महाभारतम्-01-आदिपर्व-135
दिखावट
← आदिपर्व-134 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-135 वेदव्यासः |
आदिपर्व-136 → |
पाण्डवैः सह ऋषीणां हस्तिनापुरगमनम्।। 1 ।।
पाण्डुवृत्तान्तकथनपूर्वकं पाण्डवान्भीष्माय समर्प्य ऋषीणां प्रतिनिवर्तनम्।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-135-1x |
पाण्डोरुपरमं दृष्ट्वा देवकल्पा महर्षयः। ततो मन्त्रविदः सर्वे मन्त्रयांचक्रिरे मिथः।। | 1-135-1a 1-135-1b |
तापसा ऊचुः। | 1-135-2x |
हित्वा राज्यं च राष्ट्रं च स महात्मा महायशाः। अस्मिंस्थाने तपस्तप्त्वा तापसाञ्शरणं गतः।। | 1-135-2a 1-135-2b |
स जातमात्रान्पुत्रांश्च दारांश्च भवतामिह। प्रादायोपनिधिं राजा पाण्डुः स्वर्गमितो गतः।। | 1-135-3a 1-135-3b |
तस्येमानात्मजान्देहं भार्यां च सुमहात्मनः। स्वराष्ट्रं गृह्य गच्छामो धर्म एष हि नः स्मृतः।। | 1-135-4a 1-135-4b |
वैशंपायन उवाच। | 1-135-5x |
ते परस्परमामन्त्र्य देवकल्पा महर्षयः। पाण्डोः पुत्रान्पुरस्कृत्य नगरं नागसाह्वयम्।। | 1-135-5a 1-135-5b |
उदारमनसः सिद्धा गमने चक्रिरे मनः। भीष्माय पण्डवान्दातुं धृतराष्ट्राय चैव हि।। | 1-135-6a 1-135-6b |
तस्मिन्नेव क्षणे सर्वे तानादाय प्रतस्थिरे। पाण्डोर्दारांश्च पुत्रांश्च शरीरे ते च तापसाः।। | 1-135-7a 1-135-7b |
सुखिनी सा पुरा भूत्वा सततं पुत्रवत्सला। प्रपन्ना दीर्घमध्वानं संक्षिप्तं तदमन्यत।। | 1-135-8a 1-135-8b |
सा त्वदीर्घेण कालेन संप्राप्ता कुरुजाङ्गलम्। वर्धमानपुरद्वारमाससाद यशस्विनी।। | 1-135-9a 1-135-9b |
द्वारिणं तापसा ऊचू राजानं च प्रकाशय। ते तु गत्वा क्षणेनैव सभायां विनिवेदिताः।। | 1-135-10a 1-135-10b |
तं चारणसहस्राणां मुनीनामागमं तदा। श्रुत्वा नागपुरे नॄणां विस्मयः समपद्यत।। | 1-135-11a 1-135-11b |
मुहूर्तोदित आदित्ये सर्वे बालपुरस्कृताः। सदारास्तापसान्द्रष्टुं निर्ययुः पुरवासिनः।। | 1-135-12a 1-135-12b |
स्त्रीसङ्घाः क्षत्रसङ्घाश्च यानसङ्घसमास्थिताः। ब्राह्मणैः सह निर्जग्मुर्ब्राह्मणानां च योषितः।। | 1-135-13a 1-135-13b |
तथा विट्शूद्रसङ्घानां महान्यतिकरोऽभवत्। न कश्चिदकरोदीर्ष्यामभवन्धर्मबुद्धयः।। | 1-135-14a 1-135-14b |
तथा भीष्मः शान्तनवः सोमदत्तो।ञथ बाह्लिकः। प्रज्ञाचक्षुश्च राजर्षिः क्षत्ता च विदुरः स्वयम्।। | 1-135-15a 1-135-15b |
