महाभारतम्-01-आदिपर्व-172
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ब्राह्मण प्रति तत्पत्नीवाक्यम्।। 1 ।।
ब्राह्मण्युवाच। | 1-172-1x |
न सन्तापस्त्वया कार्यः प्राकृतेनेव कर्हिचित्। न हि सन्तापकालोऽयं वैद्यस्य तव विद्यते।। | 1-172-1a 1-172-1b |
अवश्यं निधनं सर्वैर्गन्तव्यमिह मानवैः। अवश्यभाविन्यर्थे वै संतापो नेह विद्यते।। | 1-172-2a 1-172-2b |
भार्या पुत्रोऽथ दुहिता सर्वमात्मार्थमिष्यते। व्यथां जहि सुबुद्ध्या त्वं स्वयं यास्यामि तत्र च।। | 1-172-3a 1-172-3b |
एतद्धि परमं नार्याः कार्यं लोके सनातनम्। प्राणानपि परित्यज्य यद्भर्तुर्हितमाचरेत्।। | 1-172-4a 1-172-4b |
तच्च तत्र कृतं कर्म तवापीदं सुखावहम्। भवत्यमुत्र चाक्षय्यं लोकेऽस्मिंश्च यशस्करम्।। | 1-172-5a 1-172-5b |
एष चैव गुरुर्धर्मो यं प्रवक्ष्याम्यहं तव। अर्थश्च तव धर्मश्च भूयानत्र प्रदृश्यते।। | 1-172-6a 1-172-6b |
यदर्थमिष्यते भार्या प्राप्तः सोऽर्थस्त्वया मयि। कन्या चैका कुमारश्च कृताहमनृणा त्वया।। | 1-172-7a 1-172-7b |
समर्थः पोषणे चासि सुतयो रक्षणे तथा। न त्वहं सुतयोः शक्ता तथा रक्षणपोषणे।। | 1-172-8a 1-172-8b |
मम हि त्वद्विहीनायाः सर्वप्राणधनेश्वर। कथं स्यातां सुतौ बालौ भरेयं च कथं त्वहम्।। | 1-172-9a 1-172-9b |
कथं हि विधवाऽनाथा बालपुत्रा विना त्वया। मिथुनं जीवयिष्यामि स्थिता साधुगते पथि।। | 1-172-10a 1-172-10b |
अहं कृतावलेपैश्च प्रार्थ्यमानामिमां सुताम्। अयुक्तैस्तव संबन्धे कथं शक्ष्यामि रक्षितुम्।। | 1-172-11a 1-172-11b |
उत्सृष्टमामिषं भूमौ प्रार्थयन्ति यथा खगाः। प्रार्थयन्ति जनाः सर्वे पतिहीनां तथा स्त्रियम्।। | 1-172-12a 1-172-12b |
साऽहं विचाल्यमाना वै प्रार्थ्यमाना दुरात्मभिः। स्थातुं पथि न शक्ष्यामि सज्जनेष्टे द्विजोत्तम।। | 1-172-13a 1-172-13b |
`स्त्रीजन्म गर्हितं नाथ लोके दुष्टजनाकुले। मातापित्रोर्वशे कन्या प्रौढा भर्तृवशे तथा।। | 1-172-14a 1-172-14b |
अभावे चानयोः पुत्रे खतन्त्रा स्त्री विगर्हिता।। | 1-172-15a |
अनाथत्वं स्त्रियो द्वारं दुष्टानां विवृतं हि तत्। वस्त्रखण्डं घृताक्तं हि यथा संकृष्यते श्वभिः।।' | 1-172-16a 1-172-16b |
कथं तव कुलस्यैकमिमं बालमनागसम्। पितृपैतामहे मार्गे नियोक्तुमहमुत्सहे।। | 1-172-17a 1-172-17b |
कथं शक्ष्यामि बालेऽस्मिन्गुणानाधातुमीप्सितान्। अनाथे सर्वतो लुप्ते यथा त्वं धर्मदर्शिवान्।। | 1-172-18a 1-172-18b |
इमामपि च ते बालामनाथां परिभूय माम्। अनर्हाः प्रार्थयिष्यन्ति शूद्रा वेदश्रुतिं यथा।। | 1-172-19a 1-172-19b |
तां चेदहं न दित्सेयं सद्गुणैरुपबृंहिताम्। प्रमथ्यैनां हरेयुस्ते हविर्ध्वाङ्क्षा इवाध्वरात्।। | 1-172-20a 1-172-20b |
संप्रेक्षमाणा पुत्रीं ते नानुरूपमिवात्मनः। अनर्हवशमापन्नामिमां चापि सुतां तव।। | 1-172-21a 1-172-21b |
अवज्ञाता च लोकेषु तथान्मानमजानती। अवलिप्तैरैर्ब्रह्मन्मरिष्यामि न संशयः।। | 1-172-22a 1-172-22b |
तौ च हीनौ मया बालौ त्वया चैव तथात्मजौ। विनश्येतां न सन्देहो मत्स्याविव जलक्षये।। | 1-172-23a 1-172-23b |
त्रितयं सर्वथाप्येवं विनशिष्यत्यसंशयम्। त्वया विहीनं तस्मात्त्वं मां परित्यक्तुमर्हसि।। | 1-172-24a 1-172-24b |
व्युष्टिरेषा परा स्त्रीणां पूर्वं भर्तुः परा गतिः। ननु ब्रह्मन्सपुत्राणामिति धर्मविदो विदुः।। | 1-172-25a 1-172-25b |
`अनिष्टमिह पुत्राणां विषये परिवर्तितुम्। हरिद्राञ्जनपुष्पादिसौमङ्गल्ययुता सती।। | 1-172-26a 1-172-26b |
मरणं याति या भर्तुस्तद्दत्तजलपायिनी। भर्तृपादार्पितमनाः सा याति गिरिजापदम्।। | 1-172-27a 1-172-27b |
