महाभारतम्-01-आदिपर्व-029
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कण्ठं दहतो ब्राह्मणस्य विषादीसहितस्य परित्राणम्।। 1 ।। गरुडस्य कश्यपेन संवादः।। 2 ।। गजकच्छपपूर्ववृत्तान्तकथनम्।। 3 ।। कश्यपाज्ञया गरुडस्य गजकच्छपग्रहणम्।। 4 ।। रोहिणवृक्षशाखाभङ्गः।। 5 ।।
सौतिरुवाच। | 1-29-1x |
तस्य कण्ठमनुप्राप्तो ब्राह्मणः सह भार्यया। दहन्दीप्त इवाङ्गारस्तमुवाचान्तरिक्षगः।। | 1-29-1a 1-29-1b |
द्विजोत्तम विनिर्गच्छ तूर्णमास्यादपावृतात्। न हि मे ब्राह्मणो वध्यः पापेष्वपि रतः सदा।। | 1-29-2a 1-29-2b |
सौतिरुवाच। | 1-29-3x |
ब्रुवाणमेवं गरुडं ब्राह्मणः प्रत्यभाषत। निषादी मम भार्येयं निर्गच्छतु मया सह।। | 1-29-3a 1-29-3b |
गरुड उवाच। | 1-29-4x |
एतामपि निषादीं त्वं परिगृह्याशु निष्पत। तूर्णं संभावयात्मानमजीर्णं मम तेजसा।। | 1-29-4a 1-29-4b |
सौतिरुवाच। | 1-29-5x |
ततः स विप्रो निष्क्रान्तो निषादीसहितस्तदा। वर्धयित्वा च गरुडमिष्टं देशं जगाम ह।। | 1-29-5a 1-29-5b |
सहभार्ये विनिष्क्रान्ते तस्मिन्विप्रे स पक्षिराट्। वितत्य पक्षावाकाशमुत्पपात मनोजवः।। | 1-29-6a 1-29-6b |
ततोऽपश्यत्स्वपितरं पृष्टश्चाख्यातवान्पितुः। यथान्यायममेयात्मा तं चोवाच महानृषिः।। | 1-29-7a 1-29-7b |
कश्यप उवाच। | 1-29-8x |
कच्चिद्वः कुशलं नित्यं भोजने बहुलं सुत। कच्चिच्च मानुषे लोके तवान्नं विद्यते बहु।। `क्व गन्तास्यतिवेगेन मम त्वं वक्तुमर्हसि।।' | 1-29-8a 1-29-8b 1-29-8c |
गरुड उवाच। | 1-29-9x |
माता मे कुशला शश्वत्तथा भ्राता तथा ह्यहम्। न हि मे कुशलं तात भोजने बहुले सदा।। | 1-29-9a 1-29-9b |
अहं हि सर्पैः प्रहितः सोममाहर्तुमुत्तमम्। महातुर्दास्यविमोक्षार्थमाहरिष्ये तमद्य वै।। | 1-29-10a 1-29-10b |
मात्रा चात्र समादिष्टो निषादान्भक्षयेति ह। न च मे तृप्तिरभवद्भक्षयित्वा सहस्रशः।। | 1-29-11a 1-29-11b |
तस्माद्भक्ष्यं त्वमपरं भगवन्प्रदिशस्व मे। यद्भुक्त्वाऽमृतमाहर्तुं समर्तः स्यामहं प्रभो।। | 1-29-12a 1-29-12b |
क्षुत्पिपासाविघातार्थं भक्ष्यमाख्यातु मे भवान्। | 1-29-13a |
कश्यप उवाच। | 1-29-13x |
इदं सरो महापुण्यं देवलोकेऽपि विश्रुतम्।। | 1-29-13b |
यत्र कूर्माग्रजं हस्ती सदा कर्षत्यवाङ्मुखः। तयोर्जन्मान्तरे वैरं संप्रवक्ष्याम्यसोषतः।। | 1-29-14a 1-29-14b |
तन्मे तत्त्वं निबोधस्य यत्प्रमाणौ च तावुभौ। `शृणु त्वं वत्स भद्रं ते कथां वैराग्यवर्धिनीम्।। | 1-29-15a 1-29-15b |
