महाभारतम्-01-आदिपर्व-086
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स्वर्गाच्च्युतस्य ययातेरष्टकादियज्ञभूमिं प्रत्यागमननिमित्तकथनम्।। 1 ।। अष्टकप्रतर्दनयोर्ययातिना संवादः।। 2 ।।
अष्टक उवाच। | 1-86-1x |
कतरस्त्वनयोः पूर्वं देवानामेति साम्यताम्। उभयोर्धावतो राजन्सूर्याचन्द्रमसोरिव।। | 1-86-1a 1-86-1b |
ययातिरुवाच। | 1-86-2x |
अनिकेतो गृहस्थेषु कामवृत्तेषु संयतः। ग्राम एव वसन्भिक्षुस्तयोः पूर्वतरं गतः।। | 1-86-2a 1-86-2b |
अप्राप्य दीर्घमायुस्तु यः प्राप्तो विकृतिं चरेत्। तप्यते यदि तत्कृत्वा चरेत्सोऽन्यत्तपस्ततः।। | 1-86-3a 1-86-3b |
पापानां कर्मणां नित्यं बिभीयाद्यस्तु मानवः। सुखमप्याचरन्नित्यं सोऽत्यन्तं सुखमेधते।। | 1-86-4a 1-86-4b |
यद्वै नृशंसं तदसत्यमाहु- र्यः सेवते धर्ममनर्थबुद्धिः। अस्वोऽप्यनीशश्च तथैव राजं- स्तदार्जवं स समाधिस्तदार्यम्।। | 1-86-5a 1-86-5b 1-86-5c 1-86-5d |
अष्टक उवाच। | 1-86-6x |
केनासि हूतः प्रहितोऽसि राज- न्युवा स्रग्वी दर्शनीयः सुवर्चाः। कुतऋ आयातः कतरस्यां दिशि त्व- मुताहोस्वित्पार्थिवं स्थानमस्ति।। | 1-86-6a 1-86-6b 1-86-6c 1-86-6d |
ययातिरुवाच। | 1-86-7x |
त्वरन्ति मां लोकपा ब्राह्मणा ये।। | 1-86-7f |
सतां सकाशे तु वृतः प्रपात- स्ते सङ्गता गुणवन्तश्च सर्वे। शक्राच्च लब्धो हि वरो मयैष पतिष्यता भूमितलं नरेन्द्र।। | 1-86-8a 1-86-8b 1-86-8c 1-86-8d |
अष्टक उवाच। | 1-86-9x |
पृच्छामि त्वां मा प्रपत प्रपातं यदि लोकाः पार्थिव सन्ति मेऽत्र। यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि स्थिताः क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये।। | 1-86-9a 1-86-9b 1-86-9c 1-86-9d |
ययातिरुवाच। | 1-86-10x |
यावत्पृथिव्यां विहितं गवाश्वं सहारण्यैः पशुभिः पार्वतैश्च। तावल्लोका दिवि ते संस्थिता वै तथा विजानीहि नरेन्द्रसिंह।। | 1-86-10a 1-86-10b 1-86-10c 1-86-10d |
अष्टक उवाच। | 1-86-11x |
तांस्ते ददामि मा प्रपत प्रपातं ये मे लोका दिवि राजेन्द्र सन्ति। यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता- स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोहः।। | 1-86-11a 1-86-11b 1-86-11c 1-86-11d |
ययातिरुवाच। | 1-86-12x |
नास्मद्विधोऽब्राह्मणो ब्रह्मविच्च प्रतिग्रहे वर्तते राजमुख्य। यथा प्रदेयं सततं द्विजेभ्य- स्तथाऽददं पूर्वमहं नरेन्द्र।। | 1-86-12a 1-86-12b 1-86-12c 1-86-12d |
नाब्राह्मणः कृपणो जातु जीवे- द्या चाप्यस्याऽब्राह्मणी वीरपत्नी। सोऽहं नैवाकृतपूर्वं चरेयं विधित्समानः किमु तत्र साधुः।। | 1-86-13a 1-86-13b 1-86-13c 1-86-13d |
प्रतर्दन उवाच। | 1-86-14x |
पृच्छामि त्वां स्पृहणीयरूप प्रतर्दनोऽहं यदि मे सन्ति लोकाः। यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिताः क्षेत्रज्ञं त्वां तस्य धर्मस्य मन्ये।। | 1-86-14a 1-86-14b 1-86-14c 1-86-14d |
