महाभारतम्-01-आदिपर्व-132
दिखावट
← आदिपर्व-131 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-132 वेदव्यासः |
आदिपर्व-133 → |
कुन्त्यां इन्द्रादर्जुनोत्पत्तिः।। 1 ।।
तद्वेलायां आकाशवाण्यादि।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-132-1x |
जाते बलवतां श्रेष्ठे पाण्डुश्चिन्तापरोऽभवत्। कथमन्यो मम सुतो लोके श्रेष्ठो भवेदिति।। | 1-132-1a 1-132-1b |
दैवे पुरुषकारे च लोकोऽयं संप्रतिष्ठितः। तत्र दैवं तु विधिना कालयुक्तेन लभ्यते।। | 1-132-2a 1-132-2b |
इन्द्रो हि राजा देवानां प्रधान इति नः श्रुतम्। अप्रमेयबलोत्साहो वीर्यवानमितद्युतिः।। | 1-132-3a 1-132-3b |
तं तोषयित्वा तपसा पुत्रं लप्स्ये महाबलम्। यं दास्यति स मे पुत्रं स वीरयान्भविष्यति।। | 1-132-4a 1-132-4b |
अमानुषान्मानुषांश्च संग्रामे स हनिष्यति। कर्मणा मनसा वाचा तस्मात्तप्स्ये महत्तपः।। | 1-132-5a 1-132-5b |
ततः पाण्डुर्महाराजो मन्त्रयित्वा महर्षिभिः। दिदेश कुन्त्याः कौरव्यो व्रतं सांवत्सरं शुभम्।। | 1-132-6a 1-132-6b |
आत्मना च महाबाहुरेकपादस्थितोऽभवत्। उग्रं स तप आस्थाय परमेण समाधिना।। | 1-132-7a 1-132-7b |
आरिराधयिषुर्देवं त्रिदशानां तमीश्वरम्। सूर्येण सह धर्मात्मा पर्यतप्यत भारत।। | 1-132-8a 1-132-8b |
तं तु कालेन महता वासवः प्रत्यपद्यत। | 1-132-9a |
शक्र उवाच। | 1-132-9x |
पुत्रं तव प्रदास्यामि त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्।। | 1-132-9b |
ब्राह्मणानां गवां चैव सुहृदां चार्थसाधकम्। दुर्हृदां शोकजननं सर्वबान्धवनन्दनम्।। | 1-132-10a 1-132-10b |
सुतं तेऽग्र्यं प्रदास्यामि सर्वामित्रविनाशनम्। इत्युक्तः कारैवो राजा वासवेन महात्मना।। | 1-132-11a 1-132-11b |
उवाच कुन्तीं धर्मात्मा देवराजवचः स्मरन्। उदर्कस्तव कल्याणि तुष्टो देवगणेश्वरः।। | 1-132-12a 1-132-12b |
दातुमिच्छति ते पुत्रं यथा संकल्पितं त्वया। अतिमानुषकर्माणं यशस्विनमरिन्दमम्।। | 1-132-13a 1-132-13b |
नीतिमन्तं महात्मानमादित्यसमतेजसम्। दुराधर्षं क्रियावन्तमतीवाद्भुतदर्शनम्।। | 1-132-14a 1-132-14b |
पुत्रं जनय सुश्रोणि धाम क्षत्रियतेजसाम्। लब्धः प्रसादो देवेन्द्रात्तमाह्वय शुचिस्मिते।। | 1-132-15a 1-132-15b |
वैशंपायन उवाच। | 1-132-16x |
एवमुक्ता ततः शक्रमाजुहाव यशस्विनी। अथाजगाम देवेन्द्रो जनयामास चार्जुनम्।। | 1-132-16a 1-132-16b |
`उत्तराभ्यां तु पूर्वाभ्यां फल्गुनीभ्यां ततो दिवा। जातस्तु फाल्गुने मासि तेनासौ फल्गुनःस्मृतः'।। | 1-132-17a 1-132-17b |
जातमात्रे कुमारे तु `सर्वभूतप्रहर्षिणी। सूतके वर्तमानां तां' वागुवाचाशरीरिणी। महागम्भीरनिर्घोषा नभो नादयती तदा।। | 1-132-18a 1-132-18b 1-132-18c |
शृण्वतां सर्वभूतानां तेषां चाश्रमवासिनाम्। कुन्तीमाभाष्य विस्पष्टमुवाचेदं शुचिस्मिताम्।। | 1-132-19a 1-132-19b |
कार्तवीर्यसमः कुन्ति शिवतुल्यपराक्रमः। एष शक्र इवाजय्यो यशस्ते प्रथयिष्यति।। | 1-132-20a 1-132-20b |