पित्रोरर्थविभागे वै समुत्पन्नां पुराण्डज।' आसीद्विभावसुर्नाम महर्षिः कोपनो भृशम्।। | 1-29-16a 1-29-16b |
भ्राता तस्यानुजश्चासीत्सुप्रतीको महातपाः। स नेच्छति धनं भ्रात्रा सहैकस्थं महामुनिः।। | 1-29-17a 1-29-17b |
विभागं कीर्तयत्येव सुप्रतीको हि नित्यशः। अथाब्रवीच्च तं भ्राता सुप्रतीकं विभावसुः।। | 1-29-18a 1-29-18b |
`विभागे बहवो दोषा भविष्यन्ति महातपः।' विभागं बहवो मोहात्कर्तुमिच्छन्ति नित्यशः। ततो विभक्तास्त्वन्योन्यं नाद्रियन्तेऽर्थमोहिताः।। | 1-29-19a 1-29-19b 1-29-19c |
ततः स्वार्थपरान्मूढान्पृथग्भूतान्स्वकैर्धनैः। विदित्वा भेदयन्त्येतानमित्रा मित्ररूपिणः।। | 1-29-20a 1-29-20b |
विदित्वा चापरे भिन्नानन्तरेषु पतन्त्यथ। भिन्नानामतुलो नाशः क्षिप्रमेव प्रवर्तते।। | 1-29-21a 1-29-21b |
तस्माद्विभागं भ्रातॄणां न प्रशंसन्ति साधवः। `एवमुक्तः सुप्रतीको भागं कीर्तयतेऽनिशम्।। | 1-29-22a 1-29-22b |
एवं निर्बध्यमानस्तु शशापैनं विभावसुः।' गुरुशास्त्रेऽनिबद्धानामन्योन्येनाभिशङ्किनाम्।। | 1-29-23a 1-29-23b |
नियन्तु न हि शक्यस्त्वं भेदतो धनमिच्छसि। यस्मात्तस्मात्सुप्रतीक हस्तित्वं समवाप्स्यसि।। | 1-29-24a 1-29-24b |
कश्यप उवाच। | 1-29-25x |
शप्तस्त्वेवं सुप्रतीको विभावसुमथाब्रवीत्। त्वमप्यन्तर्जलचरः कच्छपः संभविष्यसि।। | 1-29-25a 1-29-25b |
एवमन्योन्यशापात्तौ सुप्रतीकविभावसू। गजकच्छपतां प्राप्तावर्थार्थं मूढचेतसौ।। | 1-29-26a 1-29-26b |
रोषदोषानुषङ्गेण तिर्यग्योनिगतावपि। परस्परद्वेषरतौ प्रमाणबलदर्पितौ।। | 1-29-27a 1-29-27b |
सरस्यस्मिन्महाकायौ पूर्ववैरानुसारिणौ। तयोरन्यतरः श्रीमान्समुपैति महागजः।। | 1-29-28a 1-29-28b |
यस्य बृंहितशब्देन कूर्मोऽप्यन्तर्जलेशयः। उत्थितोऽसौ महाकायः कृत्स्नं विक्षोभयन्सरः।। | 1-29-29a 1-29-29b |
तं दृष्ट्वाऽऽवेष्टितकरः पतत्येष गजो जलम्। दन्तहस्ताग्रलाङ्गूलपादवेगेन वीर्यवान्।। | 1-29-30a 1-29-30b |
विक्षोभयंस्ततो नागः सरो बहुझषाकुलम्। कूर्मोऽप्यभ्युद्यतशिरा युद्धायाभ्येति वीर्यवान्।। | 1-29-31a 1-29-31b |
षडुच्छ्रितो योजनानि गजस्तद्द्विगुणायतः। कूर्मस्त्रियोजनोत्सेधो दशयोजनमण्डलः।। | 1-29-32a 1-29-32b |
तावुभौ युद्धसंमत्तौ परस्परवधैषिणौ। उपयुज्याशु कर्मेदं साधये हितमात्मनः।। | 1-29-33a 1-29-33b |
महाभ्रघनसंकाशं तं भुक्त्वामृतमानय। महागिरिसमप्रख्यं घोररूपं च हस्तिनम्।। | 1-29-34a 1-29-34b |
सौतिरुवाच। | 1-29-35x |
इत्युक्त्वा गरुडं सोऽथ माङ्गल्यमकरोत्तदा। युध्यतः सह देवैस्ते युद्धे भवतु मङ्गलम्।। | 1-29-35a 1-29-35b |
