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महाभारतम्-01-आदिपर्व-142

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द्रोणेनास्त्रशिक्षायां कुरुपाण्डवानां शिष्यत्वेनाङ्गीकारः।। 1 ।।
विद्याभ्याससमाप्त्यनन्तरं बहुशः परीक्षितस्यार्जुनस्य द्रोणाचार्याद्विशेषशिक्षाप्राप्तिः।। 2 ।।
मृण्मयद्रोणप्रतिमाराधनेन एकलव्यस्य धनुर्वेदप्रतिभानं।। 3 ।।
मृगयार्थं गतेषु कुरुपाण्डवेषु एकलव्येन बाणैः शुनो मुखपूरणम्।। 4 ।।
अर्जुनप्रार्थनया द्रोणेनैकलव्यं प्रतिगम्य गुरुदक्षिणात्वेन दक्षिणाङ्गुष्ठ याचनम्।। 5 ।।
एकलव्येन दक्षिणाङ्गुष्ठस्य छित्वा दानम्।। 6 ।।
द्रोणेन शिष्यपरीक्षा।। 7 ।।
शिष्यपरीक्षायां युधिष्ठिरा दीनां निराकरणम्।। 8 ।।

`वैशंपायन उवाच। 1-142-1x
प्रतिजग्राह तं भीष्मो गुरुं पाण्डुसुतैः सह।
पौत्रानादाय तान्सर्वान्वसूनि विविधानि च।।
1-142-1a
1-142-1b
शिष्य इति ददौ राजन्द्रोणाय विधिपूर्वकम्।
तदा द्रोणोऽब्रवीद्वाक्यं भीष्मं बुद्धिमतां वरम्।।
1-142-2a
1-142-2b
कृपस्तिष्ठति चाचार्यः शस्त्रज्ञः प्राज्ञसंमतः।
मयि तिष्ठति चेद्विप्रो वैमनस्यं गमिष्यति।।
1-142-3a
1-142-3b
युष्मान्किंचिच्च याचित्वा धनं संगृह्य हर्षितः।
स्वमाश्रमपदं राजन्गमिष्यामि यथागतम्।।
1-142-4a
1-142-4b
एवमुक्ते तु विप्रेन्द्रं भीष्मः प्रहरतां वरः।
अब्रवीद्द्रोणमाचार्यमुख्यं शस्त्रविदां वरम्।।
1-142-5a
1-142-5b
कृपस्तिष्ठतु पूज्यश्च भर्तव्यश्च मया सदा।
त्वं गुरुर्भव पौत्राणामाचार्यस्त्वं मतो मम।
प्रतिगृह्णीष्व पुत्रांस्त्वमस्त्रज्ञान्कुरु वै सदा।।'
1-142-6a
1-142-6b
1-142-6c
वैशंपायन उवाच। 1-142-7x
ततः संपूजितो द्रोणो भीष्मेण द्विपदां वरः।
विशश्राम महातेजाः पूजितः कुरुवेश्मनि।।
1-142-7a
1-142-7b
विश्रान्तेऽथ गुरौ तस्मिन्पौत्रानादाय कौरवान्।
शिष्यत्वेन ददौ भीष्मो वसूनि विविधानि च।।
1-142-8a
1-142-8b
गृहं च सुपरिच्छन्नं धनधान्यसमाकुलम्।
भारद्वाजाय सुप्रीतः प्रत्यपादयत प्रभुः।।
1-142-9a
1-142-9b
स ताञ्शिष्यान्महेष्वासः प्रतिजग्राह कौरवान्।
पाण्डवान्धार्तराष्ट्रांश्च द्रोणो मुदितमानसः।।
1-142-10a
1-142-10b
प्रतिगृह्य च तान्सर्वान्द्रोणो वचनमब्रवीत्।
रहस्येकः प्रतीतात्मा कृतोपसदनांस्तथा।।
1-142-11a
1-142-11b
द्रोण उवाच। 1-142-12x
कार्यं मे काङ्क्षितं किंचिद्धृदि संपरिवर्तते।
कृतास्त्रैस्तत्प्रदेयं मे तदेतद्वदतानघाः।।
1-142-12a
1-142-12b
वैशंपायन उवाच। 1-142-13x
तच्छ्रुत्वा कौरवेयास्ते तूष्णीमासन्विशांपते।
अर्जुनस्तु ततः सर्वं प्रतिजज्ञे परन्तप।।
1-142-13a
1-142-13b
ततोऽर्जुनं तदा मूर्ध्नि समाघ्राय पुनः पुनः।
प्रीतिपूर्वं परिष्वज्य प्ररुरोद मुदा तदा।।
1-142-14a
1-142-14b
`अश्वत्थामानमाहूय द्रोणो वचनमब्रवीत्।
