महाभारतम्-01-आदिपर्व-094
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दुष्यन्त उवाच। | 1-94-1x |
सुव्यक्तं राजपुत्री त्वं यथा कल्याणि भाषसे। भार्या मे भव सुश्रोणि ब्रूहि किं करवाणि ते।। | 1-94-1a 1-94-1b |
सुवर्णमालां वासांसि कुण्डले परिहाटके। नानापत्तनजे शुभ्रे मणिरत्ने च शोभने।। | 1-94-2a 1-94-2b |
आहरामि तवाद्याहं निष्कादीन्यजिनानि च। सर्वं राज्यं तवाद्यास्तु भार्या मे भव शोभने।। | 1-94-3a 1-94-3b |
गान्धर्वेण च मां भीरु विवाहेनैहि सुन्दरि। विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्वः श्रेष्ठ उच्यते।। | 1-94-4a 1-94-4b |
शकुन्तलोवाच। | 1-94-5x |
फलाहारो गतो राजन्पिता मे इत आश्रमात्। मुहूर्तं संप्रतीक्षस्व स मां तुभ्यं प्रदास्यति।। | 1-94-5a 1-94-5b |
`पिता हि मे प्रभुर्नित्यं दैवतं परमं मम। यस्मै मां दास्यति पिता स मे भर्ता भविष्यति।। | 1-94-6a 1-94-6b |
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। पुत्रस्तु स्थाविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।। | 1-94-7a 1-94-7b |
समन्यमाना राजेन्द्र पितरं मे तपस्विनम्। अधर्मेण हि धर्मिष्ठ कथं वरमुपास्महे।। | 1-94-8a 1-94-8b |
दुष्यन्त उवाच। | 1-94-9x |
मामैवं वद कल्याणि तपोराशिं दमात्मकम्। | 1-94-9a |
शकुन्तलोवाच। | 1-94-9x |
मन्युप्रहरणा विप्रा न विप्राः शस्त्रपाणयः।। | 1-94-9b |
मन्युना घ्नन्ति ते शत्रून्वज्रेणेन्द्र इवासुरान्। अग्निर्दहति तेजोभिः सूर्यो दहति रश्मिभिः।। | 1-94-10a 1-94-10b |
राजा दहति दण्डेन ब्राह्मणो मन्युना दहेत्। क्रोधिता मन्युना घ्नन्ति वज्रपाणिरिवासुरान्।। | 1-94-11a 1-94-11b |
दुष्यन्त उवाच। | 1-94-12x |
जाने भद्रे महर्षिं तं तस्य मन्युर्न विद्यते।' इच्छामि त्वां वरारोहे भजमानामनिन्दिते। त्वदर्थं मां स्थितं विद्धि त्वद्गतं हि मनो मम।। | 1-94-12a 1-94-12b 1-94-12c |
आत्मनो बन्धुरात्मैव गतिरात्मैव चात्मनः। आत्मनैवात्मनो दानं कर्तुमर्हसि धर्मतः।। | 1-94-13a 1-94-13b |
अष्टावेव समासेन विवाहा धर्मतः स्मृताः। ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः।। | 1-94-14a 1-94-14b |
गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमः स्मृतः। तेषां धर्म्यान्यथापूर्वं मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्।। | 1-94-15a 1-94-15b |
प्रशस्तांश्चतुरः पूर्वान्ब्राह्मणस्योपधारय। षडानुपूर्व्या क्षत्रस्य विद्धि धर्म्याननिन्दिते।। | 1-94-16a 1-94-16b |
राज्ञां तु राक्षसोऽप्युक्तो विट्शूद्रेष्वासुरः स्मृतः। पञ्चानां तु त्रयो धर्म्या अधर्म्यौ द्वौ स्मृताविह।। | 1-94-17a 1-94-17b |