अदित्या विष्णुना प्रीतिर्यथाऽभूदभिवर्धिता। तथा विष्णुसमः प्रीतिं वर्धयिष्यति तेऽर्जुनः।। | 1-132-21a 1-132-21b |
एष मद्रान्वशे कृत्वा कुरूंश्च सह सोमकैः। चेदिकाशिकरूषांश्च कुरुलक्ष्मीं वहिष्यति।। | 1-132-22a 1-132-22b |
एतस्य भुजवीर्येण खाण्डवे हव्यवाहनः। मेदसा सर्वभूतानां तृप्तिं यास्यति वै पराम्।। | 1-132-23a 1-132-23b |
ग्रामणीश्च महीपालानेष जित्वा महाबलः। भ्रातृभिः सहितो वीरस्त्रीन्मेधानाहरिष्यति।। | 1-132-24a 1-132-24b |
जामदग्न्यसमः कुन्ति विष्णुतुल्यपराक्रमः। एष वीर्यवतां श्रेष्ठो भविष्यति महायशाः।। | 1-132-25a 1-132-25b |
एष युद्धे महादेवं तोषयिष्यति शङ्करम्। अस्त्रं पाशुपतं नाम तस्मात्तुष्टादवाप्स्यति।। | 1-132-26a 1-132-26b |
निवातकवचा नाम दैत्या विबुधविद्विषः। शक्राज्ञया महाबाहुस्तान्वधिष्यति ते सुतः।। | 1-132-27a 1-132-27b |
तथा दिव्यानि चास्त्राणि निखिलेनाहरिष्यति। विप्रनष्टां श्रियं चायमाहर्ता पुरुषर्षभः।। | 1-132-28a 1-132-28b |
एतामत्यद्भुतां वाचं कुन्ती शुश्राव सूतके। वाचमुच्चरितामुच्चैस्तां निशम्य तपस्विनाम्।। | 1-132-29a 1-132-29b |
बभूव पमो हर्षः शतशृङ्गनिवासिनाम्। तथा देवमहर्षीणां सेन्द्राणां च दिवौकसाम्।। | 1-132-30a 1-132-30b |
आकाशे दुन्दुभीनां च बभूव तुमुलः स्वनः। उदतिष्ठन्महाघोरः पुष्पवृष्टिभिरावृतः।। | 1-132-31a 1-132-31b |
समवेत्य च देवानां गणाः पार्थमपूजयन्। काद्रवेया वैनतेया गन्धर्वाप्सरसस्तथा। प्रजानां पतयः सर्वे सप्त चैव महर्षयः।। | 1-132-32a 1-132-32b 1-132-32c |
भरद्वाजः खस्यपो गौतमश्च विश्वामित्रो जमदग्निर्वसिष्ठः। यश्चोदितो भास्करेऽभूत्प्रनष्टे सोऽप्यत्रात्रिर्भगवानाजगाम।। | 1-132-33a 1-132-33b 1-132-33c 1-132-33d |
मरीचिरङ्गिराश्चैव पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। दक्षः प्रजापतिश्चैव गन्धर्वाप्सरसस्तथा।। | 1-132-34a 1-132-34b |
दिव्यमाल्याम्बरधराः सर्वालङ्कारभूषिताः। उपगायन्ति बीभत्सुं नृत्यन्तेऽप्सरसां गणाः।। | 1-132-35a 1-132-35b |
तथा महर्षयश्चापि जेपुस्तत्र समन्ततः। गन्धर्वैः सहितः श्रीमान्प्रागायत च तुम्बुरुः।। | 1-132-36a 1-132-36b |
भीमसेनोग्रसेनौ च ऊर्णायुरनघस्तथा। गोपतिर्धृतराष्ट्रश्च सूर्यवर्चास्तथाष्टमः।। | 1-132-37a 1-132-37b |
युगपस्तृणपः कार्ष्णिर्नन्दिश्चित्ररथस्तथा। त्रयोदशः शालिशिराः पर्जन्यश्च चतुर्दशः।। | 1-132-38a 1-132-38b |
कलिः पञ्चदशश्चैव नारदश्चात्र षोडशः। ऋत्वा बृहत्त्वा बृहकः करालश्च महामनाः।। | 1-132-39a 1-132-39b |
ब्रह्मचारी बहुगुणः सुवर्णश्चेति विश्रुतः। विश्वावसुर्भुमन्युश्च सुचन्द्रश्च शरुस्तथा।। | 1-132-40a 1-132-40b |
गीतमाधुर्यसंपन्नौ विख्यातौ च हहाहुहू। इत्येते देवगन्धर्वा जग्मुस्तत्र नराधिप।। | 1-132-41a 1-132-41b |
तथैवाप्सरसो हृष्टाः सर्वालङ्कारभूषिताः। ननृतुर्वै महाभागा जगुश्चायतलोचनाः।। | 1-132-42a 1-132-42b |
अनूचानाऽनवद्या च गुणमुख्या गुणावरा। अद्रिका च तथा सोमा मिश्रकेशी त्वलम्बुषा।। | 1-132-43a 1-132-43b |
