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महाभारतम्-01-आदिपर्व-238

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अर्जुनस्य प्रभासतीर्थगमनम्।। 1 ।।
तत्र स्मृतिपथागतसुभद्रारूपलावण्यादिकं चिन्तयतोऽर्जुनस्य परिव्राजकवेषस्वीकारेण तस्या हरणे निश्चयः।। 2 ।।
अर्जुनस्य चिन्तितज्ञानेन हसता श्रीकृष्णेन सह शायिन्या सत्यभामया हासकारणे पृष्टे तां प्रति अर्जुनवृत्तान्तकथनम्।। 3 ।।
सत्यभामां शयने विहाय एकाकिना श्रीकृष्णेन प्रभासतीर्थंप्रति प्रस्थानम्।। 4 ।।
चारमुखेन अर्जुनस्य तत्रागमनं श्रुत्वा कृष्णस्य तत्रागमनम्।। 5 ।।
अर्जुनेन संभाप्य कृष्णस्य द्वारकांप्रति पुनरागमनम्।। 6 ।।

वैशंपायन उवाच। 1-238-1x
सोऽपरान्तेषु तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च।
सर्वाण्येवानुपूर्व्येण जगामामितविक्रमः।।
1-238-1a
1-238-1b
समुद्रे पश्चिमे यानि तीर्थान्यायतनानि च।
तानि सर्वाणि गत्वा स प्रभासमुपजग्मिवान्।।
1-238-2a
1-238-2b
`चिन्तयामास रात्रौ तु गदेन कथितं पुरा।
सुभद्रायाश्च माधुर्यरूपसंपद्गुणानि च।।
1-238-3a
1-238-3b
प्राप्तुमं तां चिन्तयामास कोऽत्रोपायो भवेदिति।
वेषवैकृत्यमापन्नः परिव्राजकरूपधृत्।।
1-238-4a
1-238-4b
कुकुरान्धकवृष्णीनामज्ञातो वेषधारणात्।
भ्रममाणश्चरन्भैक्षं परिव्राजकवेषवान्।।
1-238-5a
1-238-5b
येनकेनाप्युपायेन प्रविश्य च गृहं महत्।
दृष्ट्वा सुभद्रां कृष्णस्य भगिनीमेकसुन्दरीम्।।
1-238-6a
1-238-6b
वासुदेवमतं ज्ञात्वा करिष्यामि हितं शुभम्।
एवं विनिश्चयं कृत्वा दीक्षितो वै तदाऽभवत्।।
1-238-7a
1-238-7b
त्रिदण्डी मुण्डितः कुण्डी अक्षमालाङ्गुलीयकः।
योगभारं वहन्पार्थो वटवृक्षस्य कोटरम्।।
1-238-8a
1-238-8b
प्रविशंश्चैव बीभत्सुर्वृष्टिं वर्षति वासवे।
चिन्तयामास देवेशं केशवं क्लेशनाशनम्।।
1-238-9a
1-238-9b
केशवश्चिन्तितं ज्ञात्वा दिव्यज्ञानेन दृष्टवान्।
शयानः शयने दिव्ये सत्यभामासहायवान्।।
1-238-10a
1-238-10b
केशवः सहसा राजञ्जहाय च ननन्द च।
पुनः पुनः सत्यभामा चाब्रवीत्पुरुषोत्तमम्।।
1-238-11a
1-238-11b
भगवंश्चिन्तयाविष्टः शयने शयितः सुखम्।
भवान्बहुप्रकारेण जहास च पुनः पुनः।।
1-238-12a
1-238-12b
श्रोतव्यं यदि वा कृष्ण प्रसादो यदि ते मयि।
वक्तुमर्हसि देवेश तच्छ्रोतुं कामयाम्यहम्।।
1-238-13a
1-238-13b
श्रीभगवानुवाच। 1-238-14x
पितृष्वसुर्यः पुत्रो मे भीमसेनानुजोऽर्जुनः।
तीर्थयात्रां गतः पार्थः कारणात्समयात्तदा।।
1-238-14a
1-238-14b
तीर्थयात्रासमाप्तौ तु निवृत्तो निशि भारतः।
सुभध्रां चिन्तयामास रूपेणाप्रतिमां भुवि।।
1-238-15a
1-238-15b
चिन्तयेन्नेव तां भद्रां यतिरूपधरोऽर्जुनः।
यतिरूपप्रतिच्छन्नो द्वारकां प्राप्य माधवीम्।।
1-238-16a
1-238-16b
येनकेनाप्युपायेन दृष्ट्वा तु वरवर्णिनीम्।
वासुदेवमतं ज्ञात्वा प्रयतिष्ये मनोरथम्।।
1-238-17a
1-238-17b
एवं व्यवसितः पार्थो यतिलिङ्गेन पाण्डवः।
छायायां वटवृक्षस्य वृष्टिं वर्षति वासवे।।
1-238-18a
1-238-18b
योगभारं वहन्नेव मानसं दुःखमाप्तवान्।
एतदर्थं विजानीहि हसन्तं मां मुदा प्रिये।।
1-238-19a
1-238-19b
भ्रातरं तव पश्येति सत्यभामां व्यसर्जयत्।
तत उत्थाय शयनात्प्रस्थितो मधुसूदनः।।'
1-238-20a
1-238-20b
प्रभासदेशं संप्राप्तं बीभत्सुमपराजितम्।
