महाभारतम्-01-आदिपर्व-255
दिखावट
← आदिपर्व-254 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-255 वेदव्यासः |
आदिपर्व-256 → |
शार्ङ्गकाणां मोचनकारणे जनमेजयेन पृष्टे वैशंपायनेन मन्दपालोपाख्यानकथनारम्भः।। 1 ।।
तपसा पितृलोकं गतस्याप्यनवाप्ततपःफळस्य मन्दपालस्य देवाज्ञया प्रजोत्पादनार्थं पुनर्भूमावागमनम्।। 2 ।।
तत्र शार्ङ्ग्यां जरितायां पुत्रचतुष्टयोत्पादनम्।। 3 ।।
सपुत्रां जरितां खाण्डवे विसृज्य लपितानाम्न्याऽन्यया शार्ङ्ग्या संगतस्य मन्दपालस्य विप्ररूपाग्निदर्शनम्।। 4 ।।
तस्य खाण्डवदिधक्षां ज्ञात्वा पुत्ररक्षणार्थं स्तुतादग्नेर्वरलाभः।। 5 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-255-1x |
किमर्थं शार्ङ्गकानग्निर्न ददाह तथा गते। तस्मिन्वने दह्यमाने ब्रह्मन्नेतत्प्रचक्ष्व मे।। | 1-255-1a 1-255-1b |
अदाहे ह्यश्वसेनस्य दानवस्य मयस्य च। कारणं कीर्तितं ब्रह्मञ्शार्ङ्गकाणां न कीर्तितम्।। | 1-255-2a 1-255-2b |
तदेतदद्भुतं ब्रह्मञ्शार्ङ्गकाणामनामयम्। कीर्तयस्वाग्निसंमर्दे कथं ते न विनाशिताः।। | 1-255-3a 1-255-3b |
वैशंपायन उवाच। | 1-255-4x |
यदर्थं शार्ङ्गकानग्निर्न ददाह तथा गते। तत्ते सर्वं प्रवक्ष्यामि यथा भूतमरिन्दम।। | 1-255-4a 1-255-4b |
धर्मज्ञानां मुख्यतमस्तपस्वी संशितव्रतः। आसीन्महर्षिः श्रुतवान्मन्दपाल इति श्रुतः।। | 1-255-5a 1-255-5b |
स मार्गमाश्रितो राजन्नृषीणामूर्ध्वरेतसाम्। स्वाध्यायवान्धर्मरतस्तपस्वी विजितेन्द्रियः।। | 1-255-6a 1-255-6b |
स गत्वा तपसः पारं देहमुत्सृज्य भारत। जगाम पितृलोकाय न लेभे तत्र तत्फलम्।। | 1-255-7a 1-255-7b |
स लोकानफलान्दृष्ट्वा तपसा निर्जितानपि। पप्रच्छ धर्मराजस्य समीपस्थान्दिवौकसः।। | 1-255-8a 1-255-8b |
मन्दपाल उवाच। | 1-255-9x |
किमर्थमावृता लोका ममैते तपसाऽर्जिताः। किं मया न कृतं तत्र यस्यैतत्कर्मणः फलम्।। | 1-255-9a 1-255-9b |
तत्राहं तत्करिष्यामि यदर्थमिदमावृतम्। फलमेतस्य तपसः कथयध्वं दिवौकसः।। | 1-255-10a 1-255-10b |
देवा ऊचुः। | 1-255-11x |
ऋणिनो मानवा ब्रह्मञ्जायन्ते येन तच्छृणु। क्रियाभिर्ब्रह्मचर्येण प्रजया च न संशयः।। | 1-255-11a 1-255-11b |
तदपाक्रियते सर्वं यज्ञेन तपसा सुतैः। तपस्वी यज्ञकृच्चासि न च ते विद्यते प्रजा।। | 1-255-12a 1-255-12b |
त इमे प्रसवस्यार्थे तव लोकाः समावृताः। प्रजायस्व ततो लोकानुपभोक्ष्यसि पुष्कलान्।। | 1-255-13a 1-255-13b |
पुन्नाम्नो नरकात्पुत्रस्त्रायते पितरं श्रुतिः। तस्मादपत्यसन्ताने यतस्व ब्रह्मसत्तम।। | 1-255-14a 1-255-14b |
वैशंपायन उवाच। | 1-255-15x |
तच्छ्रुत्वा मन्दपालस्तु वचस्तेषां दिवौकसाम्। क्व नु शीघ्रमपत्यं स्याद्बहुलं चेत्यचिन्तयत्।। | 1-255-15a 1-255-15b |
स चिन्तयन्नभ्यगच्छत्सुबहुप्रसवान्खगान्। शार्ङ्गिकां शार्ङ्गको भूत्वा जरितां समुपेयिवान्।। | 1-255-16a 1-255-16b |