सखायं विद्धि ते पार्थं मया दत्तः प्रगृह्यताम्।।
1-142-15a
1-142-15b
साधुसाध्विति तं पार्थः परिष्वज्येदमब्रवीत्।
अद्यप्रभृति विप्रेन्द्र परवानस्मि धर्मतः।।
1-142-16a
1-142-16b
शिष्योऽहं त्वत्प्रसादेन जीवामि द्विजसत्तम।
इत्युक्त्वा तु तदा पार्थः पादौ जग्राह पाण्डवः'।।
1-142-17a
1-142-17b
ततो द्रोणः पाण्डुपुत्रानस्त्राणि विविधानि च।
ग्राहयामास दिव्यानि मानुषाणि च वीर्यवान्।।
1-142-18a
1-142-18b
राजपुत्रास्तथा चान्ये समेत्य भरतर्षभ।
अभिजग्मुस्ततो द्रोणमस्त्रार्थे द्विजसत्तमम्।।
1-142-19a
1-142-19b
वृष्णयश्चान्धकाश्चैव नानादेश्याश्च पार्थिवाः।
सूतपुत्रश्च राधेयो गुरुं द्रोणमियात्तदा।।
1-142-20a
1-142-20b
स्पर्धमानस्तु पार्थेन सूतपुत्रोऽत्यमर्षणः।
दुर्योधनं समाश्रित्य सोऽवमन्यत पाण्डवान्।।
1-142-21a
1-142-21b
अभ्ययात्स ततो द्रोणं धनुर्वेदचिकीर्षया।
शिक्षाभुजवलोद्योगैस्तेषु सर्वेषु पाण्डवः।।
1-142-22a
1-142-22b
अस्त्रविद्यानुरागाच्च विशिष्टोऽभवदर्जुनः।
तुल्येष्वस्त्रप्रयोगेषु लाघवे सौष्टवेषु च।।
1-142-23a
1-142-23b
सर्वेषामेव शिष्याणां बभूवाभ्यधिकोऽर्जुनः।
ऐन्द्रिमप्रतिमं द्रोण उपदेशेष्वमन्यत।।
1-142-24a
1-142-24b
एवं सर्वकुमाराणामिष्वस्त्रं प्रत्यपादयत्।
कमण्डलुं च सर्वेषां प्रायच्छच्चिरकारणात्।।
1-142-25a
1-142-25b
पुत्राय च ददौ कुम्भमविलम्बनकारणात्।
यावत्ते नोपगच्छ्ति तावदस्मै परां क्रियाम्।।
1-142-26a
1-142-26b
द्रोण आचष्ट पुत्राय कर्म तज्जिष्णुरौहत।
ततः स वारुणास्त्रेण पूरयित्वा कमण्डलुम्।।
1-142-27a
1-142-27b
सममाचार्यपुत्रेण गुरुमभ्येति फाल्गुनः।
आचार्यपुत्रात्तस्मात्तु विशेषोपचयेऽपृथक्।।
1-142-28a
1-142-28b
न व्यहीयत मेधावी पार्थोऽप्यस्त्रविदां वरः।
अर्जुनः परमं यत्नमातिष्ठद्गुरुपूजने।।
1-142-29a
1-142-29b
अस्त्रे च परमं योगं प्रियो द्रोणस्य चाभवत्।
तं दृष्ट्वा नित्यमुद्युक्तमिष्वस्त्रं प्रति फाल्गुनम्।।
1-142-30a
1-142-30b
आहूय वचनं द्रोणो रहः सूदमभाषत।
अन्धकारेऽर्जुनायान्नं न देयं ते कदाचन।
न चाख्येयमिदं चापि मद्वाक्यं विजयेत्वया।।
1-142-31a
1-142-31b
1-142-31c
ततः कदाचिद्भुञ्जाने प्रववौ वायुरर्जुने।
तेन तत्र प्रदीपः स दीप्यमानो विलोपितः।।
1-142-32a
1-142-32b
भुक्त एव तु कौन्तेयो नास्यादन्यत्र वर्तते।
हस्तस्तेजस्विनस्तस्य अनुग्रहणकारणात्।।
1-142-33a
1-142-33b
तदभ्यासकृतं मत्वा रात्रावपि स पाण्डवः।
योग्यां चक्रे महाबाहुर्धनुषा पाण्डुनन्दनः।।
1-142-34a
1-142-34b
तस्य ज्यातलनिर्घोषं द्रोणः शुश्राव भारत।
उपेत्य चैनमुत्थाय परिष्वज्येदमब्रवीत्।।
1-142-35a
1-142-35b
द्रोण उवाच। 1-142-36x
प्रयतिष्ये तथा कर्तुं यथा नान्यो धनुर्धरः।
त्वत्समो भविता लोके सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।।