पैशाच आसुरश्चैव न कर्तव्यौ कदाचन। अनेन विधिना कार्यो धर्मस्यैषा गतिः स्मृता।। | 1-94-18a 1-94-18b |
गान्धर्वराक्षसौ क्षत्रे धर्म्यौ तौ मा विशङ्किथाः। पृथग्वा यदि वा मिश्रौ कर्तव्यौ नात्र संशयः।। | 1-94-19a 1-94-19b |
सा त्वं मम सकामस्य सकामा वरवर्णिनी। गान्धर्वेण विवाहेन भार्या भवितुमर्हसि।। | 1-94-20a 1-94-20b |
शकुन्तलोवाच। | 1-94-21x |
यदि धर्मपथस्त्वेव यदि चात्मा प्रभुर्मम। प्रदाने पौरवश्रेष्ठ शृणु मे समयं प्रभो।। | 1-94-21a 1-94-21b |
सत्यं मे प्रतिजानीहि यथा वक्ष्याम्यहं रहः। मयि जायेत यः पुत्रः स भवेत्त्वदनन्तरः।। | 1-94-22a 1-94-22b |
युवराजो महाराज सत्यमेतद्ब्रवीमि ते। यद्येतदेवं दुष्यन्त अस्तु मे सङ्गमस्त्वया।। | 1-94-23a 1-94-23b |
वैशंपायन उवाच। | 1-94-24x |
`तस्यास्तु सर्वं संश्रुत्य यथोक्तं स विशांपतिः। दुष्यन्तः पुनरेवाह यद्यदिच्छसि तद्वद।। | 1-94-24a 1-94-24b |
शकुन्तलोवाच। | 1-94-25x |
ख्यातो लोकप्रवादोयं विवाह इति शास्त्रतः। वैवाहिकीं क्रियां सन्तः प्रशंसन्ति प्रजाहिताम्।। | 1-94-25a 1-94-25b |
लोकप्रवादशान्त्यर्थं विवाहं विधिना कुरु। सन्त्यत्र यज्ञपात्राणि दर्भाः सुमनसोऽक्षताः।। | 1-94-26a 1-94-26b |
यथा युक्तो विवाहः स्यात्तथा युक्ता प्रजा भवेत्। तस्मादाज्यं हविर्लाजाः सिकता ब्राह्मणास्तव।। | 1-94-27a 1-94-27b |
वैवाहिकानि चान्यानि समस्तानीह पार्थिव। दुरुक्तमपि राजेन्द्र क्षन्तव्यं धर्मकारणात्।। | 1-94-28a 1-94-28b |
वैशंपायन उवाच।' | 1-94-29x |
एवमस्त्विति तां राजा प्रत्युवाचाविचारयन्। अपि च त्वां हि नेष्यामि नगरं स्वं शुचिस्मिते।। | 1-94-29a 1-94-29b |
यथा त्वमर्हा सुश्रोणि मन्यसे तद्ब्रवीमि ते। एवमुक्त्वा स राजर्षिस्तामनिन्दितगामिनीम्।। | 1-94-30a 1-94-30b |
`पुरोहितं समाहूय वचनं युक्तमब्रवीत्। राजपुत्र्या यदुक्तं वै न वृथा कर्तुमुत्सहे।। | 1-94-31a 1-94-31b |
क्रियाहीनो हि न भवेन्मम पुत्रो महाद्युतिः। तथा कुरुष्व शास्त्रोक्तं विवाहं मा चिरंकुरु।। | 1-94-32a 1-94-32b |
एवमुक्तो नृपतिना द्विजः परमयन्त्रितः। शोभनं राजराजेति विधिना कृतवान्द्विजः।। | 1-94-33a 1-94-33b |
शासनाद्विप्रमुख्यस्य कृतकौतुकमङ्गलः।' जग्राह विधिवत्पाणावुवास च तया सह।। | 1-94-34a 1-94-34b |
विश्वास्य चैनां स प्रायादब्रवीच्च पुनः पुनः। प्रेषयिष्ये तवार्थाय वाहिनीं चतुरङ्गिणीम्।। | 1-94-35a 1-94-35b |
`त्रैविद्यवृद्धैः सहितां नानाराजजनैः सह। शिबिकासहस्रैः सहिता वयमायान्ति बान्धवाः।। | 1-94-36a 1-94-36b |
मूकाश्चैव किराताश्च कुब्जा वामनकैः सह। सहिताः कञ्चुकिवरैर्वाहिनी सूतमागधैः।। | 1-94-37a 1-94-37b |
