महाभारतम्-01-आदिपर्व-070
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ययात्युपाख्यानारम्भः।। 1 ।। सञ्जीवनीविद्यालाभार्थं देवैः शुक्रसमीपे कचस्य प्रेषणम्।। 2 ।। कचस्य शिष्यत्वेनाङ्गीकारः।। 3 ।। दैत्यैर्हतस्य कचस्योज्जीवनम्।। 4 ।। दैत्यैर्भस्मीकृत्य तन्मिश्रितसुराद्वारा स्वकुक्षिं प्रापितस्य कचस्य शुक्रेण विद्यादानपूर्वकमुज्जीवनम्।। 5 ।। शुक्रेण सुरापाननिषेधः।। 6 ।।
जनमेजय उवाच। | 1-70-1x |
ययातिः पूर्वजोऽस्माकं दशमो यः प्रजापतेः। कथं स शुक्रतनयां लेभे परमदुर्लभाम्।। | 1-70-1a 1-70-1b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण तपोधन। आनुपूर्व्या च मे शंस राज्ञो वंशकरान्पृथक्।। | 1-70-2a 1-70-2b |
वैशंपायन उवाच। | 1-70-3x |
ययातिरासीन्नृपतिर्देवराजसमद्युतिः। तं शुक्रवृषपर्वाणौ वव्राते वै यथा पुरा।। | 1-70-3a 1-70-3b |
तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि पृच्छते जनमेजय। देवयान्याश्च संयोगं ययातेर्नाहुषस्य च।। | 1-70-4a 1-70-4b |
सुराणामसुराणां च समजायत वै मिथः। ऐश्वर्यं प्रति संघर्षस्त्रैलोक्ये सचराचरे।। | 1-70-5a 1-70-5b |
जिगीषया ततो देवा वव्रिरेऽङ्गिरसं मुनिम्। पौरोहित्येन याज्यार्थे काव्यं तूशनसं परे।। | 1-70-6a 1-70-6b |
ब्राह्मणौ तावुभौ नित्यमन्योन्यस्पर्धिनौ भृशम्। तत्र देवा निजघ्नुर्यान्दानवान्युधि संगतान्।। | 1-70-7a 1-70-7b |
तान्पुनर्जीवयामास काव्यो विद्याबलाश्रयात्। ततस्ते पुनरुत्थाय योधयांचक्रिरे सुरान्।। | 1-70-8a 1-70-8b |
असुरास्तु निजघ्नुर्यान्सुरान्समरमूर्धनि। न तान्सञ्जीवयामास बृहस्पतिरुदारधीः।। | 1-70-9a 1-70-9b |
न हि वेद स तां विद्यां यां काव्योवेत्ति वीर्यवान्। सञ्जीविनीं ततो देवा विषादमगमन्परम्।। | 1-70-10a 1-70-10b |
ते तु देवा भयोद्विग्नाः काव्यादुशनसस्तदा। ऊचुः कचमुपागम्य ज्येष्ठं पुत्रं बृहस्पतेः।। | 1-70-11a 1-70-11b |
भजमानान्भजस्वास्मान्कुरु नः साह्यमुत्तमम्। या सा विद्या निवसति ब्राह्मणेऽमिततेजसि।। | 1-70-12a 1-70-12b |
शुक्रे तामाहर क्षिप्रं भागभाङ्गो भविष्यसि। वृषपर्वसमीपे हि शक्यो द्रष्टुं त्वया द्विजः।। | 1-70-13a 1-70-13b |
रक्षते दानवांस्तत्र न स रक्षत्यदानवान्। तमाराधयितुं शक्तो भवान्पूर्ववयाः कविम्।। | 1-70-14a 1-70-14b |
देवयानीं च दयितां सुतां तस्य महात्मनः। त्वमाराधयितुं शक्तो नान्यः कश्चन विद्यते।। | 1-70-15a 1-70-15b |
शीलदाक्षिण्यमाधुर्यैराचारेण दमेन च। देवयान्यां हि तुष्टायां विद्यां तां प्राप्स्यसि ध्रुवम्।। | 1-70-16a 1-70-16b |
वैशंपायन उवाच। | 1-70-17x |
तथेत्युक्त्वा ततः प्रायाद्बृहस्पतिसुतः कचः। तदाऽभिपूजितो देवैः समीपे वृषपर्वणः।। | 1-70-17a 1-70-17b |