1-142-36a
1-142-36b
वैशंपायन उवाच। 1-142-37x
ततो द्रोणोऽर्जुनं भूयो हयेषु च गजेषु च।
रथेषु भूमावपि च रणशिक्षामशिक्षयत्।।
1-142-37a
1-142-37b
गदायुद्धेऽसिचर्यायां तोमरप्रासशक्तिषु।
द्रोणः संकीर्णयुद्धे च शिक्षयामास कौरवान्।।
1-142-38a
1-142-38b
तस्य तत्कौशलं श्रुत्वा धनुर्वेदजिघृक्षवः।
सजानो राजपुत्राश्च समाजग्मुः सहस्रशः।।
1-142-39a
1-142-39b
`तान्सर्वाञ्शिक्षयामास द्रोणः शस्त्रभृतां वरः।'
ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः।
एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह।।
1-142-40a
1-142-40b
1-142-40c
न स तं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्।
शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्ववेक्षया।।
1-142-41a
1-142-41b
`द्रोण उवाच। 1-142-42x
शिष्योऽसि मम नैषादे प्रयोगे बलत्तरः।
निवर्तस्व गृहानेव अनुज्ञातोऽसि नित्यशः।।
1-142-42a
1-142-42b
वैशंपायन उवाच।' 1-142-43x
स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ गृह्य परन्तपः।
अरण्यमनुसंप्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम्।।
1-142-43a
1-142-43b
तस्मिन्नाचार्यवृत्तिं च परमामास्थितस्तदा।
इष्वस्त्रे योगमातस्थे परं नियममास्थितः।।
1-142-44a
1-142-44b
परया श्रद्धयोपेतो योगेन परमेण च।
विमोक्षादानसन्धाने लघुत्वं परमाप सः।।
1-142-45a
1-142-45b
`लाघवं चास्त्रयोगं च नचिरात्प्रत्यपद्यत।'
अथ द्रोणाभ्यनुज्ञाताः कदाचित्कुरुपाण्डवाः।
रथैर्विनिर्ययुः सर्वे मृगयामरिमर्दनाः।।
1-142-46a
1-142-46b
1-142-46c
तत्रोपकरणं गृह्य नरः कश्चिद्यदृच्छया।
राजन्ननुजगामैकः श्वानमादाय पाण्डवान्।।
1-142-47a
1-142-47b
तेषां विचरतां तत्र तत्तत्कर्मचिकीर्षया।
श्वाचरन्स पथा क्रीडन्नैषादिं प्रति जग्मिवान्।।
1-142-48a
1-142-48b
स कृष्णमलदिग्धाङ्गं कृष्णाजिनजटाघरम्।
नैषादिं श्वा समालक्ष्य भषंस्तस्थौ तदन्तिके।।
1-142-49a
1-142-49b
तदा तस्याथ भषतः शुनः सप्त शरान्मुखे।
लाघवं दर्शन्नस्त्रे मुमोच युगपद्यथा।।
1-142-50a
1-142-50b
स तु श्वा शरपूर्णास्यः पाण्डवानाजगाम ह।
तं दृष्ट्वा पाण्डवा वीराः परं विस्मयमागताः।।
1-142-51a
1-142-51b
लाघवं शब्धवेधित्वं दृष्ट्वा तत्परमं तदा।
प्रेक्ष्य तं व्रीडिताश्चासन्प्रशशंसुश्च सर्वशः।।
1-142-52a
1-142-52b
तं ततोऽन्वेषमाणास्ते वने वननिवासिनम्।
ददृशुः पाण्डवा राजन्नस्यन्तमनिशं शरान्।।
1-142-53a
1-142-53b
न चैनमभ्यजानंस्ते तदा विकृतदर्शनम्।
तथैनं परिपप्रच्छ्रुः को भवान्कस्य वेत्युत।।
1-142-54a
1-142-54b
एकलव्य उवाच। 1-142-55x
निषादाधिपतेर्वीरा हिरण्यधनुषः सुतम्।
द्रोणशिष्यं च मां वित्त धुर्वेदकृतश्रमम्।।
1-142-55a
1-142-55b
