महाभारतम्-01-आदिपर्व-163
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तृषार्तान् मातरं भ्रांतॄश्च न्यग्रोधमूले स्थापयित्वा जलानयनाय भीमस्य गमनम्।। 1 ।।
जलमानीयागतस्य भूमौ सुप्तान्मात्रादीन्पश्यतो भीमस्य प्रलापः।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-163-1x |
तेन विक्रममाणेन ऊरुवेगसमीरितम्। वनं सवृक्षविटपं व्याघूर्णितमिवाभवत्।। | 1-163-1a 1-163-1b |
जङ्गावातो ववौ चास्य शुचिशुक्रागमे यथा। आवर्जितालतावृक्षं मार्गं चक्रे महाबलः।। | 1-163-2a 1-163-2b |
स मृद्गन्पुष्पितांश्चैव फलितांश्च वनस्पतीन्। अवरुज्य ययौ गुल्मान्पथस्तस्य समीपजान्।। | 1-163-3a 1-163-3b |
स रोषित इव क्रुद्धो वने भञ्जन्महाद्रुमान्। त्रिप्रस्रुतमदः शुष्मी षष्टिवर्षो मतङ्गराट्।। | 1-163-4a 1-163-4b |
गच्छतस्तस्य वेगेन तार्क्ष्यमारुतरंहसः। भीमस्य पाण्डुपुत्राणां मूर्च्छेव समजायत।। | 1-163-5a 1-163-5b |
असकृच्चापि सतीर्य दूरपारं भुजप्लवैः। पथि प्रच्छन्नमासेदुर्धार्तराष्ट्रभयात्तदा।। | 1-163-6a 1-163-6b |
कृच्छ्रेण मातरं चैव सुकुमारीं यशस्विनीम्। अवहत्स तु पृष्ठेन रोधःसु विषमेषु च।। | 1-163-7a 1-163-7b |
अगमच्च वनोद्देशमल्पमूलफलोदकम्। क्रूरपक्षिमृगं घोरं सायाह्ने भरतर्षभ।। | 1-163-8a 1-163-8b |
घोरा समभवत्सन्ध्या दारुणा मृगपक्षिणः। अप्रकाशा दिशः सर्वा वातैरासन्ननार्तवैः।। | 1-163-9a 1-163-9b |
शीर्णपर्णफलै राजन्बहुगुल्मक्षुपद्रुमैः। भग्नावभुग्नभूयिष्ठैर्नानाद्रुमसमाकुलैः।। | 1-163-10a 1-163-10b |
ते श्रमेण च कौरव्यास्तृष्णया च प्रपीडिताः। नाशक्नुवंस्तदा गन्तुं निद्रया च प्रवृद्धया।। | 1-163-11a 1-163-11b |
न्यविशन्ति हि ते सर्वे निरास्वादे महावने। `रात्र्यामेव गतास्तूर्णं चतुर्विंशतियोजनम्।' ततस्तृषा परिक्लन्ता कुन्ती वचनमब्रवीत्।। | 1-163-12a 1-163-12b 1-163-12c |
माता सती पाण्डवानां पञ्चानां मध्यतः स्थिता। तृष्णया हि परीताऽहमनाथेव महावने।। | 1-163-13a 1-163-13b |
`इतः परं तु शक्ताहं गन्तुं च न पदात्पदम्। शयिष्ये वृक्षमूलेऽत्र धार्तराष्ट्रा हरन्तु माम्।। | 1-163-14a 1-163-14b |
शृणु भीम वचो मह्यं तव बाहुबलात्पुरः। स्थातुं न शक्ताः कौरव्याः किं बिभेषि पृथासुत।। | 1-163-15a 1-163-15b |
अन्यो रथो न मेऽस्तीह भीमसेनादृते भुवि। धार्तराष्ट्राद्वृथा भीरुर्न मां स्वप्तुमिहेच्छसि।। | 1-163-16a 1-163-16b |
वैशंपायन उवाच। | 1-163-17x |
भीमपृष्ठस्थिता चेत्थं दूयमानेन चेतसा। निश्यध्वनि रुदन्ती सा निद्रावश्मुपागता।।' | 1-163-17a 1-163-17b |
तच्छ्रुत्वा भीमसेनस्य मातृस्नेहात्प्रजल्पितम्। कारुण्येन मनस्तप्तं गमनायोपचक्रमे।। | 1-163-18a 1-163-18b |