स गत्वा त्वरितो राजन्देवैः संप्रेषितः कचः। असुरेन्द्रपुरे शुक्रं दृष्ट्वा वाक्यमुवाच ह।। | 1-70-18a 1-70-18b |
ऋषेरङ्गिरसः पौत्रं पुत्रं साक्षाद्बृहस्पतेः। नाम्ना कच इति ख्यातं शिष्यं गृह्णात् मां भवान्।। | 1-70-19a 1-70-19b |
ब्रह्मचर्यं चरिष्यामि त्वय्यहं परमं गुरौ। अनुमन्यस्व मां ब्रह्मन्सहस्रं परिवत्सरान्।। | 1-70-20a 1-70-20b |
शुक्र उवाच। | 1-70-21x |
कच सुस्वागतं तेऽस्तु प्रतिगृह्णामि ते वचः। अर्चयिष्येऽहमर्च्यं त्वामर्चितोऽस्तु बृहस्पतिः।। | 1-70-21a 1-70-21b |
वैशंपायन उवाच। | 1-70-22x |
कचस्तु तं तथेत्युक्त्वा प्रतिजग्राह तद्व्रतम्। आदिष्टं कविपुत्रेण शुक्रेणोशनसा स्वयम्।। | 1-70-22a 1-70-22b |
व्रतस्य प्राप्तकालं स यथोक्तं प्रत्यगृह्णत। आराधयन्नुपाध्यायं देवयानीं च भारत।। | 1-70-23a 1-70-23b |
नित्यमाराधयिष्यंस्तां युवा यौवनगां मुनिः। गायन्नृत्यन्वादयंश्च देवयानीमतोषयत्।। | 1-70-24a 1-70-24b |
स शीलयन्देवयानीं कन्यां संप्राप्तयौवनाम्। पुष्पैः फलैः प्रेषणैश्च तोषयामास भारत।। | 1-70-25a 1-70-25b |
देवयान्यपि तं विप्रं नियमव्रतधारिणम्। गायन्ती च ललन्ती च रहः पर्यचरत्तथा।। | 1-70-26a 1-70-26b |
`गायन्तं चैव शुल्कं च दातारं प्रियवादिनम्। नार्यो नरं कामयन्ते रूपिणं स्रग्विणं तथा।।' | 1-70-27a 1-70-27b |
पञ्चवर्षशतान्येवं कचस्य चरतो व्रतम्। तत्रातीयुरथो बुद्ध्वा दानवास्तं ततः कचम्।। | 1-70-28a 1-70-28b |
गा रक्षन्तं वने दृष्ट्वा रहस्येकममर्षिताः। जघ्नुर्बृहस्पतेर्द्वेषाद्विद्यारक्षार्थमेव च।। | 1-70-29a 1-70-29b |
हत्वा शालावृकेभ्यश्च प्रायच्छँल्लवशः कृतम्। ततो गावो निवृत्तास्ता अगोपाः स्वं निवेशनम्।। | 1-70-30a 1-70-30b |
सा दृष्ट्वा रहिता गाश्च कचेनाभ्यागता वनात्। उवाच वचनं काले देवयान्यथ भारत।। | 1-70-31a 1-70-31b |
देवयान्युवाच। | 1-70-32x |
आहुतं चाग्निहोत्रं ते सूर्यश्चास्तं गतः प्रभो। अगोपाश्चागता गावः कचस्तात न दृश्यते।। | 1-70-32a 1-70-32b |
व्यक्तं हतो मृतो वापि कचस्तात भविष्यति। तं विना न च जीवेयमिति सत्यं ब्रवीमि ते।। | 1-70-33a 1-70-33b |
शुक्र उवाच। | 1-70-34x |
अयमेहीति संशब्द्य मृतं संजीवयाम्यहम्। | 1-70-34a |
वैशंपायन उवाच। | 1-70-34x |
ततः संजीविनीं विद्यां प्रयुज्य कचमाह्वयत्।। | 1-70-34b |
भित्त्वा भित्त्वा शरीराणि वृकाणां स विनिर्गतः। आहूतः प्रादुरभवत्कचो हृष्टोऽथ विद्यया।। | 1-70-35a 1-70-35b |
कस्माच्चिरायितोऽसीति पृष्टस्तामाह भार्गवीम्। | 1-70-36a |
कच उवाच। | 1-70-36x |
समिधश्च कुशादीनि काष्ठभारं च भामिनि।। | 1-70-36b |
गृहीत्वा श्रमभारार्तो वटवृक्षं समाश्रितः। गावश्च सहिताः सर्वा वृक्षच्छायामुपाश्रिताः।। | 1-70-37a 1-70-37b |