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषैर्वनं च समुपैष्यति। तथा त्वामानयिष्यामि नगरं स्वं शुचिस्मिते।। | 1-94-38a 1-94-38b |
अन्यथा त्वां न नेष्यामि स्वनिवेशमसत्कृताम्। सर्वमङ्गलसत्कारैः सुभ्रु सत्यं करोमि ते।। | 1-94-39a 1-94-39b |
वैशंपायन उवाच। | 1-94-40x |
एवमुक्त्वा स राजर्षिस्तामनिन्दितगामिनीम्। परिष्वज्य च बाहुभ्यां स्मितपूर्वमुदैक्षत।। | 1-94-40a 1-94-40b |
प्रदक्षिणीकृतां देवीं पुनस्तां परिषस्वजे। शकुन्तला सा सुमुखी पपात नृपपादयोः।। | 1-94-41a 1-94-41b |
तां देवीं पुनरुत्थाप्य मा शुचेति पुनः पुनः। शपेयं सुकृतेनैव प्रापयिष्ये नृपात्मजे।।' | 1-94-42a 1-94-42b |
इति तस्याः प्रतिश्रुत्य स नृपो जनमेजय। मनसा चिन्तयन्प्रायात्काश्यपं प्रति पार्थिव।। | 1-94-43a 1-94-43b |
भगवांस्तपसा युक्तः श्रुत्वा किं नु करिष्यति। तं न प्रसाद्यागतोऽहं प्रसीदेति द्विजोत्तमम्। एवं संचिन्तयन्नेव प्रविवेश स्वकं पुरम्।। | 1-94-44a 1-94-44b 1-94-44c |
ततो मुहूर्ते याते तु कण्वोऽप्याश्रममागमत्। शकुन्तला च पितरं ह्रिया नोपजगाम तम्।। | 1-94-45a 1-94-45b |
`शङ्कितेव च विप्रर्षिमुपचक्राम सा शनैः। ततोऽस्य भारं जग्राह आसनं चाप्यकल्पयत्।। | 1-94-46a 1-94-46b |
प्राक्षालयच्च सा पादौ काश्यपस्य महात्मनः। न चैनं लज्जयाऽशक्नोदक्षिभ्यामभिवीक्षितुम्।। | 1-94-47a 1-94-47b |
शकुन्तला च सव्रीडा तमृषिं नाभ्यभाषत। तस्मात्स्वधर्मात्स्खलिता भीता सा भरतर्षभ।। | 1-94-48a 1-94-48b |
अभवद्दोषदर्शित्वाद्ब्रह्मचारिण्ययन्त्रिता। स तदा व्रीडितां दृष्ट्वा ऋषिस्तां प्रत्यभाषत।। | 1-94-49a 1-94-49b |
कण्व उवाच। | 1-95-50x |
सव्रीडैव च दीर्घायुः पुरेव भविता न च। वृत्तं कथय रम्भोरु मा त्रासं च प्रकल्पय।। | 1-94-50a 1-94-50b |
वैशंपायन उवाच। | 1-94-51x |
ततः प्रक्षाल्य पादौ सा विश्रान्तं पुनरब्रवीत्। निधाय कामं तस्यर्षेः कन्दानि च फलानि च।। | 1-94-51a 1-94-51b |
ततः संवाह्य पादौ सा विश्रान्तं वेदिमध्यमा। शकुन्तला पौरवाणां दुष्यन्तं जग्मुषी पतिम्।। | 1-94-52a 1-94-52b |
ततः कृच्छ्रादतिशुभा सव्रीडा श्रमती तदा। सगद्गदमुवाचेदं काश्यपं सा शुचिस्मिता।। | 1-94-53a 1-94-53b |
शकुन्तलोवाच। | 1-94-54x |
राजा ताताजगामेह दुष्यन्त इलिलात्मजः। मया पतिर्वृतो योऽसौ दैवयोगादिहागतः।। | 1-94-54a 1-94-54b |
तस्य तात प्रसीद त्वं भर्ता मे सुमहायशाः। अतः सर्वं तु यद्वृत्तं दिव्यज्ञानेन पश्यसि।। | 1-94-55a 1-94-55b |
अभयं क्षत्रियकुले प्रसादं कर्तुमर्हसि। | 1-94-56a |
वैशंपायन उवाच। | 1-94-56x |
चक्षुषा स तु दिव्येन सर्वं विज्ञाय काश्यपः।। | 1-94-56b |
ततो धर्मिष्ठतां मत्वा धर्मे चास्खलितं मनः। उवाच भगवान्प्रीतस्तद्वृत्तं सुमहातपाः।। | 1-94-57a 1-94-57b |