तीर्थान्यनुचरन्तं तं शुश्राव मधुसूदनः।।
1-238-21a
1-238-21b
चाराणां चैव वचनादेकाकी स जनार्दनः।
तत्राभ्यगच्छत्कौन्तेयं महात्मातं स माधवः।।
1-238-22a
1-238-22b
ददृशाते तदान्योन्यं प्रभासे कृष्णपाण्डवौ।। 1-238-23a
तावन्योन्यं समाश्लिष्य पृष्ट्वा च कुशलं वने।
आस्तां प्रियसखायौ तौ नरनारायणावृषी।।
1-238-24a
1-238-24b
ततोऽर्जुनं वासुदेवस्तां चर्यां पर्यपृच्छत।
किमर्थं पाण्डवैतानि तीर्थान्यनुचरस्युत।।
1-238-25a
1-238-25b
ततोऽर्जनो यथावृत्तं सर्वमाख्यातवांस्तदा।
श्रुत्वोवाच च वार्ष्णेय एवमेतदिति प्रभुः।।
1-238-26a
1-238-26b
तौ विहृत्य यथाकामं प्रभासे कृष्णपाण्डवौ।
महीधरं रैवतकं वासायैवाभिजग्मतुः।।
1-238-27a
1-238-27b
पूर्वमेव तु कृष्णस्य वचनात्तं महीधरम्।
पुरुषा मण्डयाञ्चक्रुरुपजह्रश्च भोजनम्।।
1-238-28a
1-238-28b
प्रतिगृह्यार्जुनः सर्वमुपभुज्य च पाण्डवः।
सहैव वासुदेवेन दृष्टवान्नटनर्तकान्।।
1-238-29a
1-238-29b
अभ्यनुज्ञाय तान्सर्वानर्चयित्वा च पाण्डवः।
सत्कृतं शनं दिव्यमभ्यगच्छन्महामतिः।।
1-238-30a
1-238-30b
ततस्तत्र महाबाहुः शयानः शयने शुभे।
तीर्थानां पल्वलानां च पर्वतानां च दर्शनम्।
आपगानां वनानां च कथयामास सात्वते।।
1-238-31a
1-238-31b
1-238-31c
एवं स कथयन्नेव निद्रया जनमेजय।
कौन्तेयोऽपि हृतस्तस्मिञ्शयने स्वर्गसन्निभे।।
1-238-32a
1-238-32b
मधुरेणैव गीतेन वीणाशब्देन चैव ह।
प्रबोध्यमानो बुबुधे स्तुतिभिर्मङ्गलैस्तता।।
1-238-33a
1-238-33b
स कृत्वाऽवश्यकार्याणि वार्ष्णेयेनाभिनन्दितः।
`वार्ष्णेयं समनुज्ञाप्य तत्र वासमरोचयत्।।
1-238-34a
1-238-34b
तथेत्युक्त्वा वासुदेवो भोजनं वै शशास ह।
यतिरूपधरं पार्थं विसृज्य सहसा हरिः।'
रथेन काञ्चनाङ्गेन द्वारकामभिजग्मिवान्।।
1-238-35a
1-238-35b
1-238-35c
अलङ्कृता द्वारका तु बभूव जनमेजय।। 1-238-36a
दिदृक्षन्तश्च गोविन्दं द्वारकावासिनो जनाः।
नरेन्द्रमार्गमाजग्मुस्तूर्णं शतसहस्रशः।।
1-238-37a
1-238-37b
`क्षणार्धमपि वार्ष्णेया गोविन्दविरहाक्षमाः।
कौतूहलसमाविष्टा भृशमुत्प्रेक्ष्य संस्थिताः।।'
1-238-38a
1-238-38b
अवलोकेषु नारीणां सहस्राणि शतानि च।
भोजवृष्ण्यन्धकानां च समवायो महानभूत्।।
1-238-39a
1-238-39b
स तथा सत्कृतः सर्वैर्भोजवृष्ण्यन्धकात्मजैः।
अभिवाद्याभिवाद्यांश्च सर्वैश्च प्रतिनन्दितः।।
1-238-40a
1-238-40b
कुमारैः सर्वशो वीरः सत्कारेणाभिचोदितः।
समानवयसः सर्वानाश्लिष्य स पुनःपुनः।।
1-238-41a
1-238-41b
कृष्णः स्वभवनं रम्यं प्रविवेश महाबलः।
प्रभासादागतं देव्यः सर्वाः कृष्णमपूजयन्।।
1-238-42a
1-238-42b
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
अर्जुनवनवासपर्वणि
अष्टत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 238 ।।

1-238-1 अपरान्तेषु पश्चिसमुद्रतीरेषु।।

1-238-36 अलंकृता द्वारका तु बभूव जनमेजय। कुन्तीपुत्रस्य पूजार्थमपि निष्कुटकेष्वपि।। इति च, ज, झ, ञ, ड, पाठः।। 1-238-37 दिदृक्षन्तश्च कौन्तेयं इति च, ज, झ, ञ, ज, पाठः।। 1-238-42 कृष्णस्य भवने रम्ये रत्नभोज्यसमावृते। उवास सह कृष्णेन बहुलास्तत्र शर्वरीः।। इति च, ज, झ, ञ, ड, पाठः।। अष्टत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 238 ।।

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