सा च सत्यवती देवी कौसल्या च यशस्विनी। राजदारैः परिवृता गान्धारी चापि निर्ययौ।। | 1-135-16a 1-135-16b |
धृतराष्ट्रस्य दायादा दुर्योधनपुरोगमाः। भूषिता भूषणैश्चित्रैः शतसङ्ख्या विनिर्ययुः।। | 1-135-17a 1-135-17b |
तान्महर्षिगणान्दृष्ट्वा शिरोभिरभिवाद्य च। उपोपविविशुः सर्वे कौरव्याः सपुरोहिताः।। | 1-135-18a 1-135-18b |
तथैव शिरसा भूमावभिवाद्य प्रणम्य च। उपोपविविशुः सर्वे पौरजानपदा अपि।। | 1-135-19a 1-135-19b |
तमकूजमभिज्ञाय जनौघं सर्वशस्तदा। पूजयित्वा यथान्यायं पाद्येनार्घ्येण च प्रभो।। | 1-135-20a 1-135-20b |
भीष्मो राज्यं च राष्ट्रं च महर्षिभ्यो न्यवेदयत्। तेषामथो वृद्धतमः प्रत्युत्थाय जटाजिनी। ऋषीणां मतमाज्ञाय महर्षिरिदमब्रवीत्।। | 1-135-21a 1-135-21b 1-135-21c |
यः स कौरव्यदायादः पाण्डुर्नाम नराधिपः। कामभोगान्परित्यज्य शतशृङ्गमितो गतः।। | 1-135-22a 1-135-22b |
`राजा भोगान्परित्यज्य तपस्वी संबभूव ह। स यथोक्तं तपस्तेपे पत्रमूलफलाशनः।। | 1-135-23a 1-135-23b |
पत्नीभ्यां सह धर्मात्मा संचित्कालमतन्द्रितः। तेन वृत्तसमाचारैस्तपसा च तपस्विनः।। | 1-135-24a 1-135-24b |
तोषितास्तापसास्तत्र शतशृङ्गनिवासिनः। स्वर्गलोकं गन्तुकामं तापसाः संनिवार्य तम्।। | 1-135-25a 1-135-25b |
उद्यन्तं सह पत्नीभ्यां विप्रा वचनमब्रुवन्। अनपत्यस्य राजेन्द्र पुण्या लोका न सन्ति ते।। | 1-135-26a 1-135-26b |
तस्माद्धर्मं च वायुं च महेन्द्रं च तथाऽश्विनौ। आराधयस्व राजेन्द्र पत्नीभ्यां सह देवताः।। | 1-135-27a 1-135-27b |
प्रीताः पुत्रान्प्रदास्यन्ति ऋणमुक्तो भविष्यसि। तपसा दिव्यचक्षुष्ट्वात्पश्यामस्ते तथा सुतान्।। | 1-135-28a 1-135-28b |
अस्माकं वचनं श्रुत्वा देवानाराधयत्तदा।' ब्रह्मचर्यव्रतस्थस्य तस्य दिव्येन हेतुना।। | 1-135-29a 1-135-29b |
साक्षाद्धर्मादयं पुत्रस्तत्र जातो युधिष्ठिरः। तथैनं बलिनां श्रेष्ठं तस्य राज्ञो महात्मनः।। | 1-135-30a 1-135-30b |
मातरिश्वा ददौ पुत्रं भीमं नाम महाबलम्। पुरन्दरादयं जज्ञे कुन्त्यां सत्यपराक्रमः।। | 1-135-31a 1-135-31b |
`अस्मिञ्जाते महेष्वासे पृथामिन्द्रस्तदाऽब्रवीत्। मत्प्रसादादयं जातः कुन्ति सत्यपराक्रमः।। | 1-135-32a 1-135-32b |
अजेयानपि जेताऽरीन्देवतादीन्न संशयः।' यस्य कीर्तिर्महेष्वासान्सर्वानभिभविष्यति।। | 1-135-33a 1-135-33b |
`युधिष्ठिरो राजसूयं भ्रातृवीर्यादवाप्स्यति। एष जेता मनुष्यांश्च सर्वान्गन्धर्वराक्षसान्।। | 1-135-34a 1-135-34b |
