महाभारतम्-01-आदिपर्व-192
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कल्माषपादराजोपाख्याने---वसिष्ठपुत्रेण शक्तिना कल्माषपादं प्रति शापदानं।। 1 ।।
पुनरन्येन ब्राह्मणेन च कल्माषपादंप्रति शापदानं।। 2 ।।
राक्षसाविष्टेन कल्माषपादेन वसिष्ठपुत्राणां भक्षणं।। 3 ।।
पुत्रशोकाभिसंतप्तेन वसिष्ठेन प्राणत्यागार्थं अनेकधा प्रयतनम्।। 4 ।।
`अर्जुन उवाच। | 1-192-1x |
ऋष्योस्तु यत्कृते वैरं विश्वामित्रवसिष्ठयोः। बभूव गन्धर्वपते शंस तत्सर्वमेव मे।। | 1-192-1a 1-192-1b |
माहात्म्यं च वसिष्ठस्य ब्राह्मण्यं ब्रह्मतेजसः। विश्वामित्रस्य च तथा क्षत्रस्य च महात्मनः।। | 1-192-2a 1-192-2b |
न शृण्वानस्त्वहं तृप्तिमुपगच्छामि खेचर। आख्याहि गन्धर्वपते शंस तत्सर्वमेव मे।। | 1-192-3a 1-192-3b |
माहात्म्यं च वसिष्ठस्य विश्वामित्रस्य भाषते।। | 1-192-4a |
गन्धर्व उवाच। | 1-192-5x |
इदं वासिष्ठमाख्यानं पुराणं पुण्यमुत्तमम्। पार्थ सर्वेषु लोकेषु विश्रुतं तन्निबोध मे।।' | 1-192-5a 1-192-5b |
कल्माषपाद इत्येवं लोके राजा बभूव ह। इक्ष्वाकुवंशजः पार्थ तेजसाऽसदृशो भुवि।। | 1-192-6a 1-192-6b |
स कदाचिद्वनं राजा मृगयां निर्ययौ पुरात्। मृगान्विध्यन्वराहांश्च चचार रिपुमर्दनः।। | 1-192-7a 1-192-7b |
तस्मिन्वने महाघोरे खङ्गांश्च बहुशोऽहनत्। हत्वा च सुचिरं श्रान्तो राजा निववृते ततः।। | 1-192-8a 1-192-8b |
अकामयत्तं याज्यार्थे विश्वामित्रः प्रतापवान्। स तु राजा महात्मानं वासिष्ठमृषिसत्तमम्।। | 1-192-9a 1-192-9b |
तृषार्तश्च क्षुधार्तश्च एकायनगतः पथि। अपश्यदजितः सङ्ख्ये मुनिं प्रतिमुखागतम्।। | 1-192-10a 1-192-10b |
शक्तिं नाम महाभागं वसिष्ठकुलवर्धनम्। ज्येष्ठं पुत्रं पुत्रशताद्वसिष्ठस्य महात्मनः।। | 1-192-11a 1-192-11b |
अपगच्छ पथोऽस्माकमित्येवं पार्थिवोऽब्रवीत्। तथा ऋषिरुवाचैनं सान्त्वयञ्श्लक्ष्णया गिरा।। | 1-192-12a 1-192-12b |
मम पन्था महाराज धर्म एष सनातनः। `वृद्धभीरुनृपस्नातस्त्रीरोगिवरचक्रिणाम्।। | 1-192-13a 1-192-13b |
पन्था देयो नृपैस्तेषामन्यैस्तैस्तस्य भूपतेः।' राज्ञा सर्वेषा धर्मेषु देयः पन्था द्विजातये।। | 1-192-14a 1-192-14b |
एवं परस्परं तौ तु पथोऽर्थं वाक्यमूचतुः। अपसर्पापसर्पेति वागुत्तरमकुर्वताम्।। | 1-192-15a 1-192-15b |
ऋषिस्तु नापचक्राम तस्मिन्धर्मपथे स्थितः। `अपि राजा मुनेर्मार्गात्क्रोधान्नापजगाम ह।।' | 1-192-16a 1-192-16b |