पूर्णकुम्भो द्विजा गावो यच्चान्यत्किंचिदुत्तमम्। शुभं स्वस्त्ययनं चापि भविष्यति तवाण्डजा।। | 1-29-36a 1-29-36b |
युध्यमानस्य सङ्ग्रामे देवैः सार्धं महाबल। ऋचो यजूंषि सामानि पवित्राणि हवींषि च।। | 1-29-37a 1-29-37b |
रहस्यानि च सर्वाणि सर्वे वेदाश्च ते बलम्। `वर्धयिष्यन्ति समरे भविष्यति खगोत्तम।' इत्युक्तो गरुडः पित्रा गतस्तं ह्वदमन्तिकात्।। | 1-29-38a 1-29-38b 1-29-38c |
अपश्यन्निर्मलजलं नानापक्षिसमाकुलम्। स तत्स्मृत्वा पितुर्वाक्यं भीमवेगोऽन्तरिक्षगः।। | 1-29-39a 1-29-39b |
नखेन गजमेकेन कूर्ममेकेन चाक्षिपत्। सधुत्पपात चाकाशं तत उच्चैर्विहङ्गमः।। | 1-29-40a 1-29-40b |
सोऽलम्बं तीर्थणासाद्य देववृक्षानुपागमत्। ते भीताः समकम्पन्त तस्य पक्षानिलाहताः।। | 1-29-41a 1-29-41b |
न नो भञ्ज्यादिति तदा दिव्याः कनकशाखिनः। प्रचलाङ्गान्स तान्दृष्ट्वा मनोरथफलद्रुमान्।। | 1-29-42a 1-29-42b |
अन्यानतुलरूपाङ्गानुपचक्राम खेचरः। काञ्चनै राजतैश्चैव फलैर्वैदूर्यशाखिनः। सागराम्बुपरिक्षिप्तान्भ्राजमानान्महाद्रुमान्।। | 1-29-43a 1-29-43b 1-29-43c |
`तेषां मध्ये महानासीत्पादपः सुमनोहरः। सहस्रयोजनोत्सेधो बहुशाखासमन्वितः।। | 1-29-44a 1-29-44b |
खगानामालयो दिव्यो नाम्ना रौहिणपादपः। यस्य छायां समाश्रित्य सद्यो भवति निर्वृतः;।। | 1-29-45a 1-29-45b |
तमुवाच खगश्रेष्ठं तत्र रौहिणपादपः। अतिप्रवृद्धः समुहानापतन्तं मनोजवम्।। | 1-29-46a 1-29-46b |
रौहिण उवाच। | 1-29-47x |
यैषा मम महाशाखा शतयोजनमायता। एतामास्थाय शाखां त्वं खादेमौ गजकच्छपौ।। | 1-29-47a 1-29-47b |
सौतिरुवाच। | 1-29-48x |
ततो द्रुमं पतगसहस्रसेवितं महीधरप्रतिमवपुः प्रकम्पयन्। खगोत्तमो द्रुतमभिपत्य वेगवा- न्बभञ्ज तामविरलपत्रसंचयाम्।। | 1-29-48a 1-29-48b 1-29-48c 1-29-48d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः।। 29 ।। |
1-29-4 संभावय संजीवय।। 1-29-7 ततोऽपश्यत्स्वपितरं काश्यपं दीप्ततेजसम्। तं श्रेष्ठं पततां श्रेष्ठो ब्रह्म ब्रह्मविदां वरम्। पृष्टश्च पित्रा बलवान्वैनतेयः प्रतापदान्। इति पाठान्तरम्।। 7 ।। 1-29-9 भोजने बहुले मम कुशलं न हि।। 1-29-10 सोमं अमृतम्।। 1-29-14 कूर्माग्रजं कूर्मभूतं ज्येष्ठभ्रातरम्।। 1-29-21 अन्तरेषु छिद्रेषु।। 1-29-30 आवेष्टितकरः कुण्डलीकृतशुण्डादण्डः।। 1-29-33 उपयुज्य भुक्त्वा।। 1-29-38 भविष्यति समरे।। एकोनत्रिंशोऽध्यायः।। 29 ।।
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