महाभारतम्-01-आदिपर्व-095
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वैशंपायन उवाच। | 1-95-1x |
प्रतिज्ञाय च दुष्यन्ते प्रतियाते दिने दिने। `गर्भश्च ववृधे तस्यां राजपुत्र्यां महात्मनः।।' | 1-95-1a 1-95-1b |
शकुन्तला चिन्तयन्ती राजानं कार्यगौरवात्। दिवारात्रमनिद्रैव स्नानभोजनवर्जिता।। | 1-95-2a 1-95-2b |
राजप्रेषणिका विप्राश्चतुरङ्गबलान्विताः। अद्य श्वो वा परश्वो वा समायान्तीति निस्चिता।। | 1-95-3a 1-95-3b |
दिनान्पक्षानृतून्मासानयनानि च सर्वशः। गण्यमानानि वर्षाणि व्यतीयुस्त्रीणि भारत।। | 1-95-4a 1-95-4b |
त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु ऋषेर्वचनगौरवात्। ऋषिपत्न्यः सुबहुशो हेतुमद्वाक्यमब्रुवन्।। | 1-95-5a 1-95-5b |
ऋषिपत्न्य ऊचुः। | 1-95-6x |
शृणु भद्रे लोकवृत्तं श्रुत्वा यद्रोचते तव। तत्कुरुष्व हितं देवि नावमान्यं गुरोर्वचः।। | 1-95-6a 1-95-6b |
देवानां दैवतं विष्णुर्विप्राणामग्निर्ब्रह्म च। नारीणां दैवतं भर्ता लोकानां ब्राह्मणो गुरुः।। | 1-95-7a 1-95-7b |
सूतिकाले प्रसूष्वेति भगवांस्ते पिताऽब्रवीत्। करिष्यामीति कर्तव्यं तदा ते सुकृतं भवेत्।। | 1-95-8a 1-95-8b |
वैशंपायन उवाच। | 1-95-9x |
पत्नीनां वचनं श्रुत्वा साधु साध्वित्यचिन्तयत्।' गर्भं सुषाव वामोरूः कुमारममितौजसम्।। | 1-95-9a 1-95-9b |
त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु प्राजायत शकुन्तला। रूपौदार्यगुणोपेतं दौष्यन्तिं जनमेजय।। | 1-95-10a 1-95-10b |
`जाते' तस्मिन्नन्तरिक्षात्पुष्पवृष्टिः पपात ह। देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः।। | 1-95-11a 1-95-11b |
गायद्भिर्मधुरं तत्र देवैः शक्रोऽभ्युवाच ह। शकुन्तले तव सुतश्चक्रवर्ती भविष्यति।। | 1-95-12a 1-95-12b |
बलं तेजश्च रूपं च न समं भुवि केनचित्। आहर्ता वाजिमेधस्य शतसङ्ख्यस्य पौरवः।। | 1-95-13a 1-95-13b |
अनेकारपि साहस्रै राजसूयादिभिर्मखैः। स्वार्थं ब्राह्मणसात्कृत्वा दक्षिणाममितां ददत्।। | 1-95-14a 1-95-14b |
देवतानां वचः श्रुत्वा कण्वाश्रमनिवासिनः। सभाजयन्तः कण्वस्य सुतां सर्वे महर्षयः।। | 1-95-15a 1-95-15b |
शकुन्तला च तच्छ्रुत्वा परं हर्षमवाप सा। द्विजानाहूय मुनिभिः सत्कृत्य च महायशाः।' | 1-95-16a 1-95-16b |
जातकर्मादिसंस्कारं कण्वः पुण्यवतां वरः। तस्याथ कारयामास वर्धमानस्य चासकृत्।। | 1-95-17a 1-95-17b |
यथाविधि यथान्यायं क्रियाः सर्वास्त्वकारयत्। दन्तैः शुक्लैः शिखरिभिःसिंहसंहननोऽभवत्।। | 1-95-18a 1-95-18b |