अमुञ्चन्तं तु पन्थानं तमृषिं नृपसत्तमः। जगाम कशया मोहात्तदा राक्षसन्मुनिम्।। | 1-192-17a 1-192-17b |
कशाप्रहाराभिहतस्ततः स मुनिसत्तमः। तं शशाप नृपश्रेष्ठं वासिष्ठः क्रोधमूर्च्छितः।। | 1-192-18a 1-192-18b |
हंसि राक्षसवद्यस्माद्राजापशद तापसम्। तस्मात्त्वमद्यप्रभृति पुरुषादो भविष्यसि।। | 1-192-19a 1-192-19b |
मनुष्यपिशिते सक्तश्चरिष्यसि महीमिमाम्। गच्छ राजाधमेत्युक्तः शक्तिना वीर्यशक्तिना।। | 1-192-20a 1-192-20b |
ततो याज्यनिमित्तं तु विश्वामित्रवसिष्ठयोः। वैरमासीत्तदा तं तु विश्वामित्रोऽन्वपद्यत।। | 1-192-21a 1-192-21b |
तयोर्विवदतोरेवं समीपमुपचक्रमे। ऋषिरुग्रतपाः पार्थ विश्वामित्रः प्रतापवान्।। | 1-192-22a 1-192-22b |
ततः स बुबुधे पश्चात्तमृषिं नृपसत्तमः। ऋषेः पुत्रं वसिष्ठस्य वसिष्ठमिव तेजसा।। | 1-192-23a 1-192-23b |
अन्तर्धाय ततोऽत्मानं विश्वामित्रोऽपि भारत। तावुभावतिचक्राम चिकीर्षन्नात्मनः प्रियम्।। | 1-192-24a 1-192-24b |
स तु शप्तस्तदा तेन शक्तिना वै नृपोत्तमः। जगाम शरणं शक्तिं प्रसादयितुमर्हयन्।। | 1-192-25a 1-192-25b |
तस्य भावं विदित्वा स नृपतेः कुरुसत्तम। विश्वामित्रस्ततो रक्ष आदिदेश नृपं प्रति।। | 1-192-26a 1-192-26b |
शापात्तस्य तु विप्रर्षेर्विश्वामित्रस्य चाज्ञया। राक्षसः किङ्करो नाम विवेश नृपतिं तदा।। | 1-192-27a 1-192-27b |
रक्षसा तं गृहीतं तु विदित्वा मुनिसत्तमः। विश्वामित्रोऽप्यपाक्रामत्तस्माद्देशादरिन्दम।। | 1-192-28a 1-192-28b |
ततः स नृपतिर्विद्वान्रक्षन्नात्मानमात्मना। बलवत्पीड्यमानोऽपि रक्षसान्तर्गतेन ह।। | 1-192-29a 1-192-29b |
ददर्शाथ द्विजः कश्चिद्राजानं प्रस्थितं वनम्। अयाचत क्षुधापन्नः समांसं भोजनं तदा।। | 1-192-30a 1-192-30b |
तमुवाचाथ राजर्षिर्द्विजं मित्रसहस्तदा। आस्स्व ब्रह्मंस्त्वमत्रैव मुहूर्तं प्रतिपालयन्।। | 1-192-31a 1-192-31b |
निवृत्तः प्रतिदास्यामि भोजनं ते यथेप्सितम्। इत्युक्त्वा प्रययौ राजा तस्थौ च द्विजसत्तमः।। | 1-192-32a 1-192-32b |
ततो राजा परिक्रम्य यथाकामं यथासुखम्। निवृत्तोऽन्तःपुरं पार्थ प्रविवेश महामनाः।। | 1-192-33a 1-192-33b |
`अन्तर्गतस्तदा राजा श्रुत्वा ब्राह्मणभाषितम्। सोऽन्तःपुरं प्रविश्याथ न सस्मार नराधिपः।।' | 1-192-34a 1-192-34b |
ततोऽर्धरात्र उत्थाय सूदमानाय्य सत्वरम्। उवाच राजा संस्मृत्य ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुतम्।। | 1-192-35a 1-192-35b |