ययातिरुवाच। | 1-86-15x |
सन्ति लोका बहवस्ते नरेन्द्र अप्येकैकः सप्तसप्ताप्यहानि। मधुच्युतो घृतपृक्ता विशोका- स्ते नान्तवन्तः प्रतिपालयन्ति।। | 1-86-15a 1-86-15b 1-86-15c 1-86-15d |
प्रतर्दन उवाच। | 1-86-16x |
तांस्ते ददानि मा प्रपत प्रपातं ये मे लोकास्तव ते वै भवन्तु। यद्यन्तरिक्षे यदि वा दिवि श्रिता- स्तानाक्रम क्षिप्रमपेतमोहः।। | 1-86-16a 1-86-16b 1-86-16c 1-86-16d |
ययातिरुवाच। | 1-86-17x |
न तुल्यतेजाः सुकृतं कामयेत योगक्षेमं पार्थिव पार्थिवः सन्। दैवादेशादापदं प्राप्य विद्वां- श्चरेन्नृशंसं न हि जातु राजा।। | 1-86-17a 1-86-17b 1-86-17c 1-86-17d |
धर्म्यं मार्गं यतमानो यशस्यं कुर्यान्नृपो धर्ममवेक्षमाणः। न मद्विधो धर्मबुद्धिः प्रजान- न्कुर्यादेवं कृपणं मां यथाऽत्थ।। | 1-86-18a 1-86-18b 1-86-18c 1-86-18d |
कुर्यादपूर्वं न कृतं यदन्यै- र्विधित्समानः किमु तत्र साधु। `धर्माधर्मौ सुविनिश्चित्य सम्य- क्कार्याकार्येष्वप्रमत्तश्चरेद्यः।। | 1-86-19a 1-86-19b 1-86-19c 1-86-19d |
स वै धीमान्सत्यसन्धः कृतात्मा राजा भवेल्लोकपालो महिम्ना। यदा भवेत्संशयो धर्मकार्ये कामार्थौ वा यत्र विन्दन्ति सम्यक्।। | 1-86-20a 1-86-20b 1-86-20c 1-86-20d |
कार्यं तत्र प्रथमं धर्मकार्यं यन्नो विरुध्यादर्थकामौ स धर्मः | 1-86-21a 1-86-21b |
वैशंपायन उवाच।' | 1-86-21x |
ब्रुवाणमेवं नृपतिं ययातिं नृपोत्तमो वसुमानब्रवीत्तम्।। | 1-86-21c 1-86-21d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि षडशीतितमोऽध्यायः।। 86 ।। |
1-86-1 अनयोः कुटीचकबहूदकयोः।। 1-86-2 गृहस्थेषु शरीरस्थेष्विन्द्रियेषु।। 1-86-3 दीर्घमायुः प्राप्तः सिद्धिमप्राप्य यो विकृतिं पापं चरेत्। तत्कृत्वा तप्येत यदि सोन्यत्तपः प्रायश्चित्तं चरेत्।। 1-86-4 कर्मणां सकाशात् बिभीयात्। सुखं यथेच्छम्।। 1-86-5 नृशंसं हिंस्रं यत्कर्म तदसत्यं असत्संबन्धि। अनर्थबुद्धिः फलेच्छारहितः। अनीशः ईशत्वबुद्धिरहितः।। 1-86-6 केन कतरस्यां दिशि प्रहिहितोसीत्यन्वयः।। 1-86-7 विप्रहीणश्च्युतः। उक्त्वा आपृच्छ्य। वो युष्मान्। ब्राह्मणाः ब्रह्मनियुक्ताः।। 1-86-12 अब्राह्मणः ब्राह्मणेतरः ब्राह्मणस्यैव भिक्षावृत्तित्वात्। ब्रह्मविद्वेदार्थवेत्। न वर्तते न प्रवर्तते। प्रत्युत पूर्वमददमेव।। 1-86-13 कृपणो याचकः। या चाप्यस्य क्षत्रियस्य अब्राह्मणी क्षत्रिया सापि कृपणा नजीवेत्। तद्विधित्समानः कर्तुमिच्छुः तत्र तदा किमु साधुः स्यां अपितु नैवेत्यर्थः।। 1-86-15 प्रत्येकं सप्तसप्ताप्यहानि सेविताः सन्तो नान्तवन्तः। मधुच्युतः सुखस्रवः। घृतपृक्तास्तेजोयुक्ताः। ते त्वां प्रतिपालयन्ति प्रतीक्षन्ते।। 1-86-17 नृशंसं निन्द्यं।। 1-86-19 अन्यै राजभिर्यत्प्रतिग्रहाख्यं न कृतं तदपूर्वम्।। षडशीतितमोऽध्यायः।। 86 ।।
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