महाभारतम्-01-आदिपर्व-156
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दुर्योधनादेशात् पुरोचनेन वारणावते जतुगृहनिर्माणम्।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-156-1x |
धृतराष्ट्रप्रयुक्तेषु पाण्डुपुत्रेषु भारत। दुर्योधनः परं हर्षमगच्छत्स दुरात्मवान्।। | 1-156-1a 1-156-1b |
`ततः सुबलपुत्रश्च कर्णदुर्योधनावपि। दहने सह पुत्रायाः कुन्त्या मतिमकुर्वत। मन्त्रयित्वा स तैः सार्धं दुरात्मा धृतराष्ट्रजः।।' | 1-156-2a 1-156-2b 1-156-2c |
स पुरोचनमेकान्तमानीय भरतर्षभ। गृहीत्वा दक्षिणे पाणौ सचिवं वाक्यमब्रवीत्।। | 1-156-3a 1-156-3b |
ममेयं वसुसंपूर्णा पुरोचन वसुन्धरा। यथैव भविता तात तथा त्वं द्रष्टुमर्हसि।। | 1-156-4a 1-156-4b |
न हि मे कश्चिदन्योऽस्ति विश्वासिकतरस्त्वया। सहायो येन सन्धाय मन्त्रयेयं यथा त्वया।। | 1-156-5a 1-156-5b |
संरक्ष तात मन्त्रं च सपत्नांश्च ममोद्धर। निपुणेनाभ्युपायेन यद्ब्रवीमि तथा कुरु।। | 1-156-6a 1-156-6b |
पाण्डवा धृतराष्ट्रेण प्रेषिता वारणावतम्। उत्सवे विहरिष्यन्ति धृतराष्ट्रस्य शासनात्।। | 1-156-7a 1-156-7b |
स त्वं रासभयुक्तेन स्यन्दनेनाशुगामिना। वारणावतमद्यैव यथा यासि तया कुरु।। | 1-156-8a 1-156-8b |
तत्र गत्वा चतुःशालं गृहं परमसंवृतम्। नगरोपान्तमाश्रित्य कारयेथा महाधनम्।। | 1-156-9a 1-156-9b |
शणसर्जरसादीनि यानि द्रव्याणि कानिचित्। आग्नेयान्युत सन्तीह तानि तत्र प्रदापय।। | 1-156-10a 1-156-10b |
`बल्वजेन च संमिश्रं मधूच्छिष्टेन चैव हि।' सर्पिस्तैलवसाभिश्च लाक्षया चाप्यनल्पया। मृत्तिकां मिश्रयित्वा त्वं लेपं कुड्येषु दापय।। | 1-156-11a 1-156-11b 1-156-11c |
शणं तैलं घृतं चैव जतु दारूणि चैव हि। तस्मिन्वेश्मनि सर्वाणि निक्षिपेथाः समन्ततः।। | 1-156-12a 1-156-12b |
`लाक्षाशममधूच्छिष्टवेष्टितानि मृदापि च। लेपयित्वा गुरूण्याशु दारुयन्त्राणि दापय।।' | 1-156-13a 1-156-13b |
यथा च तन्न पश्येरन्परीक्षन्तोऽपि पाण्डवाः। आग्नेयमिति तत्कार्यमपि चान्येऽपि मानवाः।। | 1-156-14a 1-156-14b |
वेश्मन्येवं कृते तत्र कृत्वा तान्परमार्चितान्। वासयेथाः पाण्डवेयान्कुन्तीं च ससुहृज्जनाम्।। | 1-156-15a 1-156-15b |
आसनानि च दिव्यानि यानानि शयनानि न। निघातव्यानि पाण्डूनां यथा तुष्येच्च मे पिता।। | 1-156-16a 1-156-16b |
यथा च तन्न जानन्ति नगरे वारणावते। `यथा रमेरन्विस्रब्धा नगरे वारणावते।' तथा सर्वं विधातव्यं यावत्कालस्य पर्ययः।। | 1-156-17a 1-156-17b 1-156-17c |
ज्ञात्वा च तान्सुविश्वस्ताञ्शयानानकुतोभयान्। अग्निस्त्वया ततो देयो द्वारतस्तस्य वेश्मनः।। | 1-156-18a 1-156-18b |
दग्धानेवं स्वके गेहे दाहिताः पाण्डवा इति। न गर्हयेयुरस्मान्वै पाण्डवार्थाय कर्हिचित्।। | 1-156-19a 1-156-19b |
स तथेति प्रतिज्ञाय कौरवाय पुरोचनः। प्रायाद्रासभयुक्तेन स्यन्दनेनाशुगामिना।। | 1-156-20a 1-156-20b |
स गत्वा त्वरितं राजन्दुर्योधनमते स्थितः। यथोक्तं राजपुत्रेण सर्वं चक्रे पुरोचनः।। | 1-156-21a 1-156-21b |
`तेषां तु पाण्डवेयानां गृहं रौद्रमकल्पयत्।।' | 1-156-22a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 156 ।। |
1-156-6 उद्धर उन्मूलय।। 1-156-10 आग्नेयान्यग्निसंदीपकानि।। षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 156 ।।
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