महाभारतम्-01-आदिपर्व-182
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जनवार्तया दुर्योधनेन पाण्डवानां दाहं, स्वपुरोहितवचनेन नाशराहित्यं च, ज्ञातवता तेषां जीवने सन्दिहानेन द्रुपदेन उद्धोषितस्य पुत्रीस्वयंवरस्य कुन्तींप्रति ब्राह्मणेन कथनम्।। 1 ।।
युष्मासु तत्रागतेष्वीश्वरेच्छया त्वत्पुत्राणामन्यतमं पाञ्चाली वृणुयादपीत्युक्तवता ब्राह्मणेन सह पाण्डवानां पाञ्चालनगरं प्रति गमनम्।। 2 ।।
`ब्राह्मण उवाच। | 1-182-1x |
श्रुत्वा जतुगृहे वृत्तं ब्राह्मणाः संशितव्रताः। पाञ्चालराजं द्रुपदमिदं वचनमब्रुवन्।। | 1-182-1a 1-182-1b |
धार्तराष्ट्राः सहामात्या मन्त्रयित्वा परस्परम्। पाण्डवानां विनाशाय मतिं चक्रुः सुदुष्कराम्।। | 1-182-2a 1-182-2b |
दुर्योधनेन प्रहितः पुरोचन इति श्रुतः। वारणावतमासाद्य कृत्वा जतुगृहं महत्।। | 1-182-3a 1-182-3b |
तस्मिन्गृहे सुविस्रब्धान्पाण्डवान्पृथया सह। अर्धरात्रे महाराज दग्धवानतिदुर्मतिः।। | 1-182-4a 1-182-4b |
तेनाग्निना स्वयं चापि दग्धः क्षुद्रो नृशंसवत्। एतच्छ्रुत्वा सुसंहृष्टो धृतराष्ट्रः सबान्धवः।। | 1-182-5a 1-182-5b |
अल्पशोकः प्रहृष्टात्मा शशास विदुरं तदा। पाण्डवानां महाप्राज्ञ कुरु पिण्डोदकक्रियाम्।। | 1-182-6a 1-182-6b |
अहो विधिवशादेव गतास्ते यमसादनम्। इत्युक्त्वा प्रारदत्तत्र धृतराष्ट्रः सबान्धवः।। | 1-182-7a 1-182-7b |
श्रुत्वा भीष्मेण विदुरः कृतवानौर्ध्वदेहिकम्। पाण्डवानां विनाशाय कृतं कर्म दुरात्मना।। | 1-182-8a 1-182-8b |
एतत्कार्यस्य कर्ता तु न दृष्टो न श्रुतः पुरा। एतद्वृत्तं महाभाग पाण्डवान्प्रति नः श्रुतम्।। | 1-182-9a 1-182-9b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-182-10x |
श्रुत्वा तु वचनं तेषां यज्ञसेनो महामतिः। यथा तज्जनकः शोचेदौरसस्य विनाशे।। | 1-182-10a 1-182-10b |
तथाऽतप्यत वै राजा पाण्डवानां विनाशने। समाहूय प्रकृतयः सहिताः सर्वनागरैः।। | 1-182-11a 1-182-11b |
कारुण्यादेव पाञ्चालः प्रोवाचेदं वचस्तदा। | 1-182-12a |
द्रुपद उवाच। | 1-182-12x |
अहो रूपमहो धैर्यमहो वीर्यमहो बलम्।। | 1-182-12b |
चिन्तयामि दिवारात्रमर्जुनं प्रति बान्धवाः। भ्रातृभिः सहितो मात्रा सोऽदह्यत हुताशने।। | 1-182-13a 1-182-13b |
किमाश्चर्यमितो लोके कालो हि दुरतिक्रमः। मिथ्याप्रतिज्ञो लोकेषु किं करिष्यामि सांप्रतं।। | 1-182-14a 1-182-14b |
अन्तर्गतेन दुःखेन दह्यमानो दिवानिशम्। याजोपयाजौ सत्कृत्य याचितौ तौ मयाऽनघौ।। | 1-182-15a 1-182-15b |
भारद्वाजस्य हन्तारं देवीं चाप्यर्जुनस्य वै। लोकस्तद्वेद यच्चापि तथा याजेन मे श्रुतम्।। | 1-182-16a 1-182-16b |
याजेन पुत्रकामीयं हुत्वा चोत्पादिताविमौ। धृष्टद्युम्नश्च कृष्णा च मम तुष्टिकरावुभौ।। | 1-182-17a 1-182-17b |
किं करिष्यामि ते नष्टाः पाण्डवाः पृथया सह। | 1-182-18a |
ब्राह्मण उवाच। | 1-182-18x |
