महाभारतम्-01-आदिपर्व-076
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देवयान्याः पुत्रोत्पत्तिः।। 1 ।। अशोकवनिकायां शर्मिष्ठाया ययातिसमागमात्पुत्रोत्पत्तिः।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-76-1x |
ययातिः स्वपुरं प्राप्य महेन्द्रपुरसंनिभम्। प्रविश्यान्तःपुरं तत्र देवयानीं न्यवेशयत्।। | 1-76-1a 1-76-1b |
देवयान्याश्चानुमते सुतां तां वृषपर्वणः। अशोकवनिकाभ्याशे गृहं कृत्वा न्यवेशयत्।। | 1-76-2a 1-76-2b |
वृतां दासीसहस्रेण शर्मिष्ठां वार्षपर्वणीम्। वासोभरन्नपानैश्च संविभज्य सुसत्कृताम्।। | 1-76-3a 1-76-3b |
देवयान्या तु सहितः स नृपो नहुषात्मजः। `प्रीत्या परमया युक्तो मुमुदे शाश्वतीः समाः।। | 1-76-4a 1-76-4b |
अशोकवनिकामध्ये देवयानी समागता। शर्मिष्ठया सा क्रीडित्वा रमणीये मनोरमे।। | 1-76-5a 1-76-5b |
तत्रैव तां तु निर्दिश्य राज्ञा सह ययौ गृहम्। एवमेव सह प्रीत्या बहु कालं मुमोद च।।' | 1-76-6a 1-76-6b |
विजहार बहूनब्दान्देववन्मुदितः सुखी।। | 1-76-7a |
ऋतुकाले तु संप्राप्ते देवयानी वराङ्गना। लेभे गर्भं प्रथमतः कुमारं च व्यजायत।। | 1-76-8a 1-76-8b |
गते वर्षसहस्रे तु शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी। ददर्श यौवनं प्राप्ता ऋतुं सा चान्वचिन्तयत्।। | 1-76-9a 1-76-9b |
`शुद्धा स्नाता तु शर्मिष्ठा सर्वालङ्कारशोभिता। अशोकशाखामालम्ब्य सुपुष्पस्तबकैर्वृताम्।। | 1-76-10a 1-76-10b |
आदर्शे मुखमुद्वीक्ष्य भर्तुर्दर्शनलालसा। शोकमोहसमाविष्टा वचनं चेदमब्रवीत्।। | 1-76-11a 1-76-11b |
अशोक शोकापनुद शोकोपहतचेतसाम्। त्वन्नामानं कुरुष्वाद्य प्रियसंदर्शनेन माम्। एवमुक्तवती सा तु शर्मिष्ठा पुनरब्रवीत्।।' | 1-76-12a 1-76-12b 1-76-12c |
ऋतुकालश्च संप्राप्तो न च मेऽस्ति वृतः पतिः। किं प्राप्तं किं नु कर्तव्यं किं वा कृत्वा सुखं भवेत्।। | 1-76-13a 1-76-13b |
देवयानी प्रजाताऽसौ वृथाऽहं प्राप्तयौवना। यथा तया वृतो भर्ता तथैवाहं वृणोमि तम्।। | 1-76-14a 1-76-14b |
राज्ञा पुत्रफलं देयमिति मे निश्चिता मतिः। अपीदानीं स धर्मात्मा ईयान्मे दर्शनं रहः।। | 1-76-15a 1-76-15b |
`केशैर्बध्या तु राजानं याचेऽहं सदृशं पतिम्। स्पृहेदिदं देवयानी पुत्रमीक्ष्य पुनःपुनः। क्रीडन्नन्तःपुरे तस्याः क्वचित्क्षणमवाप्य च।। | 1-76-16a 1-76-16b 1-76-16c |
वैशंपायन उवाच।' | 1-76-17x |
अथ निष्क्रम्य राजाऽसौ तस्मिन्काले यदृच्छया। अशोकवनिकाभ्याशे शर्मिष्ठां प्राप तिष्ठतीम्।। | 1-76-17a 1-76-17b |
तमेकं रहिते दृष्ट्वा शर्मिष्ठा चारुहासिनी। प्रत्युद्गम्याञ्जलिं कृत्वा राजानं वाक्यमब्रवीत्।। | 1-76-18a 1-76-18b |
शर्मिष्ठोवाच। | 1-76-19x |
सोमस्येन्द्रस्य विष्णोर्वा यमस्य वरुणस्य वा। तव वा नाहुष गृहे कः स्त्रियं द्रष्टुमर्हति।। | 1-76-19a 1-76-19b |
रूपाभिजनशीलैर्हि त्वं राजन्वेत्थ मां सदा। सा त्वां याचे प्रसाद्याहमृतुं देहि नराधिप।। | 1-76-20a 1-76-20b |
ययातिरुवाच। | 1-76-21x |
वेद्मि त्वां शीलसंपन्नां दैत्यकन्यामनिन्दिताम्। रूपं च ते न पश्यामि सूच्यग्रमपि निन्दितम्।। | 1-76-21a 1-76-21b |
`तदाप्रभृति दृष्ट्वा त्वां स्मराम्यनिशमुत्तमे'। अब्रवीदुशना काव्यो देवयानीं यदाऽवहम्। नेयमाह्वयितव्या ते शयने वार्षपर्वणी।। | 1-76-22a 1-76-22b 1-76-22c |
