महाभारतम्-01-आदिपर्व-193
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पूर्वोपायैरपि दुस्त्यजप्राणस्य वसिष्ठस्य पुनर्गङ्गापतनादिनापि प्राणत्यागासंभवे आश्रमं प्रत्यागमनम्।। 1 ।।
तत्र शक्तिभार्यामदृश्यन्तीनाम्नी गर्भवतीं ज्ञात्वा आत्मघातान्निवर्तनं।। 2 ।।
अदृश्यन्त्या सह गच्छन्तं वसिष्ठं भक्षयितुमागतस्य कल्माषपादस्य वसिष्ठेन शापान्मोक्षणं।। 3 ।।
सौदासपत्न्या वसिष्ठाद्गर्भसंभवः।। 4 ।।
अश्मकनामकपुत्रोत्पत्तिः।। 5 ।।
गन्धर्व उवाच। | 1-193-1x |
ततो दृष्ट्वाश्रमपदं रहितं तैः सुतैर्मुनिः। निर्जगाम सुदुःखार्तः पुनरप्याश्रमात्ततः।। | 1-193-1a 1-193-1b |
सोऽपश्यत्सरितं पूर्णां प्रावृट्काले नवाम्भसा। वृक्षान्बहुविधान्पार्थ हरन्तीं तीरजान्बहून्।। | 1-193-2a 1-193-2b |
अथ चिन्तां समापेदे पुनः कौरवनन्दन। अम्भस्यस्या निमज्जेयमिति दुःखसमन्वितः।। | 1-193-3a 1-193-3b |
ततः पाशैस्तदात्मानं गाढं बद्ध्वा महामुनिः। तस्या जले महानद्या निममज्ज सुदुःखितः।। | 1-193-4a 1-193-4b |
अथ च्छित्त्वा नदी पाशांस्तस्यारिबलसूदन। स्थलस्थं तमृषिं कृत्वा विपाशं समवासृजत्।। | 1-193-5a 1-193-5b |
उत्ततार ततः पाशैर्विमुक्तः स महानृषिः। विपाशेति च नामास्या नद्याश्चक्रे महानृषिः।। | 1-193-6a 1-193-6b |
`सा विपाशेति विख्याता नदी लोकेषु भारत। ऋषेस्तस्य नरव्याघ्र वचनात्सत्यवादिनः। उत्तीर्य च तदा राजन्दुःखितो भगवानृषिः।।' | 1-193-7a 1-193-7b 1-193-7c |
शोके बुद्धिं तदा चक्रे न चैकत्र व्यतिष्ठत। सोऽगच्छत्पर्वतांश्चैव सरितश्च सरांसि च।। | 1-193-8a 1-193-8b |
दृष्ट्वा स पुनरेवर्षिर्नदीं हैमवतीं तदा। चण्डग्राहवतीं भीमां तस्याः स्रोतस्यपातयत्।। | 1-193-9a 1-193-9b |
सा तमग्निसं विप्रमनुचिन्त्य सरिद्वरा। शतधा विद्रुता तस्माच्छतद्रुरिति विश्रुता।। | 1-193-10a 1-193-10b |
ततः स्थलगतं दृष्ट्वा तत्राप्यात्मानमात्मना। मर्तुं न शक्यमित्युक्त्वा पुवरेवाश्रमं ययौ।। | 1-193-11a 1-193-11b |
स गत्वा विविधाञ्शैलान्देशान्बहुविधांस्तथा। अदृशन्त्याख्यया वध्वाथाश्रमेनुसृतोऽभवत्।। | 1-193-12a 1-193-12b |
अथ शुश्राव संगत्या वेदाध्ययननिःस्वनम्। पृष्ठतः परिपूर्णार्थं षड्मिरङ्गैरलङ्कृतम्।। | 1-193-13a 1-193-13b |
अनुव्रजति कोन्वेष मामित्येवाथ सोऽब्रवीत्। अदृश्यन्त्येवमुक्ता वै तं स्नुषा प्रत्यभाषत।। | 1-193-14a 1-193-14b |
शक्तोभार्या महाभाग तपोयुक्ता तपस्विनम्। अहमेकाकिनी चापि त्वया गच्छामि नापरः।। | 1-193-15a 1-193-15b |