इत्येवमुक्त्वा पाञ्चालः शुशोच परमातुरः।। | 1-182-18b |
दृष्ट्वा शोचन्तमत्यर्थं पाञ्चालमिदमब्रवीत्। पुरोधाः सत्वसंपन्नः सम्यग्विद्याविशेषवित्।। | 1-182-19a 1-182-19b |
वृद्धानुशासने सक्ताः पाण्डवा धर्मचारिणः। तादृशा न विनश्यन्ति नैव यान्ति पराभवम्।। | 1-182-20a 1-182-20b |
मया दृष्टमिदं सत्यं शृणु त्वं मनुजाधिप। ब्राह्मणैः कथितं सत्यं वेदेषु च मया श्रुतम्।। | 1-182-21a 1-182-21b |
बृहस्पतिमतेनाथ पौलोम्या च पुरा श्रुतम्। नष्ट हन्द्रो बिसग्रन्थ्यामुपश्रुत्या हि दर्शितः।। | 1-182-22a 1-182-22b |
उपश्रुतिर्महाराज पाण्डवार्थे मया श्रुता। यत्रकुत्रापि जीवन्ति पाण्डवास्ते न संशयः।। | 1-182-23a 1-182-23b |
मया दृष्टानि लिङ्गानि इहैवैष्यन्ति पाण्डवाः। यन्निमित्तमिहायान्ति तच्छृणुष्व नराधिप।। | 1-182-24a 1-182-24b |
स्वयंवरः क्षत्रियाणां कन्यादाने प्रदर्शितः। स्वयंवरस्तु नगरे घुष्यतां राजसत्तम।। | 1-182-25a 1-182-25b |
यत्र वा निवसन्तस्ते पाण्डवाः पृथया सह। दूरस्था वा समीपस्था स्वर्गस्था वाऽपि पाण्डवाः।। | 1-182-26a 1-182-26b |
श्रुत्वा स्वयंवरं राजन्समेष्यन्ति न संशयः। तस्मात्स्वयंवरो राजन्घुष्यतां मा चिरं कृथाः।। | 1-182-27a 1-182-27b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-182-28x |
श्रुत्वा पुरोहितेनोक्तं पाञ्चालः प्रीतिमांस्तदा। घोषयामास नगरे द्रौपद्यास्तु स्वयंवरम्।। | 1-182-28a 1-182-28b |
पुष्यमासे तु रोहिण्यां शुक्लपक्षे शुभे तिथौ। दिवसैः पञ्चसप्तत्या भविष्यति न संशयः।। | 1-182-29a 1-182-29b |
देवगन्धर्वयक्षाश्च ऋषयश्च तपोधनाः। स्वयंवरं द्रष्टुकामा गच्छन्त्येव न संशयः।। | 1-182-30a 1-182-30b |
तव पुत्रा महात्मानो दर्शनीयो विशेषतः। यदृच्छया सा पाञ्चाली गच्छेद्वान्यतमं पतिम्।। | 1-182-31a 1-182-31b |
को हि जानाति लोकेषु प्रजापतिमतं शुभण्। तस्मात्सपुत्रा गच्छेथा यदि ब्राह्मणि रोचते।। | 1-182-32a 1-182-32b |
नित्यकालं सुभिक्षास्ते पाञ्चालास्तु तपोधने। यज्ञसेनस्तु राजा स ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः।। | 1-182-33a 1-182-33b |
ब्रह्मण्या नागराः सर्वे ब्राह्मणाश्चातिथिप्रियाः। नित्यकालं प्रदास्यन्ति आमन्त्रणमयाचितम्।। | 1-182-34a 1-182-34b |
अहं च तत्र गच्छामि ममैभिः सह शिष्यकैः। एकसार्थाः प्रयाताः स्मो ब्राह्मण्या यदि रोचते।। | 1-182-35a 1-182-35b |
एतावदुक्त्वा वचनं ब्राह्मणो विरराम ह।। | 1-182-36x |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि द्व्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 182 ।। |
1-182-9 एतत्कार्यस्य एतादृशकार्यस्य।। 1-182-21 दृष्टं ऊहितम्।। द्व्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 182 ।।
आदिपर्व-181 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-183 |