महाभारतम्-01-आदिपर्व-155
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दुर्योधनेन दानादिना प्रकृतिवशीकरणम्।। 1 ।।
पाण्डवानां वारणावतयात्रार्थं धृतराष्ट्रानुज्ञा।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-155-1x |
ततो दुर्योधनो राजा सर्वास्तु प्रकृतीः शनैः। अर्थमानप्रदानाभ्यां संजहार सहानुजः। `युयुत्सुमपनीयैकं धार्तराष्ट्रं सहोदरम्।।' | 1-155-1a 1-155-1b 1-155-1c |
धृतराष्ट्रप्रयुक्तास्तु केचित्कुशलमन्त्रिणः। कथयाञ्चक्रिरे रम्यं नगरं वारणावतम्।। | 1-155-2a 1-155-2b |
अयं समाजः सुमहान्रमणीयतमो भुवि। उपस्थितः पशुपतेर्नगरे वारणावते।। | 1-155-3a 1-155-3b |
सर्वरत्नसमाकीर्णे पुण्यदेशे मनोरमे। इत्येवं धृतराष्ट्रस्य वचनाच्चक्रिरे कथाः।। | 1-155-4a 1-155-4b |
कथ्यमाने तथा रम्ये नगरे वारणावते। गमने पाण्डुपुत्राणां जज्ञे तत्र मतिर्नृप।। | 1-155-5a 1-155-5b |
यदा त्वमन्यत नृपो जातकौतूहला इति। उवाचैतानेत्य तदा पाण्डवानम्बिकासुतः।। | 1-155-6a 1-155-6b |
`अधीतानि च शास्त्राणि युष्माभिरिह कृत्स्नशः। अस्त्राणि च तथा द्रोणाद्गौतमाच्च शरद्वतः।। | 1-155-7a 1-155-7b |
कृतकृत्या भवन्तस्तु सर्वविद्याविशारदाः। सोऽहमेवं गते ताताश्चिन्तयामि समन्ततः। रक्षणे व्यवहारे च राज्यस्य सततं हिते।।' | 1-155-8a 1-155-8b 1-155-8c |
ममैते पुरुषा नित्यं कथयन्ति पुनःपुनः। रमणीयतमं लोके नगरं वारणावतम्।। | 1-155-9a 1-155-9b |
ते ताता यदि मन्यध्वमुत्सवं वारणावते। सगणाः सान्वयाश्चैव विहरध्वं यथाऽमराः।। | 1-155-10a 1-155-10b |
ब्राह्मणेभ्यश्च रत्नानि गायनेभ्यश्च सर्वशः। प्रयच्छध्वं यथाकामं देवा इव सुवर्चसः।। | 1-155-11a 1-155-11b |
कंचित्कालं विहृत्यैवमनुभूय परां मुदम्। इदं वै हास्तिनपुरं सुखिनः पुनरेष्यथ।। | 1-155-12a 1-155-12b |
`निवसध्वं च तत्रैव संरक्षणपरायणाः। वैलक्षण्यं न वै तत्र भविष्यति परंतपाः।।' | 1-155-13a 1-155-13b |
वैशंपायन उवाच। | 1-155-14x |
धृतराष्ट्रस्य तं काममनुबुध्य युधिष्ठिरः। आत्मनश्चासहायत्वं तथेति प्रत्युवाच तम्।। | 1-155-14a 1-155-14b |
ततो भीष्मं शान्तनवं विदुरं च महामतिम्। द्रोणं च बाह्लिकं चैव सोमदत्तं च कौरवम्।। | 1-155-15a 1-155-15b |
कृपमाचार्यपुत्रं च भूरिश्रवसमेव च। मान्यानन्यानमात्यांश्च ब्राह्मणांश्च तपोधनान्।। | 1-155-16a 1-155-16b |
पुरोहितांश्च पौत्रांश्च गान्धारीं च यशस्विनीम्। `सर्वा मातॄरुपस्पृष्ट्वा विदुरस्य च योषितः।' युधिष्ठिरः शनैर्दीन उवाचेदं वचस्तदा।। | 1-155-17a 1-155-17b 1-155-17c |
रमणीये जनाकीर्णे नगरे वारणावते। सगणास्तत्र यास्यामो धृतराष्ट्रस्य शासनात्।। | 1-155-18a 1-155-18b |
प्रसन्नमनसः सर्वे पुण्या वाचो विमुञ्चत। आशीर्भिर्बृहितानस्मान्न पापं प्रसहिष्यते।। | 1-155-19a 1-155-19b |
वैशंपायन उवाच। | 1-155-20x |
एवमुक्तास्तु ते सर्वे पाण्डुपुत्रेण कौरवाः। प्रसन्नवदना भूत्वा तेऽन्ववर्तन्त पाण्डवान्।। | 1-155-20a 1-155-20b |
स्वस्त्यस्तु वः पथि सदा भूतेभ्यश्चैव सर्वशः। मा च वोस्त्वशुभं किंचित्सर्वशः पाण्डुनन्दनाः।। | 1-155-21a 1-155-21b |
ततः कृतस्वस्त्ययना राज्यलाभाय पार्थिवाः। कृत्वा सर्वाणि कार्याणि प्रययुर्वारणावतम्।। | 1-155-22a 1-155-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
जतुगृहपर्वणि पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 155 ।।
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