मरीचिः शुचिका चैव विद्युत्पर्णा तिलोत्तमा। अम्बिका लक्षणा क्षेमा देवी रम्भा मनोरमा।। | 1-132-44a 1-132-44b |
असिता च सुबाहुश्च सुप्रिया च वपुस्तथा। पुण्डरीका सुगन्धा च सुरसा च प्रमाथिनी।। | 1-132-45a 1-132-45b |
काम्या शारद्वती चैव ननृतुस्तत्र संघशः। मेनका सहजन्या च कर्णिका पुञ्जिकस्थला।। | 1-132-46a 1-132-46b |
ऋतुस्थला घृताची च विश्वाची पूर्वचित्त्यपि। उम्लोचेति च विख्याता प्रम्लोचेति च ता दश।। | 1-132-47a 1-132-47b |
उर्वश्येकादशी तासां जगुश्चायतलोचनाः। धाताऽर्यमा च मित्रश्च वरुणोंऽशो भगस्तथा।। | 1-132-48a 1-132-48b |
इन्द्रो विवस्वान्पूषा च पर्जन्यो दशमः स्मृतः। ततस्त्वष्टा ततो विष्णुरजघन्यो जघन्यजः।। | 1-132-49a 1-132-49b |
इत्येते द्वादशादित्या ज्वलन्तः सूर्यवर्चसः।। | 1-132-50a |
मृगव्याधश्च सर्पश्च निर्ऋतिश्च महायशाः। अजैकपादहिर्बुध्न्यः पिनाकी च परंतप।। | 1-132-51a 1-132-51b |
दहनोऽथेश्वरश्चैव कपाली च विशांपते। स्थाणुर्भगश्च भगवान्रुद्रास्तत्रावतस्थिरे।। | 1-132-52a 1-132-52b |
अश्विनौ वसवश्चाष्टौ मरुतश्च महाबलाः। विश्वेदेवास्तथा साध्यास्तत्रासन्परितः स्थिताः।। | 1-132-53a 1-132-53b |
कर्कोटकोऽथ सर्पश्च वासुकिश्च भुजङ्गमः। कच्छपश्चाथ कुण्डश्च तक्षकश्च महोरगः।। | 1-132-54a 1-132-54b |
आययुस्तपसा युक्ता महाक्रोधा महाबलाः। एते चान्ये च बहवस्तत्र नागा व्यवस्थिताः।। | 1-132-55a 1-132-55b |
तार्क्ष्यश्चारिष्टनेमिश्च गरुडश्चासितध्वजः। अरुणश्चारुणिश्चैव वैनतेया व्यवस्थिताः।। | 1-132-56a 1-132-56b |
तांश्च देवगणान्सर्वांस्तपःसिद्धा महर्षयः। विमानगिर्यग्रगतान्ददृशुर्नेतरे जनाः।। | 1-132-57a 1-132-57b |
तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं विस्मिता मुनिसत्तमाः। अधिकां स्म ततो वृत्तिमवर्तन्पाण्डवं प्रति।। | 1-132-58a 1-132-58b |
पाण्डुः प्रीतेन मनसा देवतादीनपूजयत्। पाण्डुना पूजिता देवाः प्रत्यूचुर्नरसत्तमम्।। | 1-132-59a 1-132-59b |
प्रादुर्बूतो ह्ययं धर्मो देवतानां प्रसादतः। मातरिश्वा ह्ययं भीमो बलवानरिमर्दनः।। | 1-132-60a 1-132-60b |
साक्षादिन्द्रः स्वयं जातः प्रसादाच्च शतक्रतोः। पितृत्वाद्देवतानां हि नास्ति पुण्यतरस्त्वया।। | 1-132-61a 1-132-61b |
पितॄणामृणनिर्मुक्तः स्वर्गं प्राप्स्यसि पुण्यभाक्। इत्युक्त्वा देवताः सर्वा विप्रजग्मुर्यथागतम्।। | 1-132-62a 1-132-62b |
पाण्डुस्तु पुनरेवैनां पुत्रलोभान्महायशाः। प्रादिशद्दर्शनीयार्थी कुन्ती त्वेनमथाब्रवीत्।। | 1-132-63a 1-132-63b |
नातश्चतुर्थं प्रसवमापस्त्वपि वदन्त्युत। अतःपरं स्वैरिणी स्याद्बन्धकी पञ्चमे भवेत्।। | 1-132-64a 1-132-64b |
स त्वं विद्वन्धर्ममिममधिगम्य कथं नु माम्। अपत्यार्थं समुत्क्रम्य प्रमादादिव भाषसे।। | 1-132-65a 1-132-65b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 132 ।।
1-132-8 सूर्येण सह उदयादस्तमयावधि।। द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 132 ।।
आदिपर्व-131 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-133 |