महाभारतम्-01-आदिपर्व-208
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(अथ वैवाहिकपर्व।। 13 ।।)
धृष्टद्युम्नवार्तां श्रुतवता द्रुपदेन तत्वविवित्सया पाण्डवान्प्रति पुरोहितप्रेषणम्।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-208-1x |
ततस्तथोक्तः परिहृष्टरूपः पित्रे शशंसाथ स राजपुत्रः। धृष्टद्युम्नः सोमकानां प्रबर्हो वृत्तं यथा येन हृता च कृष्णा।। | 1-208-1a 1-208-1b 1-208-1c 1-208-1d |
धृष्टद्युम्न उवाच। | 1-208-2x |
योऽसौ युवा व्यायतलोहिताक्षः कृष्णाजिनी देवसमानरूपः। यः कार्मुकाग्र्यं कृतवानधिज्यं लक्षं च यः पातितवान्पृथिव्याम्।। | 1-208-2a 1-208-2b 1-208-2c 1-208-2d |
असज्जमानश्च ततस्तरस्वी वृतो द्विजाग्र्यैरभिपूज्यमानः। चक्राम वज्रीव दितेः सुतेषु सर्वैश्च देवैर्ऋषिभिश्च जुष्टः।। | 1-208-3a 1-208-3b 1-208-3c 1-208-3d |
कृष्मा प्रगृह्याजिनमन्वयात्तं नागं यथा नागवधूः प्रहृष्टा। `श्यामो युवा वारणमत्तगामी कृत्वा महत्कर्म सुदुष्करं तत्।। | 1-208-4a 1-208-4b 1-208-4c 1-208-4d |
यः सूतपुत्रेण चकार युद्धं शङ्केऽर्जुनं तं त्रिदशेशवीर्यम्।' अमृष्यमाणेषु नराधिपेषु क्रुद्धेषु वै तत्र समापतत्सु।। | 1-208-5a 1-208-5b 1-208-5c 1-208-5d |
ततोऽपरः पार्थिवसङ्घमध्ये प्रवृद्धमारुज्य महीप्ररोहम्। प्राकालयत्तेन स पार्थिवौघान् भीमोऽन्तकः प्राणभृतो यथैव।। | 1-208-6a 1-208-6b 1-208-6c 1-208-6d |
बाह्यां पुराद्भार्गवकर्मशालाम्।। | 1-208-7f |
तत्रोपविष्टार्चिरिवानलस्य तेषां जनित्रीति मम प्रतर्कः। तथाविधैरेव नरप्रवीरै- रुपोपविष्टैस्त्रिबिरग्निकल्पैः।। | 1-208-8a 1-208-8b 1-208-8c 1-208-8d |
तस्यास्ततस्तावभिवाद्य पादा- वुक्त्वा च कृष्णामभिवादयेति। स्थितौ च तत्रैव निवेद्य कृष्णां भिक्षाप्रचाराय गता नराग्र्याः।। | 1-208-9a 1-208-9b 1-208-9c 1-208-9d |
तेषां तु भैक्षं प्रतिगृह्य कृष्णा दत्वा बलिं ब्राह्मणसाच्च कृत्वा। तां चैव वृद्धां परिवेष्य तांश्च नरप्रवीरान्स्वयमप्यभुङ्क्त।। | 1-208-10a 1-208-10b 1-208-10c 1-208-10d |
सुप्तास्तु ते पार्थिव सर्व एव कृष्णा च तेषां चरणोपधाने। आसीत्पृथिव्यां शयनं च तेषां दर्भाजिनाग्रास्तरणोपपन्नम्।। | 1-208-11a 1-208-11b 1-208-11c 1-208-11d |
ते नर्दमाना इव कालमेघाः कथा विचित्राः कथयांबभूवुः। न वैश्यशूद्रौपयिकीः कथास्ता न च द्विजानां कथयन्ति वीराः।। | 1-208-12a 1-208-12b 1-208-12c 1-208-12d |
निःसंशयं क्षत्रियपुंगवास्ते यथा हि युद्धं कथयन्ति राजन्। आशा हि नो व्यक्तमियं समृद्धा मुक्तान्हि पार्थाञ्शृणुमोऽग्निदाहात्।। | 1-208-13a 1-208-13b 1-208-13c 1-208-13d |
यथा हि लक्ष्यं निहतं धनुश्च सज्यं कृतं तेन तथा प्रसह्य। यथा हि भाषन्ति परस्परं ते छन्ना ध्रुवं ते प्रचरन्ति पार्थाः।। | 1-208-14a 1-208-14b 1-208-14c 1-208-14d |
वैशंपायन उवाच। | 1-208015x |
ततः स राजा द्रुपदः प्रहृष्टः पुरोहितं प्रेषायामास तेषाम्। विद्याम युष्मानिति भाषमाणो महात्मानः पाण्डुसुताः स्थ कच्चित्।। | 1-208-15a 1-208-15b 1-208-15c 1-208-15d |
