महाभारतम्-01-आदिपर्व-126
दिखावट
← आदिपर्व-125 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-126 वेदव्यासः |
आदिपर्व-127 → |
विदुरस्य विवाहः पुत्रोत्पत्तिश्च।। 1 ।।
व्यासस्य वरेण गान्धार्यां धृतराष्ट्राद्गर्भोत्पत्तिः।। 2 ।।
पाण्डोः पुत्रोत्पत्तौ चिन्ता।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-126-1x |
अथ पारसवीं कन्यां देवकस्य महीपतेः। रूपयौवनसंपन्नां स सुश्रावापगासुतः।। | 1-126-1a 1-126-1b |
ततस्तु वरयित्वा तामानीय भरतर्षभः। विवाहं कारयामास विदुरस्य महामतेः।। | 1-126-2a 1-126-2b |
तस्यां चोत्पादयामास विदुरः कुरुनन्दन। पुत्रान्विनयसंपन्नानात्मनः सदृशान्गुणैः।। | 1-126-3a 1-126-3b |
ततः पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्या जनमेजय। धृतराष्ट्रस्य वैश्यायामेकश्चापि शतात्परः।। | 1-126-4a 1-126-4b |
पाण्डोः कृन्त्यां च माद्र्यां च पुत्राः पञ्च महारथाः। देवेभ्यः समपद्यन्त सन्तानाय कुलस्य वै।। | 1-126-5a 1-126-5b |
जनमेजय उवाच। | 1-126-6x |
कथं पुत्रशतं जज्ञे गान्धार्यां द्विजसत्तम। कियता चैव कालेन तेषामायुश्च किं परम्।। | 1-126-6a 1-126-6b |
कथं चैकः स वैश्यायां धृतराष्ट्रसुतोऽभवत्। कथं च सदृशीं भार्यां गान्धारीं धर्मचारिणीम्।। | 1-126-7a 1-126-7b |
आनुकूल्ये वर्तमानां धृतराष्ट्रोऽत्यवर्तत। कथं च शप्तस्य सतः पाण्डोस्तेन महात्मना।। | 1-126-8a 1-126-8b |
समुत्पन्ना दैवतेभ्यः पुत्राः पञ्च महारथाः। एतद्विद्वन्यथान्यायं विस्तरेण तपोधन।। | 1-126-9a 1-126-9b |
कथयस्व न मे तृप्तिः कथ्यमानेषु बन्धुषु। | 1-126-10a |
वैशंपायन उवाच। | 1-126-10x |
ऋषिं बुभुक्षितं श्रान्तं द्वैपायनमुपस्थितम्।। | 1-126-10b |
तोषयामास गान्धारी व्यासस्तस्यै वरं ददौ। सा वव्रे सदृशं भर्तुः पुत्राणां शतमात्मनः।। | 1-126-11a 1-126-11b |
ततः कालेन सा गर्भमगृह्णाज्ज्ञानचक्षुषः।। | 1-126-12a |
गान्धार्यामाहिते गर्भे पाण्डुरम्बालिकासुतः। अगच्छत्परमं दुःखमपत्यार्थमरिन्दम।। | 1-126-13a 1-126-13b |
गर्भिण्यामथ गान्धार्यां पाण्डुः परमदुःखितः। मृगाभिशापादात्मानं शोचन्नुपरतक्रियः।। | 1-126-14a 1-126-14b |
स गत्वा तपसा सिद्धिं विश्वामित्रो यथा भुवि। देहान्यासे कृतमना इदं वचनमब्रवीत्।। | 1-126-15a 1-126-15b |
पाण्डुरुवाच। | 1-126-16x |
चतुर्भिर्ऋणवानित्थं जायते मनुजो भुवि। पितृदेवमनुष्याणामृषीणामथ भामिनि।। | 1-126-16a 1-126-16b |
एतेभ्यस्तु यथाकालं यो न मुच्येत धर्मवित्। न तस्य लोकाः सन्तीति तता लोकविदो विदुः।। | 1-126-17a 1-126-17b |
यज्ञेन देवान्प्रीणाति स्वाध्यायात्तपसा ऋषीन्। पुत्रैः श्राद्धैरपि पितॄनानृशंस्येन मानवान्।। | 1-126-18a 1-126-18b |
ऋषिदेवमनुष्याणामृणान्मुक्तोऽस्मि धर्मतः। पितॄणां तु न मुक्तोऽस्मि तच्च तेभ्यो विशिष्यते।। | 1-126-19a 1-126-19b |
देहनाशे भवेन्नाशः पितॄणामेष निश्चयः। इतरेषां त्रयाणां तु नाशे ह्यात्मा विनश्यति।। | 1-126-20a 1-126-20b |
इह तस्मात्प्रजालाभे प्रयतन्ते द्विजोत्तमाः। यथैवाहं पितुः क्षेत्रे सृष्टस्तेन महात्मना।। | 1-126-21a 1-126-21b |
तथैवास्मिन्मम क्षेत्रे कथं सृज्येत वै प्रजा। | 1-126-22a |
वैशंपायन उवाच। | 1-126-22x |
स समानीय कुन्तीं च माद्रीं च भरतर्षभः।। | 1-126-22b |
