महाभारतम्-01-आदिपर्व-200
दिखावट
← आदिपर्व-199 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-200 वेदव्यासः |
आदिपर्व-201 → |
मध्येमार्गं आगतस्य व्यासस्य आज्ञया पाण्डवानां द्रुपदपुरप्रवेशः।। 1 ।।
तेषां कुम्भकारगृहे वासः, भैक्षवृत्तिश्च।। 2 ।।
द्रौपद्याः स्वयंवरनिर्माणकारणकथनं।। 3 ।।
द्रुपदेन कृतां स्वयंवरघोषणां श्रुतवतां क्षत्रियादीनां आगमनं।। 4 ।।
सर्वेषां उचिते स्थाने उपवेशनं पाण्डवानां ब्राह्मणमध्ये उपवेशनं।। 5 ।।
मङ्गलस्नातायाः स्वलङ्कृताया द्रौपद्या रङ्गमध्ये आगमनं।। 6 ।।
धृष्टद्युम्नेन लक्ष्यवेधपणकथनम्।। 7 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-200-1x |
ततस्ते नरशार्दूला भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः। तं ब्राह्मणं पुरस्कृत्य पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरम्। प्रययुर्द्रौपदीं द्रष्टुं तं च देशं महोत्सवम्।। | 1-200-1a 1-200-1b 1-200-1c |
ततस्ते तं महात्मानं शुद्धात्मानमकल्मषम्। ददृशुः पाण्डवा वीराः पथि द्वैपायनं तदा।। | 1-200-2a 1-200-2b |
तस्मै यथावत्सत्कारं कृत्वा तेन च सत्कृताः। कथान्ते चाभ्यनुज्ञाताः प्रययुर्द्रुपदक्षयम्।। | 1-200-3a 1-200-3b |
पश्यन्तो रमणीयानि वनानि च सरांसि च। तत्रतत्र वसन्तश्च शनैर्जग्मुर्महराथाः।। | 1-200-4a 1-200-4b |
स्वाध्यायवन्तः शुचयो मधुराः प्रियवादिनः। आनुपूर्व्येण संप्राप्ताः पाञ्चालान्पाण्डुनन्दनाः।। | 1-200-5a 1-200-5b |
ते तु दृष्ट्वा पुरं तच्च स्कन्धावारं च पाण्डवाः। कुम्भकारस्य शालायां निवासं चक्रिरे तदा।। | 1-200-6a 1-200-6b |
तत्र भैक्षं समाजह्रुर्ब्राह्मणीं वृत्तिमाश्रिताः। तान्संप्राप्तांस्तथा वीराञ्जज्ञिरे न नराः क्वचित्।। | 1-200-7a 1-200-7b |
`यज्ञसेनस्तु पाञ्चालो भीष्मद्रोमकृतागसम्। ज्ञात्वाऽऽत्मानं तदारेभे त्राणायात्मक्रियां क्षमां।। | 1-200-8a 1-200-8b |
अवाप्य धृष्टद्युम्नं हि न स द्रोणमचिन्तयत्। स तु वैरप्रसङ्गाच्च भीष्माद्भयमचिन्तयत्।। | 1-200-9a 1-200-9b |
कन्यादानात्तु शरणं सोऽमन्यत महीपतिः।' यज्ञसेनस्य कामस्तु पाण्डवाय किरीटिने।। | 1-200-10a 1-200-10b |
दास्यामि कृष्मामिति वै न चैनं विवृणोति सः। `जामातृबलसंयोगं मेने हि बलवत्तरम्।।' | 1-200-11a 1-200-11b |
सोऽन्वेषमाणः कौन्तेयान्पाञ्चालो जनमेजय। दृढं धनुरथानम्यं कारयामास भारत।। | 1-200-12a 1-200-12b |