वसिष्ठ उवाच। | 1-193-16x |
पुत्रि कस्यैष साङ्गस्य वेदस्याध्ययनस्वनः। पुरा साङ्गस्य वेदस्य शक्तेरिव मया श्रुतः।। | 1-193-16a 1-193-16b |
अदृश्यन्त्युवाच। | 1-193-17x |
अयं कुक्षौ समुत्पन्नः शक्तेर्गर्भः सुतस्य ते। समा द्वादश तस्येह वेदानभ्यस्यतो मुने।। | 1-193-17a 1-193-17b |
गन्धर्व उवाच। | 1-193-18x |
एवमुक्तस्तया हृष्टो वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः। अस्ति सन्तानमित्युक्त्वा मृत्योः पार्थ न्यवर्तत।। | 1-193-18a 1-193-18b |
ततः प्रतिनिवृत्तः स तया वध्वा सहानघ। कल्माषपादमासीनं ददर्श विजने वने।। | 1-193-19a 1-193-19b |
स तु दृष्ट्वैव तं राजा क्रुद्ध उत्थाय भारत। आविष्टो रक्षसोग्रेण इयेषात्तुं तदा मुनिम्।। | 1-193-20a 1-193-20b |
अदृश्यन्ती तु तं दृष्ट्वा क्रूरकर्माणमग्रतः। भयसंविग्नया वाचा वसिष्ठमिदमब्रवीत्।। | 1-193-21a 1-193-21b |
असौ मृत्युरिवोग्रेण दण्डेन भगवन्नितः। प्रगृहीतेन काष्ठेन राक्षसोऽभ्येति दारुणः।। | 1-193-22a 1-193-22b |
तं निवारयितुं शक्तो नान्योऽस्ति भुवि कश्चन। स्वदृतेऽद्य महाभाग सर्ववेदविदां वर।। | 1-193-23a 1-193-23b |
पाहि मां भगवन्पापादस्माद्दारुणदर्शनात्। राक्षसोऽयमिहात्तुं वै नूनमावां समीहते।। | 1-193-24a 1-193-24b |
वसिष्ठ उवाच। | 1-193-25x |
माभैः पुत्रि न भेतव्यं राक्षसात्तु कथंचन। नैतद्रक्षो भयं यस्मात्पश्यसि त्वमुपस्थितम्।। | 1-193-25a 1-193-25b |
राजा कल्माषपादोऽयं वीर्यवान्प्रथितो भुवि। स एषोऽस्मिन्वनोद्देशे निवसत्यतिभीषणः।। | 1-193-26a 1-193-26b |
गन्धर्व उवाच। | 1-193-27x |
तमापतन्तं संप्रेक्ष्य वसिष्ठो भगवानृषिः। वारयामास तेजस्वी हुङ्कारेणैव भारत।। | 1-193-27a 1-193-27b |
मन्त्रपूतेन च पुनः स तमभ्युक्ष्य वारिणा। मोक्षयामास वै शापात्तस्माद्योगान्नराधिपम्।। | 1-193-28a 1-193-28b |
स हि द्वादश वर्षाणि वासिष्ठस्यैव तेजसा। ग्रस्त आसीद्ग्रहेणेव पर्वकाले दिवाकरः।। | 1-193-29a 1-193-29b |
रक्षसा विप्रमुक्तोऽथ स नृपस्तद्वनं महत्। तेजसा रञ्जयामास न्ध्याभ्रमिव भास्करः।। | 1-193-30a 1-193-30b |
प्रतिलभ्य ततः संज्ञामभिवाद्य कृताञ्जलिः। उवाच नृपतिः काले वसिष्ठमृषिसत्तमम्।। | 1-193-31a 1-193-31b |
सौदासोऽहं महाभाग याज्यस्ते मुनिसत्तम। अस्मिन्काले यदिष्टं ते ब्रूहि किं करवाणि ते।। | 1-193-32a 1-193-32b |
वसिष्ठ उवाच। | 1-93-33x |
वृत्तमेतद्यथाकालं गच्छ राज्यं प्रशाधि वै। ब्राह्मणं तु मनुष्येन्द्र माऽवमंस्थाः कदाचन।। | 1-193-33a 1-193-33b |
