महाभारतम्-01-आदिपर्व-188
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भूतले पतितं राजानं दृष्ट्वा तत्समीपे तपत्या आगमनम्।। 1 ।।
तयोः संवादः।। 2 ।।
गन्धर्व उवाच। | 1-188-1x |
अथ तस्यामदृश्यायां नृपतिः काममोहितः। पातनः शत्रुसङ्घानां पपात धरणीतले।। | 1-188-1a 1-188-1b |
तस्मिन्निपतिते भूमावथ सा चारुहासिनी। पुनः पीनायतश्रोणी दर्शयामास तं नृपम्।। | 1-188-2a 1-188-2b |
अथाबभाषे कल्याणी वाचा मधुरया नृपम्। तं कुरूणां कुलकरं कामाभिहतचेतसम्।। | 1-188-3a 1-188-3b |
उवाच मधुरं वाक्यं तपती हसतीव सा। उत्तिष्ठोत्तिष्ठ भद्रं ते न त्वमर्हस्यरिन्दम।। | 1-188-4a 1-188-4b |
मोहं नृपतिशार्दूल गन्तुमाविष्कृतः क्षितौ। एवमुक्तोऽथ नृपतिर्वाचा मधुरया तदा।। | 1-188-5a 1-188-5b |
ददर्श विपुलश्रोणीं तामेवाभिमुखे स्थिताम्। अथ तामसितापाङ्गीमाबभाषे स पार्थिवः।। | 1-188-6a 1-188-6b |
मन्मथाग्निपरीतात्मा सन्दिग्धाक्षरया गिरा। साधु त्वमसितापाङ्गि कामार्तं मत्तकाशिनि।। | 1-188-7a 1-188-7b |
भजस्व भजमानं मां प्राणा हि प्रजहन्ति माम्। त्वदर्थं हि विशालाक्षि मामयं निशितैः शरैः।। | 1-188-8a 1-188-8b |
कामः कमलगर्भाभे प्रतिविध्यन्न शाम्यति। दष्टमेवमनाक्रन्दे भद्रे काममहाहिना।। | 1-188-9a 1-188-9b |
सा त्वं पीनायतश्रोणी मामाप्नुहि वरानने। त्वदधीना हि मे प्राणाः किन्नरोद्गीतभाषिणि।। | 1-188-10a 1-188-10b |
चारुसर्वानवद्याङ्गि पद्मेन्दुप्रतिमानने। न ह्यहं त्वदृते भीरु शक्ष्यामि खलु जीवितुम्।। | 1-188-11a 1-188-11b |
कामः कमलपत्राक्षि प्रतिविध्यति मामयम्। तस्मात्कुरु विशालाक्षि मय्यनुक्रोशमङ्गने।। | 1-188-12a 1-188-12b |
भक्तं मामसितापाङ्गि न परित्यक्तुमर्हसि। त्वं हि मां प्रीतियोगेन त्रातुमर्हसि भामिनि।। | 1-188-13a 1-188-13b |
त्वद्दर्शनकृतस्नेहं मनश्चलति मे भृशम्। न त्वां दृष्ट्वा पुनश्चान्यां द्रष्टुं कल्याणि रोचते।। | 1-188-14a 1-188-14b |
प्रसीद वशगोऽहं ते भक्तं मां भज भामिनि। दृष्ट्वैव त्वां वरारोहे मन्मथो भृशमङ्गने।। | 1-188-15a 1-188-15b |
अन्तर्गतं विशालाक्षि विध्यति स्म पतत्त्रिभिः। मन्मथाग्निसमुद्भूतं दाहं कमललोचने।। | 1-188-16a 1-188-16b |
प्रीतिसंयोगयुक्ताभिरद्भिः प्रह्लादयस्व मे। पुष्पायुधं दुराधर्षं प्रचण्डशरकार्मुकम्।। | 1-188-17a 1-188-17b |
त्वद्दर्शनसमुद्भूतं विध्यन्तं दुःसहैः शरैः। उपशामय कल्याणि आत्मदानेन भामिनि।। | 1-188-18a 1-188-18b |
गान्धर्वेण विवाहेन मामुपैहि वराङ्गने। विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्वः श्रेष्ठ उच्यते।। | 1-188-19a 1-188-19b |
तपत्युवाच। | 1-188-20x |
नाहमीशाऽऽत्मनो राजन्कन्या पितृमती ह्यहम्। मयि चेदस्ति ते प्रीतिर्याचस्व पितरं मम।। | 1-188-20a 1-188-20b |
यथा हि ते मया प्राणाः संभृताश्च नरेश्वर। दर्शनादेव भूयस्त्वं तथा प्राणान्ममाहरः।। | 1-188-21a 1-188-21b |
न चाहमीशा देहस्य तस्मान्नृपतिसत्तम। समीपं नोपगच्छामि न स्वतन्त्रा हि योषितः।। | 1-188-22a 1-188-22b |
का हि सर्वेषु लोकेषु विश्रुताभिजनं नृपम्। कन्या नाभिलषेन्नाथं भार्तारं भक्तवत्सलम्।। | 1-188-23a 1-188-23b |
तस्मादेवं गते काले याचस्व पितरं मम। आदित्यं प्रणिपातेन तपसा नियमेन च।। | 1-188-24a 1-188-24b |
स चेत्कामयते दातुं तव मामरिसूदन। भविष्याम्यद्य ते राजन्सततं वशवर्तिनी।। | 1-188-25a 1-188-25b |
अहं हि तपती नाम सावित्र्यवरजा सुता। अस्य लोकप्रदीपस्य सवितुः क्षत्रियर्षभ।। | 1-188-26a 1-188-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 188 ।। |
1-188-8 प्रजहन्ति प्रजहति।। 1-188-9 अनाक्रन्दे अत्रातरि काले।। अष्टाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 188 ।।
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