गिराजायाः सखी भूत्वा मोदते नगकन्यया। मितं ददाति हि पिता मितं माता मितं सुतः।। | 1-172-28a 1-172-28b |
अमितस्य हि दातारं का पतिं नाभिनन्दति। आश्रमाश्चाग्निसंस्कारा जपहोमव्रतानि च।। | 1-172-29a 1-172-29b |
स्त्रीणां नैते विधातव्या विना पतिमनिन्दितम्। क्षमा शौचमनाहारमेतावद्विहितं स्त्रियाः।।' | 1-172-30a 1-172-30b |
परित्यक्तः सुतश्चायं दुहितेयं तथा मया। बान्धवाश्च परित्यक्तास्त्वदर्थं जीवितं च मे।। | 1-172-31a 1-172-31b |
यज्ञैस्तपोभिर्नियमैर्दानैश्च विविधैस्तथा। विशिष्यते स्त्रिया भर्तुर्नित्यं प्रियहिते स्थितिः।। | 1-172-32a 1-172-32b |
तदिदं यच्चिकीर्षामि धर्मं परमसंमतम्। इष्टं चैव हितं चैव तव चैव कुलस्य च।। | 1-172-33a 1-172-33b |
इष्टानि चाप्यपत्यानि द्रव्याणि सुहृदः प्रियाः। आपद्धर्मप्रमोक्षाय भार्या चापि सतां मतम्।। | 1-172-34a 1-172-34b |
आपदर्थे धनं रक्षेद्दारान्रक्षेद्धनैरपि। आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि।। | 1-172-35a 1-172-35b |
दृष्टादृष्टफलार्थं हि भार्या पुत्रो धनं गृहम्। सर्वमेतद्विधातव्यं बुधानामेष निश्चयः।। | 1-172-36a 1-172-36b |
एकतो वा कुलं कृत्स्नमात्मा वा कुलवर्धनः। `उभयोः कोधिको विद्वन्नात्मा चैवाधिकः कुलात्।। | 1-172-37a 1-172-37b |
आत्मनो विद्यमानत्वाद्भुवनानि चतुर्दश। विद्यन्ते द्विजशार्दूल आतमा रक्ष्यस्ततस्त्वया।। | 1-172-38a 1-172-38b |
आत्मन्यविद्यमाने चेदस्य नास्तीह किंचन। एतज्जगदिदं सर्वमात्मना न समं किल।।' | 1-172-39a 1-172-39b |
स कुरुष्व मया कार्यं तारयात्मानमात्मना। अनुजानीही मामार्य सुतौ मे परिपालय।। | 1-172-40a 1-172-40b |
अवध्याः स्त्रिय इत्याहुर्धर्मज्ञा धर्मनिश्चये। धर्मज्ञान्राक्षसानाहुर्न हन्यात्स च मामपि।। | 1-172-41a 1-172-41b |
निःसंशयं वधः पुंसां स्त्रीणां संशयितो वधः। अतो मामेव धर्मज्ञ प्रस्थापयितुमर्हसि।। | 1-172-42a 1-172-42b |
भुक्तं प्रियाण्यवाप्तानि धर्मश्च चरितो मया। `त्वच्छुश्रूषणसंभूता कीर्तिश्चाप्यतुला मम।' त्वत्प्रसूतिः प्रिया प्राप्ता न मां तप्स्यत्यजीवितं।। | 1-172-43a 1-172-43b 1-172-43c |
जातपुत्रा च वृद्धा च प्रियकामा च ते सदा। समीक्ष्यैतदहं सर्वं व्यवसायं करोम्यतः।। | 1-172-44a 1-172-44b |
उत्सृज्यापि हि मामार्य प्राप्स्यस्यन्यामपि स्त्रियम्। ततः प्रतिष्ठितो धर्मो भविष्यति पुनस्तव।। | 1-172-45a 1-172-45b |
न चाप्यधर्मः कल्याण बहुपत्नीकता नृणाम्। स्त्रीणामधर्मः सुमहान्भर्तुः पूर्वस्य लङ्घने।। | 1-172-46a 1-172-46b |
एतत्सर्वं समीक्ष्य त्वमात्मत्यागं च गर्हितम्। आत्मानं तारयाद्याशु कुलं चेमौ च दारकौ।। | 1-172-47a 1-172-47b |
वैशंपायन उवाच। | 1-172-48x |
एवमुक्तस्तया भर्ता तां समालिङ्ग्य भारत। मुमोच बाष्पं शनकैः सभार्यो भृशदुःखितः।। | 1-172-48a 1-172-48b |
`मैवं वद त्वं कल्याणि तिष्ठ चेह सुमध्यमे। न तु भार्यां त्यजेत्प्राज्ञः पुत्रान्वापि कदाचन।। | 1-172-49a 1-172-49b |
विशेषतः स्त्रियं रक्षेत्पुरुषो बुद्धिमानिह। त्यक्त्वा तु पुरुषो जीवेन्न हातव्यानिमान्सदा। न वेत्ति कामं धर्मं च अर्थं मोक्षं च तत्त्वतः।।' | 1-172-50a 1-172-50b 1-172-50c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 172 ।। |
1-172-1 वैद्यस्य विद्यावनः।। 1-172-25 परा व्युष्टिर्महद्भाग्यम्।। 1-172-43 त्वत् त्वत्तः प्रसूतिः संततिः। अजीवितम् मरणं।। द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 172 ।।
आदिपर्व-171 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-173 |