वैशंपायन उवाच। 1-142-56x
ते तमाज्ञाय तत्त्वेन पुनरागम्य पाण्डवाः।
यथा वृत्तं वने सर्वं द्रोणायाचख्युरद्भुतम्।।
1-142-56a
1-142-56b
कौन्तेयस्त्वर्जुनो राजन्नेकलव्यमनुस्मरन्।
रहो द्रोणं समासाद्य प्रणयादिदमब्रवीत्।।
1-142-57a
1-142-57b
नन्वहं परिरभ्यैकः प्रीतिपूर्वमिदं वचः।
भवतोक्तो न मे शिष्यस्त्वद्विशिष्टो भविष्यति।।
1-142-58a
1-142-58b
अथ कस्मान्मद्विशिष्टो लोकादपि च वीर्यवान्।
अन्योऽस्ति भवतः शिष्यो निषादाधिपतेः सुतः।
1-142-59a
1-142-59b
वैशंपायन उवाच। 1-142-60x
मुहूर्तमिव तं द्रोणश्चिन्तयित्वा विनिश्चयम्।
सव्यसाचिनमादाय नैषादिं प्रति जग्मिवान्।।
1-142-60a
1-142-60b
ददर्श मलदिग्धाङ्गं जटिलं चीरवाससम्।
एकलव्यं धनुष्पाणिमस्यन्तमनिशं शरान्।।
1-142-61a
1-142-61b
एकलव्यस्तु तं दृष्ट्वा द्रोणमायान्तमन्तिकात्।
अभिगम्योपसंगृह्य जगाम शिरसा महीम्।।
1-142-62a
1-142-62b
पूजयित्वा ततो द्रोणं विधिवत्स निषादजः।
निवेद्य शिष्यमात्मानं तस्थौ प्राञ्जलिरग्रतः।।
1-142-63a
1-142-63b
ततो द्रोणोऽब्रवीद्राजन्नेकलव्यमिदं वचः।
यदि शिष्योऽसि मे वीर वेतनं दीयतां मम।।
1-142-64a
1-142-64b
एकलव्यस्तु तच्छ्रुत्वा प्रीयमाणोऽब्रवीदिदम्।
किं प्रयच्छामि भगवन्नाज्ञापयतु मां गुरुः।।
1-142-65a
1-142-65b
न हि किंचिददेयं मे गुरवे ब्रह्मवित्तम। 1-142-66a
वैशंपायन उवाच। 1-142-66x
तमब्रवीत्त्वयाङ्गुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति।। 1-142-66b
एकलव्यस्तु तच्छ्रुत्वा वचो द्रोणस्य दारुणम्।
प्रतिज्ञामात्मनो रक्षन्सत्ये च नियतः सदा।।
1-142-67a
1-142-67b
तथैव हृष्टवदनस्तथैवादीनमानसः।
छित्त्वाऽविचार्य तं प्रादाद्द्रोणायाङ्गुष्ठमात्मनः।।
1-142-68a
1-142-68b
ततः शरं तु नैषादिरङ्गुलीभिर्व्यकर्षत।
न तथा च स शीघ्रोऽभूद्यथा पूर्वं नराधिप।।
1-142-69a
1-142-69b
ततोऽर्जुनः प्रीतमना बभूव विगतज्वरः।
द्रोणश्च सत्यवागासीन्नान्योऽभिभविताऽर्जुनं।।
1-142-70a
1-142-70b
द्रोणस्य तु तदा शिष्यौ गदायोग्यौ बभूवतुः।
दुर्योधनश्च भीमश्च सदा संरब्धणानसौ।।
1-142-71a
1-142-71b
अश्वत्थामा रहस्येषु सर्वेष्वभ्यधिकोऽभवत्।
तथाऽतिपुरुषानन्यान्त्सारुकौ यमजावुभौ।।
1-142-72a
1-142-72b
युधिष्ठिरो रथश्रेष्ठः सर्वत्र तु धनञ्जयः।
प्रथितः सागरान्तायां रथयूथपयूथपः।।
1-142-73a
1-142-73b
बुद्धियोगबलोत्साहः सर्वास्त्रेषु च निष्ठितः।
अस्त्रे गुर्वनुरागे च विशिष्टोऽभवदर्जुनः।।
1-142-74a
1-142-74b
तुल्येष्वस्त्रोपदेशेषु सौष्ठवेन च वीर्यवान्।
एकः सर्वकुमाराणां बभूवातिरथोऽर्जुनः।।
1-142-75a
1-142-75b
प्राणाधिकं भीमसेनं कृतविद्यं धनञ्जयम्।
धार्तराष्ट्रा दुरात्मानो नामृष्यन्त परस्परम्।।
1-142-76a
1-142-76b
तांस्तु सर्वान्समानीय सर्वविद्यास्त्रशिक्षितान्।