असुरास्तत्र मां दृष्ट्वा कस्त्वमित्यभ्यचोदयन्। बृहस्पतिसुतश्चाहं कच इत्यभिविश्रुतः।। | 1-70-38a 1-70-38b |
इत्युक्तमात्रे मां हत्वा पेषीकृत्वा तु दानवाः। दत्त्वा शालावृकेभ्यस्तु सुखं जग्मुः स्वमालयं।। | 1-70-39a 1-70-39b |
आहूतो विद्यया भद्रे भार्गवेण महात्मना। त्वत्समीपमिहायातः कथंचित्प्राप्तजीवितः।। | 1-70-40a 1-70-40b |
हतोऽहमिति चाचख्यौ पृष्टो ब्राह्मणकन्यया। स पुनर्देवयान्योक्तः पुष्पाण्याहर मे द्विज।। | 1-70-41a 1-70-41b |
वनं ययौ कचो विप्रो ददृशुर्दानवाश्च तम्। पुनस्तं पेषयित्वा तु समुद्राम्भस्यमिश्रयन्।। | 1-70-42a 1-70-42b |
चिरं गतं पुनः कन्या पित्रे तं संन्यवेदयत्। विप्रेण पुनराहूतो विद्यया गुरुदेहजः। पुनरावृत्य तद्वृत्तं न्यवेदयत तद्यथा।। | 1-70-43a 1-70-43b 1-70-43c |
ततस्तृतीयं हत्वा तं दग्ध्वा कृत्वा च चूर्णशः। प्रायच्छन्ब्राह्मणायैव सुरायामसुरास्तथा।। | 1-70-44a 1-70-44b |
`अपिबत्सुरया सार्धं कचभस्म भृगूद्वहः। सा सायन्तनवेलायामगोपा गाः समागताः।। | 1-70-45a 1-70-45b |
देवयानी शङ्कमाना दृष्ट्वा पितरमब्रवीत्।' पुष्पाहारः प्रेषणकृत्कचस्तात न दृश्यते।। | 1-70-46a 1-70-46b |
व्यक्तं हतो मृतो वापि कचस्तात भविष्यति। तं विना न च जीवेयं कचं सत्यं ब्रवीमि ते।। | 1-70-47a 1-70-47b |
`वैशंपायन उवाच। | 1-70-48x |
श्रुत्वा पुत्रीवचः काव्यो मन्त्रेणाहूतवान्कचम्। ज्ञात्वा बहिष्ठमज्ञात्वा स्वकुक्षिस्थं कचं नृप'।। | 1-70-48a 1-70-48b |
शुक्र उवाच। | 1-70-49x |
बृहस्पतेः सुतः पुत्रि कचः प्रेतगतिं गतः। विद्यया जीवितोऽप्येवं हन्यते करवाम किम्।। | 1-70-49a 1-70-49b |
मैवं शुचो मा रुद देवयानि न त्वादृशी मर्त्यमनुप्रशोचते। यस्यास्तव ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च सेन्द्रा देवा वसवोऽथाश्विनौ च।। | 1-70-50a 1-70-50b 1-70-50c 1-70-50d |
सुरद्विषश्चैव जगच्च सर्व- मुपस्थाने सन्नमन्ति प्रभावात्। अशक्योऽसौ जीवयितुं द्विजातिः संजीवितो वध्यते चैव भूयः।। | 1-70-51a 1-70-51b 1-70-51c 1-70-51d |
देवयान्युवाच। | 1-70-52x |
यस्याङ्गिरा वृद्धतमः पितामहो बृहस्पतिश्चापि पिता तपोनिधिः। ऋषेः पुत्रं तमथो वापि पौत्रं कथं न शोचेयमहं न रुद्याम्।। | 1-70-52a 1-70-52b 1-70-52c 1-70-52d |
स ब्रह्मचारी च तपोधनश्च सदोत्थितः कर्मसु चैव दक्षः। कचस्य मार्गं प्रतिपत्स्ये न भोक्ष्ये प्रियो हि मे तात कचोऽभिरूपः।। | 1-70-53a 1-70-53b 1-70-53c 1-70-53d |
शुक्र उवाच। | 1-70-54x |
कं ब्रह्महत्या न दहेदपीन्द्रम्।। | 1-70-54f |
`वैशंपायन उवाच। | 1-70-55x |
संचोदितो देवयान्या महर्षिः पुनराह्वयत्। संरम्भेणैव काव्यो हि बृहस्पतिसुतं कचम्।। | 1-70-55a 1-70-55b |
