महाभारतम्-01-आदिपर्व-198
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सौदासभार्यायां वसिष्ठेन पुत्रोत्पादनकारणं पृष्टवन्तमर्जुनंप्रति पुनः कल्माषपादकथाकथनम्।। 1 ।।
मैथुनधर्मस्य ब्राह्णं भक्षितवतः सौदासस्य ब्राह्मण्या शापः।। 2 ।।
`गन्धर्व उवाच। | 1-198-1x |
पुनश्चैव महातेजा विश्वामित्रजिघांसया। अग्निं संभृतवान्घोरं शाक्तेयः सुमहातपाः।। | 1-198-1a 1-198-1b |
वासिष्ठसंभृतश्चाग्निर्विश्वामित्रहितैषिणा। तेजसा वह्नितुल्येन ग्रस्तः स्कन्देन धीमता।।' | 1-198-2a 1-198-2b |
अर्जुन उवाच। | 1-198-3x |
राज्ञा कल्माषपादेन गुरौ ब्रह्मविदां वरे। कारणं किं पुरस्कृत्य भार्या वै सन्नियोजिता।। | 1-198-3a 1-198-3b |
जानता वै परं धर्मं वसिष्ठेन महात्मना। अगम्यागमनं कस्मात्कृतं तेन महर्षिणा।। | 1-198-4a 1-198-4b |
अधर्मिष्ठं वसिष्ठेन कृतं चापि पुरा सखे। एतन्मे संशयं सर्वं छेत्तुमर्हसि पृच्छतः।। | 1-198-5a 1-198-5b |
गन्धर्व उवाच। | 1-198-6x |
धनञ्जय निबोधेयं यन्मां त्वं परिपृच्छसि। वसिष्ठं प्रति दुर्धर्ष तथा मित्रसहं नृपम्।। | 1-198-6a 1-198-6b |
कथितं ते मया सर्वं यथा शप्तः स पार्थिवः। शक्तिना भरतश्रेष्ठ वासिष्ठेन महात्मना।। | 1-198-7a 1-198-7b |
स तु शापवशं प्राप्तः क्रोधपर्याकुलेक्षणः। निर्जगाम पुराद्राजा सहदारः परन्तपः।। | 1-198-8a 1-198-8b |
अरण्यं निर्जनं गत्वा सदारः परिचक्रमे। नानामृगगणाकीर्णं नानासत्वसमाकुलम्।। | 1-198-9a 1-198-9b |
नानागुल्मलताच्छन्नं नानाद्रुमसमावृतम्। अरण्यं घोरसन्नादं शापग्रस्तः परिभ्रमन्।। | 1-198-10a 1-198-10b |
स कदाचित्क्षुधाविष्टो मृगयन्भक्ष्यमात्मनः। ददर्श सुपरिक्लिष्टः कस्मिंश्चिन्निर्जने वने।। | 1-198-11a 1-198-11b |
ब्राह्मणं ब्राह्मणीं चैव मिथुनायोपसंगतौ। तौ तं वीक्ष्य सुवित्रस्तावकृतार्थौ प्रधावितौ।। | 1-198-12a 1-198-12b |
तयोः प्रद्रवतोर्विप्रं जग्राह नृपतिर्बलात्। दृष्ट्वा गृहीतं भर्तारमथ ब्राह्मण्यभाषत।। | 1-198-13a 1-198-13b |
शृणु राजन्मम वचो यत्त्वां वक्ष्यामि सुव्रत। आदित्यवंशप्रभवस्त्वं हि लोके परिश्रुतः।। | 1-198-14a 1-198-14b |
अप्रमत्तः स्थि धर्मे गुरुशुश्रूषणे रतः। शापोपहत दुर्धर्ष न पापं कर्तुमर्हसि।। | 1-198-15a 1-198-15b |
ऋतुकाले तु संप्राप्ते भर्तृव्यसनकर्शिता। अकृतार्था ह्यहं भर्त्रा प्रसवार्थं समागता।। | 1-198-16a 1-198-16b |
प्रसीद नृपतिश्रेष्ठ भर्ताऽयं मे विसृज्यताम्। एवं विक्रोशमानायास्तस्यास्तु न नृशंसवत्।। | 1-198-17a 1-198-17b |
भर्तारं भक्षयामास व्याघ्रो मृगमिवेप्सितम्। तस्याः क्रोधाभिभूताया यान्यश्रूण्यपतन्भुवि।। | 1-198-18a 1-198-18b |
सोऽग्निः समभवद्दीप्तस्तं च देशं व्यदीपयत्। ततः सा शोकसंतप्ता भर्तृव्यसनकर्शिता।। | 1-198-19a 1-198-19b |
कल्माषपादं राजर्षिमशपद्ब्राह्मणी रुषा। यस्मान्ममाकृतार्थायास्त्वया क्षुद्र नृशंसवत्।। | 1-198-20a 1-198-20b |
प्रेक्षन्त्या भक्षितो मेऽद्य प्रियो भर्ता महायशाः। तस्मात्त्वमपि दुर्बुद्धे मच्छापपरिविक्षतः।। | 1-198-21a 1-198-21b |
पत्नीमृतावनुप्राप्य सद्यस्त्यक्ष्यसि जीवितम्। `तेन प्रसाद्यमाना सा प्रसादमकरोत्तदा।' यस्य चर्षेर्वसिष्ठस्य त्वया पुत्रा विनाशिताः।। | 1-198-22a 1-198-22b 1-198-22c |
तेन संगम्य ते भार्या तनयं जनयिष्यति। सते वंशकरः पुत्रो भविष्यति नृपाधम।। | 1-198-23a 1-198-23b |
एवं शप्त्वा तु राजानं सा तमाङ्गिरसी शुभा। तस्यैव सन्निधौ दीप्तं प्रविवेश हुताशनम्।। | 1-198-24a 1-198-24b |
वसिष्ठश्च महाभागः सर्वमेतदवैक्षत। ज्ञानयोगेन महता तपसा च परन्तप।। | 1-198-25a 1-198-25b |
मुक्तशापश्च राजर्षिः कालेन महता ततः। ऋतुकालेऽभिपतितो मदयन्त्या निवारितः।। | 1-198-26a 1-198-26b |
न हि सस्मार स नृपस्तं शापं काममोहितः। देव्याः सोऽथ वचः श्रुत्वा संभ्रान्तो नृपसत्तमः।। | 1-198-27a 1-198-27b |
तं शापमनुसंस्मृत्य पर्यतप्यद्भृशं तदा। एतस्मात्कारणाद्राजा वसिष्ठं सन्ययोजयत्। स्वदारेषु नरश्रेष्ठ शापदोषसमन्वितः।। | 1-198-28a 1-198-28b 1-198-28c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 198 ।। |
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