आचष्ट पुत्रलाभस्य व्युष्टिं सर्वक्रियाधिकाम्। उत्तमादवराः पुंसः काङ्क्षन्तो पुत्रमापदि।। | 1-126-23a 1-126-23b |
अपत्यं धर्मफलदं श्रेष्ठादिच्छन्ति साधवः। अनुनीय तु ते सम्यङ्महाब्राह्मणसंसदि। ब्राह्मणं गुणवन्तं हि चिन्तयामास धर्मवित्।। | 1-126-24a 1-126-24b 1-126-24c |
सोऽब्रवीद्विजने कुन्तीं धर्मपत्नीं यशस्विनीम्। अपत्योत्पादने यत्नमापदि त्वं समर्थय।। | 1-126-25a 1-126-25b |
अपत्यं नाम लोकेषु प्रतिष्ठा धर्मसंहिता। इति कुन्ति विदुर्धीराः शाश्वतं धर्मवादिनः।। | 1-126-26a 1-126-26b |
इष्टं दत्तं तपस्तप्तं नियमश्च स्वनुष्ठितः। सर्वमेवानपत्यस्य न पावनमिहोच्यते।। | 1-126-27a 1-126-27b |
सोऽहमेवं विदित्वैतत्प्रपश्यामि शुचिस्मिते। अनपत्यः शुभाँल्लोकान्नप्राप्स्यामीति चिन्तयन्।। | 1-126-28a 1-126-28b |
`अनपत्यो हि मरणं कामये नैव जीवितम्।' मृगाभिशापं जानासि विजने मम केवलम्। नृशंसकर्मणा कृत्स्नं यथा ह्युपहतं तथा।। | 1-126-29a 1-126-29b 1-126-29c |
इमे वै बन्धुदायादाः षट् पुत्रा धर्मदर्शने। षडेवाबन्धुदायादाः पुत्रास्ताञ्छृणु मे पृथे।। | 1-126-30a 1-126-30b |
स्वयंजातः प्रणीतश्च परिक्रीतश्च यः सुतः। पौनर्भवश्च कानीनः स्वैरिण्यां यश्च जायते।। | 1-126-31a 1-126-31b |
दत्तः क्रीतः कृत्रिमश्च उपगच्छेत्स्वयं च यः। सहोढो ज्ञातिरेताश्च हीनयोनिधृतश्च यः।। | 1-126-32a 1-126-32b |
पूर्वपूर्वतमाभावं मत्त्वा लिप्सेत वै सुतम्। उत्तमाद्देवरात्पुंसः काङ्क्षन्ते पुत्रमापदि।। | 1-126-33a 1-126-33b |
अपत्यं धर्मफलदं श्रेष्ठं विन्दन्ति मानवाः। आत्मशुक्रादपि पृथे मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्।। | 1-126-34a 1-126-34b |
तस्मात्प्रहेष्याम्यद्य त्वां हीनः प्रजननात्स्वयम्।। | 1-126-35a |
सदृशाच्छ्रेयसो वा त्वं विद्ध्यपत्यं यशस्विनि। शृणु कुन्ति कथामेतां शारदण्डायिनीं प्रति।। | 1-126-36a 1-126-36b |
`या हि ते भगिनी साध्वी श्रुतसेना यशस्विनी। अवाह तां तु कैकेयः शारदाण्डायनिर्महान्।।' | 1-126-37a 1-126-37b |
सा वीरपत्नी गुरुणा नियुक्ता पुत्रजन्मनि। पुष्पेण प्रयता स्नाता निशि कुन्ति चतुष्पथे।। | 1-126-38a 1-126-38b |
वरयित्वा द्विजं सिद्धं हुत्वा पुंसवनेऽनलम्। कर्मण्यवसिते तस्मिन्सा तेनैव सहावसत्।। | 1-126-39a 1-126-39b |
तत्र त्रीञ्जनयामास दुर्जयादीन्महारथान्। तथा त्वमपि कल्याणि ब्राह्मणात्तपसाधिकात्। मन्नियोगाद्यत क्षिप्रमपत्योत्पादनं प्रति।। | 1-126-40a 1-126-40b 1-126-40c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि षड्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 126 ।। |
1-126-26 धर्मसंहिता धर्ममयी।। 1-126-30 धर्मदर्शने धर्मशास्त्रे उक्ता इति शेषः। बन्धुदायादारिक्थहराः। अबन्धुदायादास्तदन्ये।। 1-126-35 प्रहेष्यामि गतिवृद्धिकर्मणो हिनोते रूपम्। अद्येति क्षिप्रवचनसंयोगाल्लृट्। त्वां शरणं गतोऽस्मि वर्धयामि वेति चार्थः।। 1-126-36 विद्धि लभस्व। शारदण्डायनेर्भार्याम्।। 1-126-38 गुरुणा भर्त्रा। पुष्पेण आर्तवेन निमित्तेन स्नाता।। 1-126-40 यत यतस्व।। षड्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 126 ।।
आदिपर्व-125 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-127 |