`वैयाघ्रपद्यस्योग्रं वै सृञ्जयस्य महीपतिः। तद्धनुः किन्धुरं नाम देवदत्तमुपानयत्।। | 1-200-13a 1-200-13b |
आयसी तस्य च ज्याऽऽसीत्प्रतिबद्धा महाबला। न तु ज्यां प्रसहेदन्यस्तद्धनुःप्रवरं महत्।। | 1-200-14a 1-200-14b |
शङ्करेण वरं दत्तं प्रीतेन च महात्मना। तन्निष्फलं स्यान्न तु मे इति प्रामाण्यमागतः।। | 1-200-15a 1-200-15b |
मया कर्तव्यमधुना दुष्करं लक्ष्यवेधनम्। इति निश्चित्य मनसा कारितं लक्ष्यमुत्तमम्।।' | 1-200-16a 1-200-16b |
यन्त्रं वैहायसं चापि कारयामास कृत्रिमम्। तेन यन्त्रेण सहितं राजँल्लक्ष्यं च काञ्चनम्।। | 1-200-17a 1-200-17b |
द्रुपद उवाच। | 1-200-18x |
इदं सज्यं धनुः कृत्वा सज्जैरेभिश्च सायकैः। अतीत्य लक्ष्य यो वेद्धा स लब्धा मत्सुतामिति।। | 1-200-18a 1-200-18b |
वैशंपायन उवाच। | 1-200-19x |
इति स द्रुपदो राजा स्वयंवरमघोषयत्। तच्छ्रुत्वा पार्थिवाः सर्वे समीयुस्तत्र भारत।। | 1-200-19a 1-200-19b |
ऋषयश्च महात्मानः स्वयंवरदिदृक्षवः। दुर्योधनपुरोगाश्च सकर्णाः कुरवो नृप।। | 1-200-20a 1-200-20b |
`यादवा वासुदेवेन सार्धमन्धकवृष्णयः।' ततोऽर्चिता राजगुणा द्रुपदेन महात्मना।। | 1-200-21a 1-200-21b |
उपोपविष्टा मञ्चेषु द्रष्टुकामाः स्वयंवरम्। `ब्राह्मणाश्च महाभागा देशेभ्यः समुपागमन्।। | 1-200-22a 1-200-22b |
ब्राह्मणैरेव सहिताः पाण्डवाः समुपाविशन्। त्रयस्त्रिंशत्सुराः सर्वे विमानैर्व्योम्न्यवस्थिताः।। | 1-200-23a 1-200-23b |
ततः पौरजनाः सर्वे सागरोद्धूतनिःस्वनाः। शिंशुमारशिरः प्राप्य न्यविशंस्ते स्म पार्थिवाः।। | 1-200-24a 1-200-24b |
प्रागुत्तरेण नगराद्भूमिभागे समे शुभे। समाजवाटः शुशुभे भवनैः सर्वतो वृतः।। | 1-200-25a 1-200-25b |
प्राकारपरिखोपेतो द्वारतोरणमण्डितः। वितानेन विचित्रेण सर्वतः समलङ्कृतः।। | 1-200-26a 1-200-26b |
तूर्यौघशतसङ्कीर्णः परार्ध्यागुरुधूपितः। चन्दनोदकसिक्तश्च माल्यदामोपशोभितः।। | 1-200-27a 1-200-27b |
कैलासशिखरप्रख्यैर्नभस्तलविलेखिभिः। सर्वतः संवृतः शुभ्रैः प्रासादैः सुकृतोच्छ्रयै।। | 1-200-28a 1-200-28b |
सुवर्णजालसंवीतैर्मणिकुट्टिमभूषणैः। सुखारोहणसोपानैर्महासनपरिच्छदैः।। | 1-200-29a 1-200-29b |
स्रग्दामसमवच्छन्नैरगुरूत्तमवासितैः। हंसांशुवर्णैर्बहुभिरायोजनसुगन्धिभिः।। | 1-200-30a 1-200-30b |
असंबाधशतद्वारैः शयनासनशोभितैः। बहुधातुपिनद्धाङ्गैर्हिमवच्छिखरैरिव।। | 1-200-31a 1-200-31b |