कचोऽपि राजन्स महानुभावो विद्याबलाल्लब्धमतिर्महात्मा।' गुरोर्हि भीतो विद्यया चोपहूतः। शनैर्वाक्यं जठरे व्याजहार।। | 1-70-56a 1-70-56b 1-70-56c 1-70-56d |
`प्रसीद भगवन्मह्यं कचोऽहमभिवादये। यथा बहुमतः पुत्रस्तथा मन्यतु मां भवान्।।' | 1-70-57a 1-70-57b |
वैशंपायन उवाच। | 1-70-58x |
तमब्रवीत्केन पथोपनीत- स्त्वं चोदरे तिष्ठसि ब्रूहि विप्र। अस्मिन्मुहूर्ते ह्यसुरान्विनाश्य गच्छामि देवानहमद्य विप्र।। | 1-70-58a 1-70-58b 1-70-58c 1-70-58d |
कच उवाच। | 1-70-59x |
तव प्रसादान्न जहाति मां स्मृतिः स्मरामि सर्वं यच्च यथा च वृत्तम्। नत्वेवं स्यात्तपसः संक्षयो मे ततः क्लेशं घोरमिमं सहामि।। | 1-70-59a 1-70-59c 1-70-59d 1-70-59d |
असुरैः सुरायां भवतोऽस्मि दत्तो हत्वा दग्ध्वा चूर्णयित्वा च काव्य। ब्राह्मीं मायां चासुरीं विप्र मायां त्वयि स्थिते कथमेवातिवर्तेत्।। | 1-70-60a 1-70-60b 1-70-60c 1-70-60d |
शुक्र उवाच। | 1-70-61x |
किं ते प्रियं करवाण्यद्य वत्से वधेन मे जीवितं स्यात्कचस्य। नान्यत्र कुक्षेर्मम भेदनेन दृश्येत्कचो मद्गतो देवयानि।। | 1-70-61a 1-70-61b 1-70-61c 1-70-61d |
देवयान्युवाच। | 1-70-62x |
द्वौ मां शोकावग्निकल्पौ दहेतां कचस्य नाशस्तव चैवोपघातः। कचस्य नाशे मम शर्म नास्ति तवोपघाते जीवितुं नास्मि शक्ता।। | 1-70-62a 1-70-62b 1-70-62c 1-70-62d |
शुक्र उवाच। | 1-70-63x |
संसिद्धरूपोऽसि बृहस्पतेः सुत यत्त्वां भक्तं भजते देवयानी। विद्यामिमां प्राप्नुहि जीवनीं त्वं न चेदिन्द्रः कचरूपी त्वमद्य।। | 1-70-63a 1-70-63b 1-70-63c 1-70-63d |
न निवर्तेत्पुनर्जीवन्कश्चिदन्यो ममोदरात्। ब्राह्मणं वर्जयित्वैकं तस्माद्विद्यामवाप्नुहि।। | 1-70-64a 1-70-64b |
पुत्रो भूत्वा भावय भावितो मा- मस्मद्देहादुपनिष्क्रम्य तात। समीक्षेथा धर्मवतीमवेक्षां गुरोः सकाशात्प्राप्य विद्यां सविद्यः।। | 1-70-65a 1-70-65b 1-70-65c 1-70-65d |
वैशंपायन उवाच। | 1-70-66x |
गुरोः सकाशात्समवाप्य विद्यां भित्त्वा कुक्षिं निर्विचक्राम विप्रः। कचोऽभिरूपस्तत्क्षणाद्ब्राह्मणस्य शुक्लात्यये पौर्णमास्यामिवेन्दुः।। | 1-70-66a 1-70-66b 1-70-66c 1-70-66d |
दृष्ट्वा च तं पतितं ब्रह्मराशि- मुत्थापयामास मृतं कचोऽपि। विद्यां सिद्धां तामवाप्याभिवाद्य ततः कचस्तं गुरुमित्युवाच।। | 1-70-67a 1-70-67b 1-70-67c 1-70-67d |
यः श्रोत्रयोरमृतं सन्निषिञ्चे- द्विद्यामविद्यस्य यथा त्वमार्यः। तं मन्येऽहं पितरं मातरं च तस्मै न द्रुह्येत्कृतमस्य जानन्।। | 1-70-68a 1-70-68b 1-70-68c 1-70-68d |
ऋतस्य दातारमनुत्तमस्य निधिं निधीनामपि लब्धविद्याः। ये नाद्रियन्ते गुरुमर्चनीयं पापाँल्लोकांस्ते व्रजन्त्यप्रतिष्ठाः।। | 1-70-69a 1-70-69b 1-70-69c 1-70-69d |
