महाभारतम्-01-आदिपर्व-231
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सुन्दोपसुन्दकृतोपद्रवं निवेद्य देवादिभिः प्रार्थितेन ब्रह्मणा आज्ञप्तेन विश्वकर्मणा तिलोत्तमासृष्टिः।। 1 ।।
तिलोत्तमया ब्रह्माज्ञास्वीकारः।। 2 ।।
ततो देवर्षयः सर्वे सिद्धाश्च परमर्षयः। जग्मुस्तदा परमार्तिं दृष्ट्वा तत्कदनं महत्।। | 1-231-1a 1-231-1b |
तेऽभिजग्मुर्जितक्रोधा जितात्मानो जितेन्द्रियाः। पितामहस्य भनं जगतः कृपया तदा।। | 1-231-2a 1-231-2b |
ततो ददृशुरासीनं सह देवैः पितामहम्। सिद्धैर्ब्रह्मर्षिभिश्चैव समन्तात्परिवारितम्।। | 1-231-3a 1-231-3b |
तत्र देवो महादेवस्तत्राग्निर्वायुना सह। चन्द्रादित्यौ च शक्रश्च पारमेष्ठ्यास्तथर्षयः।। | 1-231-4a 1-231-4b |
वैखानसा वालखिल्या वानप्रस्था मरीचिपाः। अजाश्चैवाविमूढाश्च तेजोगर्भास्तपस्विनः।। | 1-231-5a 1-231-5b |
ऋषयः सर्व एवैते पितामहमुपागमन्। ततोऽभिगम्य ते दीनाः सर्व एव महर्षयः।। | 1-231-6a 1-231-6b |
सुन्दोपसुन्दयौः कर्म सर्वमेव शशंसिरे। यथा हृतं यथा चैव कृतं येन क्रमेण च।। | 1-231-7a 1-231-7b |
न्यवेदयंस्ततः सर्वमखिलेन पितामहे। ततो देवगणाः सर्वे ते चैव परमर्षयः।। | 1-231-8a 1-231-8b |
तमेवार्थं पुरस्कृत्य पितामहमचोदयन्। ततः पितामहः श्रुत्वा सर्वेषां तद्वचस्तदा।। | 1-231-9a 1-231-9b |
मुहूर्तमिव संचिन्त्य कर्तव्यस्य च निश्चयम्। तयोर्वधं समुद्दिश्य विश्वकर्माणमाह्वयत्।। | 1-231-10a 1-231-10b |
दृष्ट्वा च विश्वकर्माणं व्यादिदेश पितामहः। सृज्यतां प्रार्थनीयैका प्रमदेति महातपाः।। | 1-231-11a 1-231-11b |
पितामहं नमस्कृत्य तद्वाक्यमभिनन्द्य च। निर्ममे योषितं दिव्यां चिन्तयित्वा पुनःपुनः।। | 1-231-12a 1-231-12b |
त्रिषु लोकेषु यत्किंचिद्भूतं स्थावरजङ्गमम्। समानयद्दर्शनीयं तत्तदत्र स विश्ववित्।। | 1-231-13a 1-231-13b |
कोटिशश्चैव रत्नानि तस्या गात्रे न्यवेशत्। तां रत्नसङ्घातमयीमसृजद्देवरूपिणीम्।। | 1-231-14a 1-231-14b |
सा प्रयत्नेन महता निर्मिता विश्वकर्मणा। त्रिषु लोकेषु नारीणां रूपेणाप्रतिमाभवत्।। | 1-231-15a 1-231-15b |
न तस्याः सूक्ष्ममप्यस्ति यद्गात्रे रूपसंपदा। नियुक्ता यत्र वा दृष्टिर्न सज्जति निरीक्षताम्।। | 1-231-16a 1-231-16b |
सा विग्रहवतीव श्रीः कामरूपा वपुष्मती। `पितामहमुपातिष्ठत्किं करोमीति चाब्रवीत्।। | 1-231-17a 1-231-17b |
प्रीतो भूत्वा स दृष्ट्वैव प्रीत्या चास्यै वरं ददौ। कान्तत्वं सर्वभूतानां साश्रियानुत्तमं वपुः।। | 1-231-18a 1-231-18b |
सा तेन वरदानेन कर्तुश्च क्रियया तदा।' जहार सर्वभूतानां चक्षूंषि च मनांसि च।। | 1-231-19a 1-231-19b |