कण्व उवाच। | 1-94-58x |
एवमेतन्मया ज्ञातं दृष्टं दिव्येन चक्षुषा। त्वयाऽद्य राजान्वयया मामनादृत्य यत्कृतम्'।। | 1-94-58a 1-94-58b |
पुंसा सह समायोगो न स धर्मोपघातकः। न भयं विद्यते भद्रे मा शुचः सुकृतं कृतम्।। | 1-94-59a 1-94-59b |
क्षत्रियस्य तु गान्धर्वो विवाहः श्रेष्ठ उच्यते। सकामायाः सकामेन निमन्त्रः श्रेष्ठ उच्यते।। | 1-94-60a 1-94-60b |
`किं पुनर्विधिवत्कृत्वा सुप्रजस्त्वमवाप्स्यसि।' धर्मात्मा च महात्मा च दुष्यन्तः पुरुषोत्तमः।। | 1-94-61a 1-94-61b |
अभ्यागच्छत्पतिर्यस्त्वां भजमानां शकुन्तले। महात्मा जनिता लोके पुत्रस्तव महायशाः।। | 1-94-62a 1-94-62b |
स च सर्वां समुद्रान्तां कृत्स्नां भोक्ष्यति मेदिनीम्। परं चाभिप्रयातस्य चक्रं तस्य महात्मनः।। | 1-94-63a 1-94-63b |
भविष्यत्यप्रतिहतं सततं चक्रवर्तिनः। प्रसन्न एव तस्याहं त्वकृते वरवर्णिनि।। | 1-94-64a 1-94-64b |
ऋतवो बहवस्ते वै गता व्यर्थाः शुचिस्मिते। सार्थकं सांप्रतं ह्येतन्न च पाप्मास्ति तेऽनघे। गृहाण च वरं मत्तस्तत्कृते यदभीप्सितम्।। | 1-94-65a 1-94-65b 1-94-65c |
शकुन्तलोवाच। | 1-94-66x |
मया पतिर्वृतो योऽसौ दुष्यन्तः पुरुषोत्तमः। मम चैव पतिर्दृष्टो देवतानां समक्षतः। तस्मै ससचिवाय त्वं प्रसादं कर्तुमर्हसि।। | 1-94-66a 1-94-66b 1-94-66c |
वैशंपायन उवाच। | 1-94-67x |
इत्येवमुक्त्वा मनसा प्रणिधाय मनस्विनी। ततो धर्मिष्ठतां वव्रे राज्ये चास्खलनं तथा।। | 1-94-67a 1-94-67b |
शकुन्तलां पौरवाणां दुष्यन्तहितकाम्यया। `एवमस्त्विति तां प्राह कण्वो धर्मभृतां वरः।। | 1-94-68a 1-94-68b |
पस्पर्श चापि पाणिभ्यां सुतां श्रीमिवरूपिणीम्।। | 1-94-69a |
कण्व उवाच। | 1-94-70x |
अद्यप्रभृति देवी त्वं दुष्यन्तस्य महात्मनः। पतिव्रतानां या वृत्तिस्तां वृत्तिमनुपालय।। | 1-94-70a 1-94-70b |
वैशंपायन उवाच। | 1-94-71x |
इत्येवमुक्त्वा धर्मात्मा तां विशुद्ध्यर्थमस्पृशत्। स्पृष्टमात्रे शरीरे तु परं हर्षमवाप सा।।' | 1-94-71a 1-94-71b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि चतुर्नवतितमोऽध्यायः।। 94 ।। | |
1-94-4 गान्धर्वो वरवध्वोरैकमत्येन कृतः।।
1-94-5 फलाहारः फळन्याहर्तुं गतः।।
1-94-17 पञ्चानां ब्राह्मादीनां त्रयो ब्राह्मदैवप्राजापत्या धर्म्याः। द्वावर्षासुरो कन्याशुल्कग्रहणादधर्म्यौ।।
1-94-18 तयोरप्यासुरः पैशाचवदत्यन्तं हेय इत्याह। पैशाच इति।।
1-94-19 परिशेषाद्गन्धर्वराक्षसौ क्षत्रियस्य धर्म्यावित्याह गान्धर्वेति।।
1-94-42 शपेयं शपथं कुर्याम्।।
चतुर्नवतितमोऽध्यायः।। 94 ।।
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