वैशंपायन उवाच। | 1-70-70x |
सुरापानाद्वञ्चनां प्राप्य विद्वा- न्संज्ञानाशं चैव महातिघोरम्। दृष्ट्वा कचं चापि तथाभिरूपं पीतं तदा सुरया मोहितेन।। | 1-70-70a 1-70-70b 1-70-70c 1-70-70d |
समन्युरुत्थाय महानुभाव- स्तदोशना विप्रहितं चिकीर्षुः। सुरापानं प्रति संजातमन्युः काव्यः स्वयं वाक्यमिदं जगाद।। | 1-70-71a 1-70-71b 1-70-71c 1-70-71d |
यो ब्राह्मणोऽद्यप्रभृतीह कश्चि- न्मोहात्सुरां पास्यति मन्दबुद्धिः। अपेतधर्मा ब्र्हमहा चैव स स्या- दस्मिंल्लोके गर्हितः स्यात्परे च।। | 1-70-72a 1-70-72b 1-70-72c 1-70-72d |
मया चैतां विप्रधर्मोक्तिसीमां मर्यादां वै स्थापितां सर्वलोके। सन्तो विप्राः शुश्रुवांसो गुरूणां देवा लोकाश्चोपशृण्वन्तु सर्वे।। | 1-70-73a 1-70-73b 1-70-73c 1-70-73d |
वैशंपायन उवाच। | 1-70-74x |
इतीदमुक्त्वा स महानुभाव- स्तपोनिधीनां निधिरप्रमेयः। तान्दानवान्दैवविमूढबुद्धी- निदं समाहूय वचोऽभ्युवाच।। | 1-70-74a 1-70-74b 1-70-74c 1-70-74d |
आचक्षे वो दानवा बालिशाः स्थ सिद्धः कचो वत्स्यति मत्सकाशे। सञ्जीविनीं प्राप्य विद्यां महात्मा तुल्यप्रभावो ब्राह्मणो ब्रह्मभूतः।। | 1-70-75a 1-70-75b 1-70-75c 1-70-75d |
`योऽकार्षीद्दुष्करं कर्म देवानां कारणात्कचः। न तत्किर्तिर्जरां गच्छेद्याज्ञीयश्च भविष्यति।। | 1-70-76a 1-70-76b |
वैशंपायन उवाच।' | 1-70-77x |
एतावदुक्त्वा वचनं विरराम स भार्गवः। दानवा विस्मयाविष्टाः प्रययुः स्वं निवेशनम्।। | 1-70-77a 1-70-77b |
गुरोरुष्य सकाशे तु दश वर्षशतानि सः। अनुज्ञातः कचो गन्तुमियेष त्रिदशालयम्।। | 1-70-78a 1-70-78b |
।। इति श्रीमन्मेहाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि सप्ततितमोऽध्यायः।। 70 ।। |
1-70-3 विप्रदानवौ वव्राते जामातृत्वेनेति शेषः।। 1-70-25 प्रेषणैः प्रेष्यत्वादिभिः।। 1-70-31 उवाच शुक्रं प्रति।। 1-70-39 पेषः पिष्टम्। पिष्टीकृत्येत्यर्थः।। 1-70-43 गुरुदेहजः कचः। आवृत्य आगत्य। तद्वृत्तमसुरचेष्टितम्।। 1-70-44 ब्राह्मणाय शुक्राय।। 1-70-50 मर्त्यं त्वं तु मत्प्रभावादमरकल्पासि। ब्रह्म वेदः तस्य नमनं स्वार्थप्रकाशेन।। 1-70-60 चाद्दैवीं मायां। मायात्रयविदि त्वयि सति को देवोऽसुरो ब्राह्मणो वाऽतिक्रामेदतस्त्वदुदरभेदनं मम दुःसाध्यमेवेति भावः।। 1-70-65 भावय जीवय भावितो मया जीवितः। कृतघ्नो मा भूरिति भावः।। 1-70-66 शुक्लस्याह्नो रवेर्वा अत्यये शुक्लात्यये।। 1-70-69 ऋतस्य वेदस्य। निधीनां विद्यानां निधिमाश्रयम्। प्रतिष्ठा विद्याफलं तच्छून्या अप्रतिष्ठाः।। सप्ततितमोऽध्यायः।। 70 ।।
आदिपर्व-069 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-071 |