तिलंतिलं समानीय रत्नानां यद्विनिर्मिता। तिलोत्तमेति तत्तस्या नाम चक्रे पितामहः।। | 1-231-20a 1-231-20b |
ब्रह्माणं सा नमस्कृत्य प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्। किं कार्यं मयि भूतेश येनास्म्यद्येह निर्मिता।। | 1-231-21a 1-231-21b |
पितामह उवाच। | 1-231-22x |
गच्छ सुन्दोपसुन्दाभ्यामसुराभ्यां तिलोत्तमे। प्रार्थनीयेन रूपेण कुरु भद्रे प्रलोभनम्।। | 1-231-22a 1-231-22b |
त्वत्कृते दर्शादेव रूपसंपत्कृतेन वै। विरोधः स्याद्यथा ताभ्यामन्योन्येन तथा कुरु।। | 1-231-23a 1-231-23b |
नारद उवाच। | 1-231-24x |
सा तथेति प्रतिज्ञाय नमस्कृत्य पितामहम्। चकार मण्डलं तत्र विबुधानां प्रदक्षिणम्।। | 1-231-24a 1-231-24b |
प्राङ्मुखो भगवानास्ते दक्षिणेन महेश्वरः। देवाश्चैवोत्तरेणासन्सर्वतस्त्वृषयोऽभवन्।। | 1-231-25a 1-231-25b |
कुर्वन्त्यां तु तदा तत्र मण्डलं तत्प्रदक्षिणम्। इन्द्रः स्थाणुश्च भगवान्धैर्येण तु परिच्युतौ।। | 1-231-26a 1-231-26b |
द्रष्टुकामस्य चात्यर्थं गतायां पार्श्वतस्तथा। अन्यदञ्चितपद्माक्षं दक्षिणं निःसृतं मुखम्।। | 1-231-27a 1-231-27b |
पृष्ठतः परिवर्तन्त्यां पश्चिमं निःसृतं मुखम्। गतायां चोत्तरं पार्श्वमुत्तरं निःसृतं मुखम्।। | 1-231-28a 1-231-28b |
महेन्द्रस्यापि नेत्राणां पृष्ठतः पार्श्वतोग्रतः। रक्तान्तानां विशालानां सहस्रं सर्वतोऽभवत्।। | 1-231-29a 1-231-29b |
एवं चतुर्मुखः स्थाणुर्महादेवोऽभवत्पुरा। तथा सहस्रनेत्रश्च बभूव बलसूदनः।। | 1-231-30a 1-231-30b |
तथा देवनिकायानां महर्षीणां च सर्वशः। मुखानि चाभ्यवर्तन्त येन याति तिलोत्तमा।। | 1-231-31a 1-231-31b |
तस्या गात्रे निपतिता दृष्टिस्तेषां महात्मनाम्। सर्वेषामेव भूयिष्ठमृते देवं पितामहम्।। | 1-231-32a 1-231-32b |
गच्छन्त्यां तु तया सर्वे देवाश्च परमर्षयः। कृतमित्येव तत्कार्यं मेनिरे रूपसंपदा।। | 1-231-33a 1-231-33b |
तिलोत्तमायां तस्यां तु गतायां लोकभावनः। `कृतं कार्यमिति श्रीमानब्रवीच्च पितामहः।' सर्वान्विसर्जयामास देवानृषिगणांश्च तान्।। | 1-231-34a 1-231-34b 1-231-34c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि एकत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 231 ।। |
1-231-23 ताभ्यां तयोः।।
1-231-31 देवनिकायानां देवसङ्घानां येन देशेन मार्गेण सा याति तथा मुखान्यभ्यवर्तन्त।। एकत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 231 ।।
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