चक्राङ्कितकरः श्रीमान्स्वयं विष्णुरिवापरः। `चतुष्किष्कुर्महातेजा महामूर्धा महाबलः।।' | 1-95-19a 1-95-19b |
कुमारो देवगर्भाभः स तत्राशु व्यवर्धत। `ऋषेर्भयात्तु दुष्यन्तः स्मरन्नैवाह्वयत्तदा।। | 1-95-20a 1-95-20b |
गते काले तु महति न सस्मार तपोधनाम्।' षड्वर्षेषु ततो बालः कण्वाश्रमपदं प्रति।। | 1-95-21a 1-95-21b |
व्याघ्रान्सिंहान्वराहांश्च वृकांश्च महिषांस्तथा। `ऋक्षांश्चाभ्यहनद्व्यालान्पद्भ्यामाश्रमपीडकान्।। | 1-95-22a 1-95-22b |
बलाद्भुजाभ्यां संगृह्य बलवान्संनियम्य च।' बद्ध्वा वृक्षेषु दौष्यन्तिराश्रमस्य समन्ततः।। | 1-95-23a 1-95-23b |
आरुरोह द्रुमांश्चैव क्रीडन्स्म परिधावति। `वनं च लोडयामास सिंहव्याघ्रगणैर्वृतम्।। | 1-95-24a 1-95-24b |
ततश्च राक्षसान्सर्वान्पिशाचांश्च रिपून्रणे। मुष्टियुद्धेन तान्हत्वा ऋषीनाराधयत्तदा।। | 1-95-25a 1-95-25b |
कश्चिद्दितिसुतस्तं तु हन्तुकामो महाबलः। वध्यमानांस्तु दैतेयानमर्षी तं समभ्ययात्।। | 1-95-26a 1-95-26b |
तमागतं प्रहस्यैव बाहुभ्यां परिगृह्य च। दृढं चाबध्य बाहुभ्यां पीडयामास तं तदा।। | 1-95-27a 1-95-27b |
मर्दितो न शशाकास्मान्मोचितुं बलवत्तया। प्राक्रोशद्भैरवं तत्र द्वारेभ्यो निःसृतं त्वसृक्।। | 1-95-28a 1-95-28b |
तेन शब्देन वित्रस्ता मृगाः सिंहादयो गणाः। सुस्रुवुश्च शकृन्मूत्रमाश्रमस्थाश्च सुस्रुवुः।। | 1-95-29a 1-95-29b |
निरसुं जानुभिः कृत्वा विससर्ज च सोऽपतत्। तद्दृष्ट्वा विस्मयं जग्मुः कुमारस्य विचेष्टितम्।। | 1-95-30a 1-95-30b |
नित्यकालं वध्यमाना दैतेया राक्षसैः सह। कुमारस्य भयादेव नैव जग्मुस्तदाश्रमम्।।' | 1-95-31a 1-95-31b |
ततोऽस्य नाम चक्रुस्ते कण्वाश्रमनिवासिनः। कण्वेन सहिताः सर्वे दृष्ट्वा कर्मातिमानुषम्।। | 1-95-32a 1-95-32b |
अस्त्वयं सर्वदमनः सर्वं हि दमयत्यसौ। स सर्वदमनो नाम कुमारः समपद्यत।। | 1-95-33a 1-95-33b |
विक्रमेणौजसा चैव बलेन च समन्वितः। `अप्रेषयति दुष्यन्ते महिष्यास्तनयस्य च।। | 1-95-34a 1-95-34b |
पाण्डुभावपरीताङ्गीं चिन्तया समभिप्लुताम्। लम्बालकां कृशां दीनां तथा मलिनवाससम्।। | 1-95-35a 1-95-35b |
`शकुन्तलां च संप्रेक्ष्य प्रदध्यौ स मुनिस्तदा। शास्त्राणि सर्ववेदाश्च द्वादशाब्दस्य चाभवन्'।। | 1-95-36a 1-95-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि पञ्चनवतितमोऽध्यायः।। 95 ।। |
आदिपर्व-094 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-096 |