तत्र नानाप्रकारेषु विमानेषु स्वलङ्कृताः। स्पर्धमानास्तदाऽन्योन्यं निषेदुः सर्वपार्थिवाः।। | 1-200-32a 1-200-32b |
तत्रोपविष्टान्ददृशुर्महासत्वान्पृथग्जनाः। राजसिंहान्महाभागान्कृष्णागुरुविभूषितान्।। | 1-200-33a 1-200-33b |
महाप्रसादान्ब्राह्मण्यान्स्वराष्ट्रपरिरक्षिणः। प्रियान्सर्वस्य लोकस्य सुकृतैः कर्मभिः शुभैः।। | 1-200-34a 1-200-34b |
मञ्चेषु च परार्द्ध्येषु पौरजानपदा जनाः। कृष्णादर्शनसिद्ध्यर्थं सर्वतः समुपाविशन्।। | 1-200-35a 1-200-35b |
ब्राह्मणैस्ते च सहिताः पाण्डवाः समुपाविशन्। ऋद्धिं पञ्चालराजस्य पश्यन्तस्तामनुत्तमाम्।। | 1-200-36a 1-200-36b |
ततः समाजो ववृधे स राजन्दिवसान्बहून्। रत्नप्रदानबहुलः शोभितो नटनर्तकैः।। | 1-200-37a 1-200-37b |
वर्तमाने समाजे तु रमणीयेऽह्नि षोडशे। `मैत्रे मुहूर्ते तस्याश्च राजदाराः पुराविदः। पुत्रवत्यः सुवसनाः प्रतिकर्मोपचक्रमुः।। | 1-200-38a 1-200-38b 1-200-38c |
वैडूर्यमयपीठे तु निविष्टां द्रौपदीं तदा। सतूर्यं स्नापयाञ्चक्रुः स्वर्णकुम्भस्थितैर्जलैः।। | 1-200-39a 1-200-39b |
तां निवृत्ताभिषेकां च दुकूलद्वयधारिणीम्। निन्युर्मणिस्तम्भवतीं वेदिं वै सुपरिष्कृताम्।। | 1-200-40a 1-200-40b |
निवेश्य प्राङ्मुखीं हृष्टां विस्मिताक्ष्यः प्रसाधिकाः। केनालङ्करणेनेमामित्यन्योन्यं व्यलोकयन्।। | 1-200-41a 1-200-41b |
धूपोष्मणा च केशानामार्द्रभावं व्यपोहयन्। बबन्धुरस्या धम्मिल्लं माल्यैः सुरभिगन्धिभिः।। | 1-200-42a 1-200-42b |
दूर्वामधूकरचितं माल्यं तस्या ददुः करे। चक्रुश्च कृष्णागरुणा पत्रसङ्गं कुचद्वये।। | 1-200-43a 1-200-43b |
रेजे सा चक्रवाकाङ्का स्वर्णदीर्घा सरिद्वरा। अलकैः कुटिलैस्तस्या मुखं विकसितं बभौ।। | 1-200-44a 1-200-44b |
आसक्तभृङ्गं कुसुमं शशिम्बिम्बं जिगाय तत्। कालाञ्जनं नयनयोराचारार्थं समादधुः।। | 1-200-45a 1-200-45b |
भूषणं रत्नखचितैरलंचक्रुर्यथोचितम्। माता च तस्याः पृषती हरितालमनश्शिलाम्।। | 1-200-46a 1-200-46b |
अङ्गुलीभ्यामुपादाय तिलकं विदधे मुखे। अलङ्कृतां वधूं दृष्ट्वा योषितो मुदमाययुः।। | 1-200-47a 1-200-47b |
माता न मुमुदे तस्याः पतिः कीदृग्भविष्यति। सौविदल्लाः समागम्य द्रुपदस्याज्ञया ततः।। | 1-200-48a 1-200-48b |
एनामारोपयामासुः करिणीं कुचभूषिताम्। ततोऽवाद्यन्त वाद्यानि मङ्गलानि दिवि स्पृशन्।। | 1-200-49a 1-200-49b |