ततो भीमो वनं घोरं प्रविश्य विजनं महत्। न्यग्रोधं विपुलच्छायं रमणीयं ददर्श ह।। | 1-163-19a 1-163-19b |
तत्र निक्षिप्य तान्सर्वानुवाच भरतर्षभः। पानीयं मृगयामीह तावद्विश्रम्यतामिह।। | 1-163-20a 1-163-20b |
एते रुवन्ति मधुरं सारसा जलचारिणः। ध्रुवमत्र जलस्थानं महच्चेति मतिर्मम।। | 1-163-21a 1-163-21b |
अनुज्ञातः स गच्छेति भ्रात्रा ज्येष्ठेन भारत। जगाम तत्र यत्र स्म सारसा जलचारिणः।। | 1-163-22a 1-163-22b |
`अपश्यत्पद्मिनीखण्डमण्डितं स सरोवरम्।' स तत्र पीत्वा पानीयं स्नात्वा च भरतर्षभ।। | 1-163-23a 1-163-23b |
तेषामर्थे च जग्राह भ्रातॄणां भ्रातृवत्सलः। उत्तरीयेण पानीयमानयामास भारत।। | 1-163-24a 1-163-24b |
`पङ्कजानामनेकैश्च पत्रैर्बध्वा पृथक्पृथक्।' गव्यूतिमात्रादागत्य त्वरितो मातरं प्रति। शोकदुःखपरीतात्मा निशश्वासोरगो यथा।। | 1-163-25a 1-163-25b 1-163-25c |
स सुप्तां मातरं `भ्रातॄन्निद्राविद्रावितौजसः। महारौद्रे वने घोरे वृक्षमूले सुशीतले।। | 1-163-26a 1-163-26b |
विक्षिप्तकरपादांश्च दीर्घोच्छ्वासान्महाबलान्। ऊर्ध्ववक्त्रान्महाकायान्पञ्चेन्द्रानिव भूपते।। | 1-163-27a 1-163-27b |
अज्ञातवृक्षनित्यस्थप्रेतराक्षससाध्वसान्। दृष्ट्वा वै भृशशोकार्तो बिललापानिलात्मजः।।' | 1-163-28a 1-163-28b |
भृशं शोकपरीत्मा विललाप वृकोदरः।। | 1-163-29a |
अतः कष्टतरं किं नु द्रष्टव्यं हि भविष्यति। यत्पश्यामि महीसुप्तान्भ्रातॄनद्य सुमन्दभाक्।। | 1-163-30a 1-163-30b |
शयनेषु परार्ध्येषु ये पुरा वारणावते। नाधिजग्मुस्तदा निद्रां तेऽद्य सुप्ता महीतले।। | 1-163-31a 1-163-31b |
स्वसारं वसुदेवस्य शत्रुसङ्घावमर्दिनः। कुन्तिराजसुतां कुन्तीं सर्वलक्षणपूजिताम्।। | 1-163-32a 1-163-32b |
स्नुषां विचित्रवीर्यस्य भार्यां पाण्डोर्महात्मनः। तथैव चास्मज्जननीं पुण्डरीकोदरप्रभाम्।। | 1-163-33a 1-163-33b |
सुकुमारतरामेनां महार्हशयनोचिताम्। शयानां पश्यताऽद्येह पृथिव्यामतथोचिताम्।। | 1-163-34a 1-163-34b |
धर्मादिन्द्राच्च वाताच्च सुपुवे या सुतानिमान्। सेयं भूमौ परिश्रान्ता शेषे प्रासादशायिनी।। | 1-163-35a 1-163-35b |
किं नु दुःखतरं शक्यं मया द्रष्टुमतः परम्। योऽहमद्य नरव्याघ्रान्सुप्तान्पश्यामि भूतले।। | 1-163-36a 1-163-36b |
त्रिषु लोकेषु यो राज्यं धर्मनित्योऽर्हते नृपः। सो।़यं भूमौ परिश्रान्तः शेते प्राकृतवत्कथम्।। | 1-163-37a 1-163-37b |
अयं नीलाम्बुदश्यामो नरेष्वप्रतिमोऽर्जुनः। शेते प्राकृतवद्भूमौ ततो दुःखतरं नु किम्।। | 1-163-38a 1-163-38b |
अश्विनाविव देवानां याविमौ रूपसंपदा। तौ प्राकृतवदद्येमौ प्रसुप्तौ धरणीतले।। | 1-163-39a 1-163-39b |