द्रोणः प्रहरणज्ञाने जिज्ञासुः पुरुषर्षभः।।
1-142-77a
1-142-77b
कृत्रिमं भासमारोप्य वृक्षाग्रे शिल्पिभिः कृतम्।
अविज्ञातं कुमाराणां लक्ष्यभूतमुपादिशत्।।
1-142-78a
1-142-78b
द्रोण उवाच। 1-142-79x
शीघ्रं भन्तः सर्वेऽपि धनूंष्यादाय सर्वशः।
भासमेतं समुद्दिश्य तिष्ठध्वं सन्धितेषतः।।
1-142-79a
1-142-79b
मद्वाक्यसमकालं तु शिरोऽस्य विनिपात्यताम्।
एकैकशो नियोक्ष्यामि तथा कुरुत पुत्रकाः।।
1-142-80a
1-142-80b
वैशंपायन उवाच। 1-142-81x
ततो युधिष्ठिरं पूर्वमुवाचाङ्गिरसां वरः।
संधत्स्व बामं दुर्धर्ष मद्वाक्यान्ते विमुञ्चतम्।।
1-142-81a
1-142-81b
ततो युधिष्ठिरः पूर्वं धनुर्गृह्य परन्तपः।
तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदितः।।
1-142-82a
1-142-82b
ततो विततधन्वानं द्रोणस्तं कुरुनन्दनम्।
स मुहूर्तादुवाचेदं वचनं भरतर्षभ।।
1-142-83a
1-142-83b
पश्यसि त्वं द्रुमाग्रस्थं भासं नरवरात्मज।
पश्यामीत्येवमाचार्यं प्रत्युवाच युधिष्ठिरः।।
1-142-84a
1-142-84b
स मुहूर्तादिव पुनर्द्रोणस्तं प्रत्यभाषत।
अथ वृक्षमिमं मां वा भ्रातॄन्वाऽपि प्रपश्यसि।।
1-142-85a
1-142-85b
तमुवाच स कौन्तेयः पश्याम्येनं नवस्पतिम्।
भन्तं च तथा भ्रातॄन्भासं चेति पुनःपुनः।।
1-142-86a
1-142-86b
तमुवाचापसर्पेति द्रोणोऽप्रीतमना इव।
नैतच्छक्यं त्वया वेद्धुं लक्ष्यमित्येव कुत्सयन्।।
1-142-87a
1-142-87b
ततो दुर्योधनादींस्तान्धार्तराष्ट्रान्महायशाः।
तेनैव क्रमयोगेन जिज्ञासुः पर्यपृच्छत।।
1-142-88a
1-142-88b
अन्यांश्च शिष्यान्भीमादीन्राज्ञश्चैवान्यदेशजान्।
यदा च सर्वे तत्सर्वं पश्याम इति कुत्सिताः।।
1-142-89a
1-142-89b
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 142 ।।

1-142-12 यत्प्रदेयं मे इति पाठान्तरम्।। 1-142-22 द्रोणमभ्ययात् द्रोणतुल्योऽभवत्।। 1-142-27 औहत तर्कितवान्।। 1-142-28 अपृथक् सहैवास्ते।। 1-142-29 अतो न व्यहीयत न विहीनोऽभूत्।। 1-142-30 योगमैकाग्र्यम्।। 1-142-33 अनुग्रहणमभ्यासः।। 1-142-34 योग्यामभ्यासम्।। 1-142-35 उत्थायोपेत्येति क्रमः।। 1-142-41 तेषामन्ववेक्षया तेभ्योऽधिको माभूदिति बुद्ध्या।। 1-142-43 महीमयं मृण्मयम्।। 1-142-44 इष्वस्त्रे इषुप्रयोगे योगमैकाग्र्यम्।। 1-142-45 लघुत्वं शीघ्रप्रयोक्तृत्वम्।। 1-142-64 वेतनं गुरुदक्षिणारूपम्।। 1-142-70 नाधिकोऽन्योऽर्जुनादभूत इति पाठान्तरम्।। 1-142-71 गदायोग्यौ गदायुद्धेऽभ्यासवन्तौ।। 1-142-72 त्सारुकौ खङ्गयुद्धे कुशलौ।। 1-142-79 भासं पक्षिविशेषम्।। द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 142 ।।

आदिपर्व-141 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आदिपर्व-143
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