राजोवाच। | 1-193-34x |
नावमंस्ये महाभाग कदाचिद्ब्राह्मणर्षभान्। त्वन्निदेशे स्थितः सम्यक् पूजयिष्याम्यहं द्विजान्।। | 1-193-34a 1-193-34b |
इक्ष्वाकूणां च येनाहमनृणः स्यां द्विजोत्तम। तत्त्वत्तः प्राप्तुमिच्छामि सर्ववेदविदां वर।। | 1-193-35a 1-193-35b |
अपत्यायेप्सिताय त्वं महिषीं गन्तुमर्हसि। शीलरूपगुणोपेतामिक्ष्वाकुकुलवृद्धये।। | 1-193-36a 1-193-36b |
गन्धर्व उवाच। | 1-193-37x |
ददानीत्येव तं तत्र राजानं प्रत्युवाच ह। वसिष्ठः परमेष्वासं सत्यसन्धो द्विजोत्तमः।। | 1-193-37a 1-193-37b |
ततः प्रतिययौ काले वसिष्ठः सह तेन वै। ख्यातां पुरीमिमां लोकेष्वयोध्यां मनुजेश्वर।। | 1-193-38a 1-193-38b |
तं प्रजाः प्रतिमोदन्त्यः सर्वाः प्रत्युद्गतास्तदा। विपाप्मानं महात्मानं दिवौकस इवेश्वरम्।। | 1-193-39a 1-193-39b |
सुचिराय मनुष्येन्द्रो नगरीं पुण्यलक्षणाम्। विवेश सहितस्तेन वसिष्ठेन महर्षिणा।। | 1-193-40a 1-193-40b |
ददृशुस्तं महीपालमयोध्यावासिनो जनाः। पुरोहितेन सहितं दिवाकरमिवोदितम्।। | 1-193-41a 1-193-41b |
स च तां पूरयामास लक्ष्म्या लक्ष्मीवतां वरः। अयोध्यां व्योम शीतांशुः शरत्काल इवोदितः।। | 1-193-42a 1-193-42b |
संसक्तिमृष्टपन्थानं पताकाध्वजशोभितम्। मनः प्रह्लादयामास तस्य तत्पुरमुत्तमम्।। | 1-193-43a 1-193-43b |
तुष्टपुष्टजनाकीर्णा सा पुरी कुरुनन्दन। अशोभत तदा तेन शक्रेणेवामरावती।। | 1-193-44a 1-193-44b |
ततः प्रविष्टे राजर्षौ तस्मिंस्तत्पुरमुत्तमम्। राज्ञस्तस्याज्ञया देवी वसिष्ठमुपचक्रमे।। | 1-193-45a 1-193-45b |
ऋतावथ महर्षिस्तु संबभूव तया सह। देव्या दिव्येन विधिना वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः।। | 1-193-46a 1-193-46b |
ततस्तस्यां समुत्पन्ने गर्भे स मुनिसत्तमः। राज्ञाभिवादितस्तेन जगाम मुनिराश्रमम्।। | 1-193-47a 1-193-47b |
दीर्घकालेन सा गर्भं सुषुवे न तु तं यदा। तदा देव्यश्मना कुक्षिं निर्बिभेद यशस्विनी।। | 1-193-48a 1-193-48b |
ततो द्वादशमे वर्षे स जज्ञे पुरषर्षभः। अश्मको नाम राजर्षिः पौदन्यं यो न्यवेशयत्।। | 1-193-49a 1-193-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 193 ।। |
1-193-12 वध्वा स्नुषया।। 1-193-48 निष्पिपेष मनस्विनीति ङ. पाठः।। त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 193 ।।
आदिपर्व-192 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-194 |