ज्ञातयो यस्य नै स्युर्विषमाः कुलपांसनाः। स जीवेत सुखं लोके ग्रामद्रुम इवैकजः।। | 1-163-40a 1-163-40b |
एको वृक्षो हि यो ग्रामे भवेत्पर्णफलान्वितः। चैत्यो भवति निर्ज्ञातिरध्वनीनैश्च पूजितः।। | 1-163-41a 1-163-41b |
येषां च बहवः शूरा ज्ञातयो धर्ममाश्रिताः। ते जीवन्ति सुखं लोके भवन्ति च निरामयाः।। | 1-163-42a 1-163-42b |
बलवन्तः समृद्धार्था मित्रबान्धवनन्दनाः। जीवन्त्यन्योन्यमाश्रित्य द्रुमाः काननजा इव।। | 1-163-43a 1-163-43b |
वयं तु धृतराष्ट्रेण दुष्पुत्रेण दुरात्मना। `राज्यलुब्धेन मूर्खेण दुर्मन्त्रिसहितेन वै।। | 1-163-44a 1-163-44b |
दुष्टेनाधर्मशीलेन स्वार्थनिष्ठैकबुद्धिना।' विवासिता न दग्धाश्च क्षत्तुर्बुद्धिपराक्रमात्।। | 1-163-45a 1-163-45b |
तस्मान्मुक्ता वयं दाहादिमं वृक्षमुपाश्रिताः। कां दिशं प्रतिपत्स्यामः प्राप्ताः क्लेशमनुत्तमम्।। | 1-163-46a 1-163-46b |
सकामो भव दुर्बुद्धे धार्तराष्ट्राल्पदर्शन। नूनं देवाः प्रसन्नास्ते नानुज्ञां मे युधिष्ठिरः।। | 1-163-47a 1-163-47b |
प्रयच्छति वधे तुभ्यं तेन जीवसि दुर्मते। नन्वद्य ससुतामात्यं सकर्णानुजसौबलम्।। | 1-163-48a 1-163-48b |
गत्वा क्रोधसमाविष्टः प्रेषयिष्ये यमक्षयम्। किं नु शक्यं मया कर्तुं यत्तेन क्रुध्यते नृपः।। | 1-163-49a 1-163-49b |
धर्मात्मा पाण्डवश्रेष्ठः पापाचार युधिष्ठिरः। एवमुक्त्वा महाबाहुः क्रोधसन्दीप्तमानसः।। | 1-163-50a 1-163-50b |
करं करेण निष्पिष्य निःश्वसन्दीनमानसः। पुनर्दीनमना भूत्वा शान्तार्चिरिव पावकः।। | 1-163-51a 1-163-51b |
भ्रातॄन्महीतले सुप्तानवैक्षत वृकोदरः। विश्वस्तानिव संविष्टान्पृथग्जनसमानिव।। | 1-163-52a 1-163-52b |
नातिदूरेण नगरं वनादस्माद्धि लक्षये। जागर्तव्ये स्वपन्तीमे हन्त जागर्म्यहंस्वयम्।। | 1-163-53a 1-163-53b |
प्राश्यन्तीमे जलं पश्चात्प्रतिबुद्धा जितक्लमाः। इति भीमो व्यवस्यैव जजागार स्वयं तदा।। | 1-163-54a 1-163-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 163 ।। | |
।। समाप्तं जतुर्गृहपर्व ।। |
1-163-2 शुचिशुक्रागमे ज्येष्ठाषाढयोः समये। आवर्जिताः समीकृता लता वृक्षाश्च यस्मिन्।। 1-163-3 अवरुज्य भङ्क्त्वा।। 1-163-4 रोषितो रोषं प्रापितः। त्रिषु गण्डकर्णमूलगुह्यदेशेषु प्रस्रुतो मदो यस्य सः। शुष्मी तेजस्वी।। 1-163-9 अनार्तवैरनृतुभवैरुत्पातरूपैरित्यर्थः।। 1-163-12 तृषा तृष्णया।। 1-163-30 मुमन्दभागतिमन्दभाग्यः।। 1-163-40 एकज एक एव जातोऽसहायः।। 1-163-43 बान्धवानां नन्दनाः सुखदाः।। 1-163-48 तुभ्यं तव।। त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 163 ।।
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