महाभारतम्-01-आदिपर्व-048
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वासुकेः तद्भगिन्याश्च संवादः।। 1 ।। आस्तीकोत्पत्तिः।। 2 ।।
तन्नामनिर्वचनम्।। 3 ।।
सौतिरुवाच। | 1-48-1x |
गतमात्रं तु भर्तारं जरत्कारुरवेदयत्। भ्रातुः सकाशमागत्य यथातथ्यं तपोधन।। | 1-48-1a 1-48-1b |
ततः स भुजगश्रेष्ठः श्रुत्वा सुमहदप्रियम्। उवाच भगिनीं दीनां तदा दीनतरः स्वयम्।। | 1-48-2a 1-48-2b |
वासुकिरुवाच। | 1-48-3x |
जानासि भद्रे यत्कार्यं प्रदाने कारणं च यत्। पन्नगानां हितार्थाय पुत्रस्ते स्यात्ततो यदि।। | 1-48-3a 1-48-3b |
स सर्पसत्रात्किल नो मोक्षयिष्यति वीर्यवान्। एवं पितामहः पूर्वमुक्तवांस्तु सुरैः सह।। | 1-48-4a 1-48-4b |
अप्यस्ति गर्भः सुभगे तस्मात्ते मुनिसत्तमात्। न चेच्छाम्यफलं तस्य दारकर्म मनीषिणः।। | 1-48-5a 1-48-5b |
कामं च मम न न्याय्यं प्रष्टुं त्वां कार्यमीदृशम्। किंतु कार्यगरीयस्त्वात्ततस्त्वाऽहमचूचुदम्।। | 1-48-6a 1-48-6b |
दुर्वार्यतां विदित्वा च भर्तुस्तेऽतितपस्विनः। नैनमन्वागमिष्यामि कदाचिद्धि शपेत्स माम्।। | 1-48-7a 1-48-7b |
आचक्ष्व भद्रे भर्तुः स्वं सर्वमेव विचेष्टितम्। उद्धरस्व च शल्यं मे घोरं हृदि चिरस्थितम्।। | 1-48-8a 1-48-8b |
जरत्कारुस्ततो वाक्यमित्युक्ता प्रत्यभाषत। आश्वासयन्ती सन्तप्तं वासुकिं पन्नगेश्वरम्।। | 1-48-9a 1-48-9b |
जरत्कारुरुवाच। | 1-48-10x |
पृष्टो मयाऽपत्यहेतोः स महात्मा महातपाः। अस्तीत्युत्तरमुद्दिश्य ममेदं गतवांश्च सः।। | 1-48-10a 1-48-10b |
स्वैरेष्वपि न तेनाहं स्मरामि वितथं वचः। उक्तपूर्वं कुतो राजन्सांपराये स वक्ष्यति।। | 1-48-11a 1-48-11b |
न संतापस्त्वया कार्यः कार्यं प्रति भुजंगमे। उत्पत्स्यति च ते पुत्रो ज्वलनार्कसमप्रभः।। | 1-48-12a 1-48-12b |
इत्युक्त्वा स हि मां भ्रातर्गतो भर्ता तपोधनः। तस्माद्व्येतु परं दुःखं तवेदं मनसि स्थितम्।। | 1-48-13a 1-48-13b |
सौतिरुवाच। | 1-48-14x |
एतच्छ्रुत्वा स नागेन्द्रो वासुकिः परया मुदा। एवमस्त्विति तद्वाक्यं भगिन्याः प्रत्यगृह्णत।। | 1-48-14a 1-48-14b |
सान्त्वमानार्थदानैश्च पूजया चारुरूपया। सोदर्यां पूजयामास स्वसारं पन्नगोत्तमः।। | 1-48-15a 1-48-15b |
ततः प्रववृधे गर्भो महातेजा महाप्रभः। यथा मोमो द्विजश्रेष्ठ शुक्लपक्षोदितो दिवि।। | 1-48-16a 1-48-16b |
अथ काले तु सा ब्रह्मन्प्रजज्ञे भुजगस्वसा। कुमारं देवगर्भाभं पितृमातृभयापहम्।। | 1-48-17a 1-48-17b |
ववृधे स तु तत्रैव नागराजनिवेशने। वेदांश्चाधिजगे साङ्गान्भार्गवच्यवनात्मजात्।। | 1-48-18a 1-48-18b |
चीर्णव्रतो बाल एव बुद्धिसत्त्वगुणान्वितः। नाम चास्याभवत्ख्यातं लोकेष्वास्तीक इत्युत।। | 1-48-19a 1-48-19b |
अस्तीत्युक्त्वा गतो यस्मात्पिता गर्भस्थमेव तम्। वनं तस्मादिदं तस्य नामास्तीकेति विश्रुतम्।। | 1-48-20a 1-48-20b |
स बाल एव तत्रस्थश्चरन्नमितबुद्धिमान्। गृहे पन्नगराजस्य प्रयत्नात्परिरक्षितः।। | 1-48-21a 1-48-21b |
भगवानिव देवेशः शूलपाणिर्हिरण्मयः। विवर्धमानः सर्वांस्तान्पन्नगानभ्यहर्षयत्।। | 1-48-22a 1-48-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। 48 ।। |
1-48-6 अचूचुदं कार्यसिद्धिं वक्तुं प्रेरितवान्।। 1-48-10 ममेदं कार्यमुद्दिश्य अस्तीत्युत्तरं दत्तवानिति शेषः।। 1-48-11 वितथं अनृतं तेन उक्तपूर्वं न स्मरामि। सांपराये संकटे।। 1-48-17 प्रजज्ञे जनयामास।। 1-48-22 हिरण्मयः दीप्तिमान्।। अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः।। 48 ।।
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