महाभारतम्-01-आदिपर्व-234
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ब्राह्मणैः सह तीर्थान्यटतोऽर्जुनस्य स्नानार्थं गङ्गायामवतरणम्।। 1 ।।
तत्र उलूप्या नागकन्यया गृहीतस्यार्जुनस्य नागलोकगमनम्।। 2 ।।
संवादपूर्वकमुलूप्याः परिग्रहः।। 3 ।।
इरावत उत्पत्तिः।। 4 ।।
अर्जुनं पुनर्गङ्गाद्वारमुपनीय उलूप्या स्वलोकगमनम्।। 5 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-234-1x |
तं प्रयान्तं महाबाहुं कौरवाणां यशस्करम्। अनुजग्मुर्महात्मानो ब्राह्मणा वेदपारगाः।। | 1-234-1a 1-234-1b |
वेदवेदाङ्गविद्वासस्तथैवाध्यात्मचिन्तकाः। भैक्षाश्च भगवद्भक्ताः सूताः पौराणिकाश्च ये।। | 1-234-2a 1-234-2b |
कथकाश्चापरे राजञ्श्रमणाश्च वनौकसः। दिव्याख्यानानि ये चापि पठन्ति मधुरं द्विजाः।। | 1-234-3a 1-234-3b |
एतैश्चान्यैश्च बहुभिः सहायैः पाण्डुनन्दनः। वृतः श्लक्ष्णकथैः प्रायान्मरुद्भिरिव वासवः।। | 1-234-4a 1-234-4b |
रमणीयानि चित्राणि वनानि च सरांसि च। सरितः सागरांश्चैव देशानपि च भारत।। | 1-234-5a 1-234-5b |
पुण्यान्यपि च तीर्थानि ददर्श भरतर्षभः। स गङ्गाद्वारमाश्रित्य निवेशमकरोत्प्रभुः।। | 1-234-6a 1-234-6b |
तत्र तस्याद्भुतं कर्म शृणु त्वं जनमेजय। कृतवान्यद्विशुद्धात्मा पाण्डूनां प्रवरो हि सः।। | 1-234-7a 1-234-7b |
निविष्टे तत्र कौन्तेये ब्राह्मणेषु च भारत। अग्निहोत्राणि विप्रास्ते प्रादुश्चक्रुरनेकशः।। | 1-234-8a 1-234-8b |
तेषु प्रबोध्यमानेषु ज्वलितेषु हुतेषु च। कृतपुष्पोपहारेषु तीरान्तरगतेषु च।। | 1-234-9a 1-234-9b |
कृताभिषेकैर्विद्वद्भिर्नियतैः सत्पथे स्थितैः। शुशुभेऽतीव तद्राजन्गङ्गाद्वारं महात्मभिः।। | 1-234-10a 1-234-10b |
तथा पर्याकुले तस्मिन्निवेशे पाण्डवर्षभः। अभिषेकाय कौन्तेयो गङ्गामवततार ह।। | 1-234-11a 1-234-11b |
तत्राभिषेकं कृत्वा स तर्पयित्वा पितामहान्। उत्तितीर्षुर्जलाद्राजन्नग्निकार्यचिकीर्षया।। | 1-234-12a 1-234-12b |
अपकृष्टो महाबाहुर्नागराजस्य कन्यया। अन्तर्जले महाराज उलूप्या कामयानया।। | 1-234-13a 1-234-13b |
ददर्श पाण्डवस्तत्र पावकं सुसमाहितः। कौरव्यस्याथ नागस्य भवने परमार्चिते।। | 1-234-14a 1-234-14b |
तत्राग्निकार्यं कृतवान्कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। अशङ्कमानेन हुतस्तेनातुष्यद्धुताशनः।। | 1-234-15a 1-234-15b |
अग्निकार्यं स कृत्वा तु नागराजसुतां तदा। प्रसहन्निव कौन्तेय इदं वचनमब्रवीत्।। | 1-234-16a 1-234-16b |
किमिदं साहसं भीरु कृतवत्यसि भामिनि। कश्चायं सुभगे देशः का च त्वं कस्य वात्मजा।। | 1-234-17a 1-234-17b |
उलूप्युवाच। | 1-234-18x |
ऐरावतकुले जातः कौरव्यो नाम पन्नगः। तस्यास्मि दुहिता राजन्नुलूपी नाम पन्नगी।। | 1-234-18a 1-234-18b |
साऽहं त्वामभिषेकार्थमवतीर्णं समुद्गाम्। दृष्ट्वैव पुरुषव्याघ्र कन्दर्पेणाभिमूर्च्छिता।। | 1-234-19a 1-234-19b |
