महाभारतम्-01-आदिपर्व-104
दिखावट
← आदिपर्व-103 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-104 वेदव्यासः |
आदिपर्व-105 → |
समयबन्धपूर्वकं गङ्गाशान्तन्वोर्विवाहः।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-104-1x | |||
एतच्छ्रुत्वा वचो राज्ञः सस्मितं मृदु वल्गु च। यशस्विनी च साऽगच्छच्छान्तनोर्भूतये तदा।। | 1-104-1a 1-104-1b | |||
सा तु दृष्ट्वा नृपश्रेष्ठं चरन्तं तीरमाश्रितम्। वसूनां समयं स्मृत्वाऽथाभ्यगच्छदनिन्दिता।। | 1-104-2a 1-104-2b | |||
प्रजार्थिनी राजपुत्रं शान्तनुं पृथिवीपतिम्। प्रतीपवचनं चापि संस्मृत्यैव स्वयं नृपम्।। | 1-104-3a 1-104-3b | |||
कालोऽयमिति मत्वा सा वसूनां शापचोदिता। उवाच चैव राज्ञः सा ह्लादयन्ती मनो गिरा।। | 1-104-4a 1-104-4b | |||
गङ्गोवाच। | 1-104-5x | |||
भविष्यामि महीपाल महिषी ते वशानुगा। न तु त्वं वा द्वितीयो वा ज्ञातुमिच्छेत्कथंचन।। | 1-104-5a 1-104-5b | |||
यत्तु कुर्यामहं राजञ्शुभं वा यदि वाऽशुभम्। न तद्वारयितव्याऽस्मि न वक्तव्या तथाऽप्रियम्।। | 1-104-6a 1-104-6b | |||
एवं हि वर्तमानेऽहं त्वयि वत्स्यामि पार्थिव। वारिता विप्रियं चोक्ता त्यजेयं त्वामसंशयम्।। | 1-104-7a 1-104-7b | |||
एष मे समयो राजन्भज मां त्वं यथेप्सितम्। अनुनीताऽस्मि ते पित्रा भर्ता मे त्वं भव प्रभो।। | 1-104-8a 1-104-8b | |||
वैशंपायन उवाच। | 1-104-9x | |||
तथेति सा यदा तूक्ता तदा भरतसत्तम। प्रहर्षमतुलं लेभे प्राप्य तं पार्थिवोत्तमम्।। | 1-104-9a 1-104-9b | |||
प्रतिज्ञाय तु तत्तस्यास्तथेति मनुजाधिपः। रथमारोप्य तां देवीं जगाम स तया सह।। | 1-104-10a 1-104-10b | |||
सा च शान्तनुमभ्यागात्साक्षाल्लक्ष्मीरिवापरा। आसाद्य शान्तनुस्तां च बुभुजे कामतो वशी।। | 1-104-11a 1-104-11b | |||
न प्रष्टव्येति मन्वानो न स तां किंचिदूचिवान्। स तस्याः शीलवृत्तेन रूपौदार्यगुणेन च।। | 1-104-12a 1-104-12b | |||
उपचारेण च रहस्तुतोष जगतीपतिः। स राजा परमप्रीतः परमस्त्रीप्रलालितः।। | 1-104-13a 1-104-13b | |||
दिव्यरूपा हि सा देवी गङ्गा त्रिपथगामिनी। मानुषं विग्रहं कृत्वा श्रीमन्तं वरवर्णिनी।। | 1-104-14a 1-104-14b | |||
भाग्योपनतकामस्य भार्या चोपनताऽभवत्। शन्तनोर्नृपसिंहस्य देवराजसमद्युतेः।। | 1-104-15a 1-104-15b | |||
संभोगस्नेहचातुर्यैर्हावलास्यैर्मनोहरैः। राजानं रमयामास यथा रज्येत स प्रभुः।। | 1-104-16a 1-104-16b | |||
स राजा रतिसक्तोऽभूदुत्तमस्त्रीगुणैर्हृतः।। ।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि चतुरधिकशततमोऽध्यायः।। 104 ।। | 1-104-17a
|