तस्यां पुत्रानजनयच्चतुरो ब्रह्मवादिनः। तानपास्य स तत्रैव जगाम लपितां प्रति।। | 1-255-17a 1-255-17b |
बालान्स तानण्डगतान्सह मात्रा मुनिर्वने। तस्मिन्गते महाभागे लपितां प्रति भारत।। | 1-255-18a 1-255-18b |
अपत्यस्नेहसंयुक्ता जरिता बह्वचिन्तयत्। तेन त्यक्तानसंत्याज्यानृषीनण्डगतान्वने।। | 1-255-19a 1-255-19b |
न जहौ पुत्रशोकार्ता जरिता खाण्डवे सुतान्। बभार चैतान्संजातान्स्ववृत्त्या स्नेहविक्लवा।। | 1-255-20a 1-255-20b |
ततोऽग्निं खाण्डवं दग्धुमायान्तं दृष्टवानृषिः। मन्दपालश्चरंस्तस्मिन्वने लपितया सह।। | 1-255-21a 1-255-21b |
तं संकल्पं विदित्वाग्नेर्ज्ञात्वा पुत्रांश्च बालकान्। सोऽभितुष्टाव विप्रर्षिब्रार्ह्मणो जातवेदसम्।। | 1-255-22a 1-255-22b |
पुत्रान्प्रतिवदन्भीतो लोकपालं महौजसम्। | 1-255-23a |
मन्दपाल उवाच। | 1-255-23x |
त्वमग्ने सर्वलोकानां मुखं त्वमसि हव्यवाट्।। | 1-255-23b |
त्वमन्तः सर्वभूतानां गूढश्चरसि पावक। त्वामेकमाहुः कवयस्त्वामाहुस्त्रिविधं पुनः।। | 1-255-24a 1-255-24b |
त्वामष्टधा कल्पयित्वा यज्ञवाहमकल्पयन्। त्वया विश्वमिदं सृष्टं वदन्ति परमर्षयः।। | 1-255-25a 1-255-25b |
त्वदृते हि जगत्कृत्स्नं सद्यो नश्येद्धुताशन। तुभ्यं कृत्वा नमो विप्राः स्वकर्मविजितां गतिम्।। | 1-255-26a 1-255-26b |
गच्छन्ति सह पत्नीभिः सुतैरपि च शाश्वतीम्। त्वामग्ने जलदानाहुः खेविषक्तान्सविद्युतः।। | 1-255-27a 1-255-27b |
दहन्ति सर्वभूतानि त्वत्तो निष्क्रम्य हेतयः। जातवेदस्त्वयैवेदं विश्वं सृष्टं महाद्युते।। | 1-255-28a 1-255-28b |
तवैव कर्मविहितं भूतं सर्वं चराचरम्। त्वयापो विहिताः पूर्वं त्वयि सर्वमिदं जगत्।। | 1-255-29a 1-255-29b |
त्वयि हव्यं च कव्यं च यथावत्संप्रतिष्ठितम्। त्वमेव दहनो देव त्वं धाता त्वं बृहस्पतिः।। | 1-255-30a 1-255-30b |
त्वमश्विनौ यमौ मित्रः सोमस्त्वमसि चानिलः। | 1-255-31a |
वैशंपायन उवाच। | 1-255-31x |
एवं स्तुतस्तदा तेन मन्दपालेन पावकः।। | 1-255-31b |
तुतोष तस्य नृपते मुनेरमिततेजसः। उवाच चैनं प्रीतात्मा किमिष्टं करवाणि ते।। | 1-255-32a 1-255-32b |
तमब्रवीन्मन्दपालः प्राञ्जलिर्हव्यवाहनम्। प्रदहन्खाण्डवं दावं मम पुत्रान्विसर्जय।। | 1-255-33a 1-255-33b |
तथेति तत्प्रतिश्रुत्य भगवान्हव्यवाहनः। खाण्डवे तेन काले न प्रजज्वाल दिदक्षया।। | 1-255-34a 1-255-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि मयदर्शनपर्वणि पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 255 ।। |
1-255-23 पुत्राणां दहनाद्भीतो इति ङ. पाठः।।
पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 255 ।।
आदिपर्व-254 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-256 |