`देवयान्याः प्रियं कृत्वा शर्मिष्ठामपि पोषय।।' | 1-76-23a |
शर्मिष्ठोवाच। | 1-76-24x |
न नर्मयुक्तमनृतं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले। प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चानृतान्याहुरपातकानि।। | 1-76-24a 1-76-24b 1-76-24c 1-76-24d |
पृष्टं तु साक्ष्ये प्रवदन्तमन्यथा वदन्ति मिथ्या पतितं नरेन्द्र। एकार्थतायां तु समाहितायां मिथ्या वदन्तं ह्यनृतं हिनस्ति।। | 1-76-25a 1-76-25b 1-76-25c 1-76-25d |
`अनृतं नानृतं स्त्रीषु परिहासविवाहयोः। आत्मप्राणार्थघाते च तदेवोत्तमतां व्रजेत्।।' | 1-76-26a 1-76-26b |
ययातिरुवाच। | 1-76-27x |
राजा प्रमाणं भूतानां स नश्येत मृषा वदन्। अर्थकृच्छ्रमपि प्राप्य न मिथ्या कर्तुमुत्सहे।। | 1-76-27a 1-76-27b |
शर्मिष्ठोवाच। | 1-76-28x |
समावेतौ मतो राजन्पतिः सख्याश्च यः पतिः। समं विवाहमित्याहुः सख्या मेऽसि वृतः पतिः।। | 1-76-28a 1-76-28b |
`सह दत्तास्मि काव्येन देवयान्या मनीषिणा। पूज्या पोषयितव्येति न मृषा कर्तुमर्हसि।।' | 1-76-29a 1-76-29b |
सुवर्णमणिमुक्तानि वस्त्राण्याभरणानि च। याचितॄणां ददासि त्वं गोभूम्यादीनि यानि च।। | 1-76-30a 1-76-30b |
बहिःस्थं दानमित्युक्तं न शरीराश्रितं नृप। दुष्करं पुत्रदानं च आत्मदानं च दुष्करम्।। | 1-76-31a 1-76-31b |
शरीरदानात्तत्सर्वं दत्तं भवति मारिष। यस्य यस्य यथा कामस्तस्य तस्य ददाम्यहम्।। | 1-76-32a 1-76-32b |
इत्युक्त्वा नगरे राजंस्त्रिकालं घोषितं त्वया। त्वयोक्तमनृतं राजन्वृथा घोषितमेव वा। तत्सत्यं कुरु राजेन्द्र यथा वैश्रवणस्तथा।। | 1-76-33a 1-76-33b 1-76-33c |
ययातिरुवाच। | 1-76-34x |
दातव्यं याचमानेभ्य इति मे व्रतमाहितम्। त्वं च याचसि मां कामं ब्रूहि किं करवाणि ते।। | 1-76-34a 1-76-34b |
`धनं वा यदि वा किंचिद्राज्यं वाऽपि शुचिस्मिते।' | 1-76-35a |
शर्मिष्ठोवाच। | 1-76-35x |
अधर्मात्पाहि मां राजन्धर्मं च प्रतिपादय।। | 1-76-35b |
`नान्यं वृणे पुत्रकामा पुत्रात्परतरं न च।' त्वत्तोऽपत्यवती लोके चरेयं धर्ममुत्तमम्।। | 1-76-36a 1-76-36b |
त्रय एवाधना राजन्भार्या दासस्तथा सुतः। यत्ते समधिगच्छन्ति यस्यैते तस्य तद्धनम्।। | 1-76-37a 1-76-37b |
`पुत्रार्थं भर्तृपोषार्थं स्त्रियः सृष्टाः स्वयंभुवा। अपतिर्वापि या कन्या अनपत्या च या भवेत्। तासां जन्म वृथा लोके गतिस्तासां न विद्यते।।' | 1-76-38a 1-76-38b 1-76-38c |
देवयान्या भुजिष्याऽस्मि वश्या च तव भार्गवी। सा चाहं च त्वया राजन्भजनीये भजस्व माम्।। | 1-76-39a 1-76-39b |
वैशंपायन उवाच। | 1-76-40x |
एवमुक्तस्तु राजा स तथ्यमित्यभिजज्ञिवान्। पूजयामास शर्मिष्ठां धर्मं च प्रत्यपादयत्।। | 1-76-40a 1-76-40b |
स समागम्य शर्मिष्ठां यथा काममवाप्य च। अन्योन्यं चाभिसंपूज्य जग्मतुस्तौ यथागतम्।। | 1-76-41a 1-76-41b |
तस्मिन्समागमे सुभ्रूः शर्मिष्ठा चारुहासिनी। लेभे गर्भं प्रथमतस्तस्मान्नृपतिसत्तमात्।। | 1-76-42a 1-76-42b |
प्रयज्ञे च ततः काले राजन्राजीवलोचना। कुमारं देवगर्भाभं राजीवनिभलोचनम्।। | 1-76-43a 1-76-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि षट्सप्ततितमोऽध्यायः।। 76 ।। |
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