गृहीतवाक्यो नृपतेः पुरोधा गत्वा प्रशंसामभिधाय तेषाम्। वाक्यं समग्रं नृपतेर्यथाव- दुवाच चानुक्रमविक्रमेण।। | 1-208-16a 1-208-16b 1-208-16c 1-208-16d |
विज्ञातुमिच्छत्यवनीश्वरो वः पाञ्चालराजो वरदो वरार्हाः। लक्ष्यस्य वेद्धारमिमं हि दृष्ट्वा हर्षस्य नान्तं प्रतिपद्यते सः।। | 1-208-17a 1-208-17b 1-208-17c 1-208-17d |
आख्यात च ज्ञातिकुलानुपूर्वी पदं शिरःसु द्विषतां कुरुध्वम्। प्रह्लादयध्वं हृदयं ममेदं पाञ्चालराजस्य च सानुगस्य।। | 1-208-18a 1-208-18b 1-208-18c 1-208-18d |
पाण्डुर्हि राजा द्रुपदस्य राज्ञः प्रियः सखा चात्मसमो बभूव। तस्यैष कामो दुहिता ममेयं स्नुषा यदि स्यादिह कौरवस्य।। | 1-208-19a 1-208-19b 1-208-19c 1-208-19d |
अयं हि कामो द्रुपदस्य राज्ञो हृदि स्थितो नित्यमनिन्दिताङ्गाः। यदर्जुनो वै पृथुदीर्घबाहु- र्धर्मेण विन्देत सुतां ममैताम्।। | 1-208-20a 1-208-20b 1-208-20c 1-208-20d |
कृतं हि तत्स्यात्सुकृतं ममेदं यशश्च पुण्यं च हितं तदेतत्। अथोक्तवाक्यं हि पुरोहितं स्थितं ततो विनीतं समुदीक्ष्य राजा।। | 1-208-21a 1-208-21b 1-208-21c 1-208-21d |
समीपतो भीममिदं शशास प्रदीयतां पाद्यमर्ध्यं तथाऽस्मै। मान्यः पुरोधा द्रुपदस्य राज्ञ- स्तस्मै प्रयोज्याऽभ्यधिका हि पूजा।। | 1-208-22a 1-208-22b 1-208-22c 1-208-22d |
वैशंपायन उवाच। | 1-208-23x |
भीमस्ततस्तत्कृतवान्नरेन्द्र तां चैव पूजां प्रतिगृह्य हर्षात्। सुखोपविष्टं तु पुरोहितं तदा युधिष्ठिरो ब्राह्मणमित्युवाच।। | 1-208-23a 1-208-23b 1-208-23c 1-208-23d |
पाञ्चालराजेन सुता निसृष्टा स्वधर्मदृष्टेन यथा न कामात्। प्रदिष्टशुंल्का द्रुपदेन राज्ञा सा तेन वीरेण तथाऽनुवृत्ता।। | 1-208-24a 1-208-24b 1-208-24c 1-208-24d |
न तत्र वर्णेषु कृता विवक्षा न चापि शीले न कुले न गोत्रे। कृतेन सज्येन हि कार्मुकेण विद्धेन लक्ष्येण हि सा विसृष्टा।। | 1-208-25a 1-208-25b 1-208-25c 1-208-25d |
सेयं तथाऽनेन महात्मनेह कृष्णा जिता पार्थिवसङ्घमध्ये। नैवं गते सौमकिरद्य राजा सन्तापमर्हत्यसुखाय कर्तुम्।। | 1-208-26a 1-208-26b 1-208-26c 1-208-26d |
कामश्च योऽसौ द्रुपदस्य राज्ञः स चापि संपत्स्यति पार्थिवस्य। संप्राप्यरूपां हि नरेन्द्रकन्या- मिमामहं ब्राह्मण साधु मन्ये।। | 1-208-27a 1-208-27b 1-208-27c 1-208-27d |
न तद्धनुर्मन्दबलेन शक्यं मौर्व्या समायोजयितुं तथाहि। न चाकृतास्त्रेण न हीनजेन लक्ष्यं तथा पातयितुं हि शक्यम्।। | 1-208-28a 1-208-28b 1-208-28c 1-208-28d |
तस्मान्न तापं दुहितुर्निमित्तं पाञ्चालराजोऽर्हति कर्तुमद्य। न चापि तत्पातनमन्यथेह कर्तुं हि शक्यं भुवि मानवेन।। | 1-208-29a 1-208-29b 1-208-29c 1-208-29d |
एवं ब्रुवत्येव युधिष्ठिरे तु पाञ्चालराजस्य समीपतोऽन्यः। तत्राजगामाशु नरो द्वितीयो निवेदयिष्यन्निह सिद्धमन्नम्।। | 1-208-30a 1-208-30b 1-208-30c 1-208-30d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि अष्टाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 208 ।। |
1-208-27 संप्राप्यरूपासस्माकं योग्यरूपम्।। अष्टाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 208 ।।
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