विलासिनीजनाश्चापि प्रवरं करिणीशतम्। माङ्गल्यगीतं गायन्त्यः पार्स्वयोरुभयोर्ययुः।। | 1-200-50a 1-200-50b |
जनापसरणे व्यग्राः प्रतिहार्यः पुरा ययुः। कोलाहलो महानासीत्तस्मिन्पुरवरे तदा।। | 1-200-51a 1-200-51b |
धृष्टद्युम्नो ययावग्रे हयमारुह्य भारत। द्रुपदो रङ्गदेशे तु बलेन महता युतः।। | 1-200-52a 1-200-52b |
तस्थौ व्यूह्य महानीकं पालितं दृढधन्विभिः।' आप्लुताङ्गीं सुवसनां सर्वाभरणभूषिताम्।। | 1-200-53a 1-200-53b |
मालां च समुपादाय काञ्चनीं समलङ्कृताम्। `आगतां ददृशुः सर्वे रङ्गभूमिमलङ्कृताम्।।' | 1-200-54a 1-200-54b |
अवतीर्णा ततो रङ्गं द्रौपदी भरतर्षभ। `तस्थौ प्रमुदितान्सर्वान्नृपतीन्रङ्गमण्डले। प्रेक्षन्ती व्रीडितापाङ्गी द्रष्टृणां सुमनोहरा।।' | 1-200-55a 1-200-55b 1-200-55c |
पुरोहितः सोमकानां मन्त्रविद्ब्राह्मणः शुचिः। परिस्तीर्य जुहावाग्निमाज्येन विधिवत्तदा।। | 1-200-56a 1-200-56b |
संतर्पयित्वा ज्वलनं ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च। वारयामास सर्वाणि वादित्राणि समन्ततः।। | 1-200-57a 1-200-57b |
निःशब्दे तु कृते तस्मिन्धृष्टद्युम्नो विशांपते। कृष्णामादाय विधिवन्मेघदुन्दुभिनिःस्वनः।। | 1-200-58a 1-200-58b |
रङ्गमध्यं गतस्तत्र मेघगम्भीरया गिरा। वाक्यमुच्चैर्जगादेदं श्लक्ष्णमर्थवदुत्तमम्।। | 1-200-59a 1-200-59b |
इदं धनुर्लक्ष्यमिमे च बाणाः शृण्वन्तु मे भूपतयः समेताः। छिद्रेण यन्त्रस्य मसर्पयध्वं शरैः शितैर्व्योमचरैर्दशार्धैः।। | 1-200-60a 1-200-60b 1-200-60c 1-200-60d |
एतन्महत्कर्म करोति यो वै कुलेन रूपेण बलेन युक्तः। तस्याद्य भार्या भगिनी ममेयं कृष्णा भवित्री न मृषा ब्रवीमि।। | 1-200-61a 1-200-61b 1-200-61c 1-200-61d |
तानेवमुक्त्वा द्रुपदस्य पुत्रः पश्चादिदं तां भगिनीमुवाच। नाम्ना च गोत्रेण च कर्मणा च संकीर्तयन्भूमिपतीन्समेतान्।। | 1-200-62a 1-200-62b 1-200-62c 1-200-62d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि स्वयंवरपर्वणि द्विशततमोऽध्यायः।। 200 ।। |
1-200-7 जज्ञिरे ज्ञातवन्तः।। 1-200-17 वैहायसमन्तरिक्षगतम्।। 1-200-24 शिंशुमारो जलजन्तुस्तदाकारस्तारासमूहात्मको विष्णुस्तस्य शिरःप्रदेशे ऐशान्यां दिशि। अतएव सा अपराजितादिक् तां दिशं प्राप्य न्यविशन्।। 1-200-25 तामेव दिशमात्र प्रागिति।। द्विशततमोऽध्यायः।। 200 ।।
आदिपर्व-199 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-201 |