तां मामनङ्गग्लपितां त्वत्कृते कुरुनन्दन। अनन्यां नन्दयस्वाद्य प्रदानेनात्मनोऽनघ।। | 1-234-20a 1-234-20b |
अर्जुन उवाच। | 1-234-21x |
ब्रह्मचर्यमिदं भद्रे मम द्वादशमासिकम्। धर्मराजेन चादिष्टं नाहमस्मि स्वयं वशः।। | 1-234-21a 1-234-21b |
तव चापि प्रियं कर्तुमिच्छामि जलचारिणि। अनृतं नोक्तपूर्वं च मया किंचन कर्हिचित्।। | 1-234-22a 1-234-22b |
कथं च नानृतं मे स्यात्तव चापि प्रियं भवेत्। न च पीड्येत मे धर्मस्तथा कुर्या भुजङ्गमे।। | 1-234-23a 1-234-23b |
उलूप्युवाच। | 1-234-24x |
जानाम्यहं पाण्डवेय यथा चरसि मेदिनीम्। यथा च ते ब्रह्मचर्यमिदमादिष्टवान्गुरुः।। | 1-234-24a 1-234-24b |
परस्परं वर्तमानान्द्रुपदस्यात्मजां प्रति। यो नोऽनुप्रविशेन्मोहात्स वै द्वादशमासिकम्।। | 1-234-25a 1-234-25b |
वने चरेद्ब्रह्मचर्यमिति वः समयः कृतः। तदिदं दौपदीहेतोरन्योन्यस्य प्रवासनम्।। | 1-234-26a 1-234-26b |
कृतवांस्तत्र धर्मार्थमत्र धर्मो न दुष्यति। परित्राणं च कर्तव्यमार्तानां पृथुलोचन।। | 1-234-27a 1-234-27b |
कृत्वा मम परित्राणं तव धर्मो न लुप्यते। यदि वाप्यस्य धर्मस्य सूक्ष्मोऽपि स्याद्व्यतिक्रमः।। | 1-234-28a 1-234-28b |
स च ते धर्म एव स्याद्दत्वा प्राणान्ममार्जुन। भक्तां च भज मां पार्थ सतामेतन्मतं प्रभो।। | 1-234-29a 1-234-29b |
न करिष्यसि चेदेवं मृतां मामुपधारय। प्राणदानान्महाबाहो चर धर्ममनुत्तमम्।। | 1-234-30a 1-234-30b |
शरणं च प्रपन्नास्मि त्वामद्य पुरुषोत्तम। दीनाननाथान्कौन्तेय परिरक्षसि नित्यशः।। | 1-234-31a 1-234-31b |
साऽहं शऱणमभ्येमि रोरवीमि च दुःखिता। याचे त्वां चाभिकामाहं तस्मात्कुरु मम प्रियम्। स त्वमात्मप्रदानेन सकामां कर्तुमर्हसि।। | 1-234-32a 1-234-32b 1-234-32c |
वैशंपायन उवाच। | 1-234-33x |
एवमुक्तस्तु कौन्तेयः पन्नगेश्वरकन्यया। कृतवांस्तत्तथा सर्वं धर्ममुद्दिश्य कारणम्।। | 1-234-33a 1-234-33b |
स नागभवने रात्रिं तामुषित्वा प्रतापवान्। `पुत्रमुत्पादयामास स तस्यां सुमनोहरम्।। | 1-234-34a 1-234-34b |
इरावन्तं महाभागं महाबलपराक्रमम्।' उदितेऽभ्युत्थितः सूर्ये कौरव्यस्य निवेशनात्।। | 1-234-35a 1-234-35b |
आगतस्तु पुनस्तत्र गङ्गाद्वारं तया सह। परित्यज्य गता साध्वी उलूपी निजमन्दिरं।। | 1-234-36a 1-234-36b |
दत्त्वा वरमजेयत्वं जले सर्वत्र भारत। साध्या जलचराः सर्वे भविष्यन्ति न संशयः।। | 1-234-37a 1-234-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि अर्जुनवनवासपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 234 ।। |
1-234-36 परिष्वज्येति ख. पाठः।।
चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 234 ।।
आदिपर्व-233 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-235 |