत्युग्रं सर्वभूतात्मनस्तदा। समेतानां च सर्वेषां दानवानां च सर्वशः।। | 1-254-12a 1-254-12b |
विजेता नाभवत्कश्चित्कृष्णपाण्डवयोर्मृधे। तयोर्बलात्परित्रातुं तं च दावं यदा सुराः।। | 1-254-13a 1-254-13b |
नाशक्नुवञ्शमयितुं तदाऽभूवन्पराङ्मुखाः। शतक्रतुस्तु संप्रेक्ष्य विमुखानमरांस्तथा।। | 1-254-14a 1-254-14b |
बभूव मुदितो राजन्प्रशंसन्केशवार्जुनौ। निवृत्तेष्वथ देवेषु वागुवाचाशरीरिणी।। | 1-254-15a 1-254-15b |
शतक्रतुं समाभाष्य महागम्भीरनिःस्वना। न ते सखा सन्निहितस्तक्षको भुजगोत्तमः।। | 1-254-16a 1-254-16b |
दाहकाले खाण्डवस्य कुरुक्षेत्रं गतो ह्यसौ। न च शक्यौ युधा जेतुं कथंचिदपि वासव।। | 1-254-17a 1-254-17b |
वासुदेवार्जुनावेतौ निबोध वचनान्मम। नरनारायणावेतौ पूर्वदेवौ दिवि श्रुतौ।। | 1-254-18a 1-254-18b |
भवानप्यभिजानाति यद्वीर्यौ यत्पराक्रमौ। नैतौ शक्यौ दुराधर्षौ विजेतुमजितौ युधि।। | 1-254-19a 1-254-19b |
अपि सर्वेषु लोकेषु पुराणावृषिसत्तमौ। पूजनीयतमावेतावपि सर्वैः सुरासुरैः।। | 1-254-20a 1-254-20b |
यक्षराक्षसगन्धर्वनरकिन्नरपन्नगैः। तस्मादितः सुरैः सार्धं गन्तुमर्हसि वासव।। | 1-254-21a 1-254-21b |
दिष्टं चाप्यनुपश्यैतत्खाण्डवस्य विनाशनम्। इति वाक्यमुपश्रुत्य तथ्यमित्यमरेश्वरः।। | 1-254-22a 1-254-22b |
क्रोधामर्षौ समुत्सृज्य संप्रतस्थे दिवं तदा। तं प्रस्थितं महात्मानं समवेक्ष्य दिवौकसः।। | 1-254-23a 1-254-23b |
सहिताः सेनया राजन्ननुजग्मुः पुरन्दरम्। देवराजं तदा यान्तं सह देवैरवेक्ष्य तु।। | 1-254-24a 1-254-24b |
वासुदेवार्जुनौ वीरौ सिंहनादं विनेदतुः। देवराजे गते राजन्प्रहृष्टौ केशवार्जुनौ।। | 1-254-25a 1-254-25b |
निर्विशङ्कं वनं वीरौ दाहयामासतुस्तदा। स मारुत इवाभ्राणि नाशयित्वाऽर्जुनः सुरान्।। | 1-254-26a 1-254-26b |
व्यधमच्छरसङ्घातैर्देहिनः खाण्डवालयान्। न च स्म किंचिच्छक्नोति भूतं निश्चरितुं ततः।। | 1-254-27a 1-254-27b |
संछिद्यमानमिषुभिरस्यता सव्यसाचिना। नाशक्नुवंश्च भूतानि महान्त्यपि रणेऽर्जुनम्।। | 1-254-28a 1-254-28b |
निरीक्षितुममोघास्त्रं योद्धुं चापि कुतो रणे। शतं चैकेन विव्याध शतेनैकं पतत्रिणाम्।। | 1-254-29a 1-254-29b |
व्यसवस्तेऽपतन्नग्नौ साक्षात्कालहता इव। न चालभन्त ते शर्म रोधःसु विषमेषु च।। | 1-254-30a 1-254-30b |
पितृदेवनिवासेषु सन्तापश्चाप्यजायत। भूतसङ्घाश्च बहवो दीनाश्चक्रुर्महास्वनम्।। | 1-254-31a 1-254-31b |
रुरुदुर्वारणाश्चैव तथा मृगतरक्षवः। तेन शब्देन वित्रेसुर्गङ्गोदधिचरा झषाः।। | 1-254-32a 1-254-32b |
विद्याधरगणाश्चैव ये च तत्र वनौकसः। न त्वर्जुनं महाबाहो नापि कृष्णं जनार्दनम्।। | 1-254-33a 1-254-33b |
निरीक्षितुं वै शक्नोति कश्चिद्योद्धुं कुतः पुनः। एकायनगता येऽपि निष्पेतुस्तत्र केचन।। | 1-254-34a 1-254-34b |
राक्षसा दानवा नागा जघ्ने चक्रेण तान्हरिः। ते तु भिन्नशिरोदेहाश्चक्रवेगाद्गतासवः।। | 1-254-35a 1-254-35b |
पेतुरन्ये महाकायाः प्रदीप्ते वसुरेतसि। समांसरुधिरौधैश्च वसाभिश्चापि तर्पितः।। | 1-254-36a 1-254-36b |
उपर्याकाशगो भूत्वा विधूमः समपद्यत। दीप्ताक्षो दीप्तजिह्वश्च संप्रदीप्तमहाननः।। | 1-254-37a 1-254-37b |
दीप्तोर्ध्वकेशः पिङ्गाक्षः पिबन्प्राणभृतां वसाम्। तां स कृष्णार्जुनकृतां सुधां प्राप्य हुताशनः।। | 1-254-38a 1-254-38b |
बभूव मुदितस्तृप्तः परां निर्वृतिमागतः। तथाऽसुरं मयं नाम तक्षकस्य निवेशनात्।। | 1-254-39a 1-254-39b |
विप्रद्रवन्तं सहसा ददर्श मधुसूदनः। तमग्निः प्रार्थयामास दिधक्षुर्वातसारथिः।। | 1-254-40a 1-254-40b |
शरीरवाञ्जटी भूत्वा नदन्निव बलाहकः। विज्ञाय दानवेन्द्राणां मयं वै शिल्पिनां वरम्।। | 1-254-41a 1-254-41b |
जिघांसुर्वासुदेवस्तं चक्रमुद्यम्य धिष्ठितः। स चक्रमुद्यतं दृष्ट्वा दिधक्षन्तं च पावकम्।। | 1-254-42a 1-254-42b |
अभिधावार्जुनेत्येवं मयस्त्राहीति चाब्रवीत्। तस्य भीतस्वनं श्रुत्वा मा भैरिति धनंजयः।। | 1-254-43a 1-254-43b |
प्रत्युवाच मयं पार्थो जीवयन्निव भारत। तं न भेतव्यमित्याह मयं पार्थो दयापरः।। | 1-254-44a 1-254-44b |
तं पार्थेनाभये दत्ते नमुचेर्भ्रातरं मयम्। न हन्तुमैच्छद्दाशार्हः पावको न ददाह च।। | 1-254-45a 1-254-45b |
तद्वनं पावको धीमान्दिनानि दश पञ्च च। ददाह कृष्णपार्थाभ्यां रक्षितः पाकशासनात्।। | 1-254-46a 1-254-46b |
तस्मिन्वने दह्यमाने षडग्निर्न ददाह च। अश्वसेनं मयं चैव चतुरः शार्ङ्गकांस्तथा।। | 1-254-47a 1-254-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि मयदर्शनपर्वणि चतुःपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 254 ।। |
आदिपर्व-253 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-255 |