एष दुर्योधनादीनां कौरवाणां च जेष्यति। वीरस्यैतस्य विक्रान्तैर्धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।। | 1-135-35a 1-135-35b |
यक्ष्यते राजसूयाद्यैर्धर्म एव परः सदा।' यौ तु माद्री महेष्वासावसूत पुरुषोत्तमौ।। | 1-135-36a 1-135-36b |
अश्विभ्यां पुरुषव्याघ्राविमौ तावपि तिष्ठतः। `नकुलः सहदेवश्च तावप्यमिततेजसौ।।' | 1-135-37a 1-135-37b |
चरता धर्मनित्येन वनवासं यशस्विना। एष पैतामहो वंशः पाण्डुना पुनरुद्धृतः।। | 1-135-38a 1-135-38b |
पुत्राणां जन्म वृद्धिं च वैदिकाध्ययनानि च। पश्यन्तः सततं पाण्डोः परां प्रीतिमवाप्स्यथ।। | 1-135-39a 1-135-39b |
वर्तमानः सतां वृत्ते पुत्रलाभमवाप च। पितृलोकं गतः पाण्डुरितः सप्तदशेऽहनि।। | 1-135-40a 1-135-40b |
तं चितागतमाज्ञाय वैश्वानरमुखे हुतम्। प्रविष्टा पावकं माद्री हित्वा जीवितमात्मनः।। | 1-135-41a 1-135-41b |
सा गता सह तेनैव पतिलोकमनुव्रता। तस्यास्तस्य च यत्कार्यं क्रियतां तदनन्तरम्।।' | 1-135-42a 1-135-42b |
पृथां च शरणं प्राप्तां पाण्डवांश्च यशस्विनः। यथावदनुमन्यन्तां धर्मो ह्येष सनातनः।। | 1-135-43a 1-135-43b |
इमे तयोः शरीरे द्वे पुत्राश्चेमे तयोर्वराः। क्रियाभिरनुगृह्यन्तां सह मात्रा परंतपाः।। | 1-135-44a 1-135-44b |
प्रेतकार्ये निवृत्ते तु पितृमेधं महायशाः। लभतां सर्वधर्मज्ञः पाण्डुः कुरुकुलोद्वहः।। | 1-135-45a 1-135-45b |
वैशंपायन उवाच। | 1-135-46x |
एवमुक्त्वा कुरून्सर्वान्कुरूणामेव पश्यताम्। क्षणेनान्तर्हिताः सर्वे तापसा गुह्यकैः सह।। | 1-135-46a 1-135-46b |
गन्धर्वनगराकारं तथैवान्तर्हितं पुनः। ऋषिसिद्धगणं दृष्ट्वा विस्मयं ते परं ययुः।। | 1-135-47a 1-135-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 135 ।। |
1-135-4 देहं देहयोरस्थीनि।। 1-135-8 तद्गमनं संक्षिप्तममन्यत मुनीनां योगप्रभावात् स्वदेशगमनौत्कण्ठ्याद्वा।। 1-135-9 वर्धमानपुरद्वारं मुख्यद्वारम्।। 1-135-11 आरण्यानां सहस्रसंख्यानां मुनीनां चेति योज्यम्।। 1-135-14 व्यतिकरः संघर्षः।। 1-135-20 अकूजं निःशब्दम्।। 1-135-45 प्रेतकार्ये सपण्डीकरणान्ते। पितृमेधं यज्ञविशेषम्। वृषोत्सर्गादिकं वा।। 1-135-47 गन्धर्वनगरं खपुरम्।। पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 135 ।।
आदिपर्व-134 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-136 |