गच्छामुष्मिन्वनोद्देशे ब्राह्मणो मां प्रतीक्षते। अन्नार्थी तं त्वमन्नेन समांसेनोपपादय।। | 1-192-36a 1-192-36b |
गन्धर्व उवाच। | 1-192-37x |
एवमुक्तस्ततः सूदः सोऽनासाद्यामिषं क्वचित्। निवेदयामास तदा तस्मै राज्ञे व्यथान्वितः।। | 1-192-37a 1-192-37b |
राजा तु रक्षसाविष्टः सूदमाह गतव्यथः। अप्येनं नरमांसेन भोजयेति पुनः पुनः।। | 1-192-38a 1-192-38b |
तथेत्युक्त्वा ततः सूदः संस्थानं वध्यघातिनाम्। गत्वाऽऽजहार त्वरितो नरमांसमपेतभीः।। | 1-192-39a 1-192-39b |
एतत्संस्कृत्य विधिवदन्नोपहितमाशु वै। तस्मै प्रादाद्ब्राह्मणाय क्षुधिताय तपस्विने।। | 1-192-40a 1-192-40b |
स सिद्धचक्षुषा दृष्ट्वा तदन्नं द्विजसत्तमः। अभोज्यमिदमित्याह क्रोधपर्याकुलेक्षणः।। | 1-192-41a 1-192-41b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-192-42x |
यस्मादभोज्यमन्नं मे ददाति स नृपाधमः।। | 1-192-42a |
सक्तो मानुषमांसेषु यथोक्तः शक्तिना पुरा। उद्वेजनीयो भूतानां चरिष्यति महीमिमाम्।। | 1-192-43a 1-192-43b |
गन्धर्व उवाच। | 1-192-44x |
द्विरनुव्याहृते राज्ञः स शापो बलवानभूत्। रक्षोबलसमाविष्टो विसंज्ञश्चाभवन्नृपः।। | 1-192-44a 1-192-44b |
ततः स नृपतिश्रेष्ठो रक्षसापहृतेन्द्रियः। उवाच शख्तिं तं दृष्ट्वा न चिरादिव भारत।। | 1-192-45a 1-192-45b |
यस्मादसदृशः शापः प्रयुक्तोऽयं मयि त्वया। तस्मात्त्वत्तः प्रवर्तिष्ये खादितुं पुरुषानहम्।। | 1-192-46a 1-192-46b |
एवमुक्त्वा ततः सद्यस्तं प्राणैर्विप्रयोज्य च। शक्तिं तं भक्षयामास व्याघ्रः पशुमिवेप्सितम्।। | 1-192-47a 1-192-47b |
शक्तिनं तु मृतं दृष्ट्वा विश्वामित्रः पुनःपुनः। वसिष्ठस्यैव पुत्रेषु तद्रक्षः संदिदेश ह।। | 1-192-48a 1-192-48b |
स ताञ्शक्त्यवरान्पुत्रान्वसिष्ठस्य महात्मनः। भक्षयामास संक्रुद्धः सिंहः क्षुद्रमृगानिव।। | 1-192-49a 1-192-49b |
वसिष्ठो घातिताञ्श्रुत्वा विश्वामित्रेण तान्सुतान्। धारयामास तं शोकं महाद्रिरिव मेदिनीम्।। | 1-192-50a 1-192-50b |
चक्रे चात्मविनाशाय बुद्धिं स मुनिसत्तमः। न त्वेव कौशिकोच्छेदं मेने मतिमतां वरः।। | 1-192-51a 1-192-51b |
स मेरुकूटादात्मानं मुमोच भगवानृषिः। गिरेस्तस्य शिलायां तु तूलराशाविवापतत्।। | 1-192-52a 1-192-52b |
न ममार च पातेन स यदा तेन पाण्डव। तदाग्निमिद्धं भगवान्संविवेश महावने।। | 1-192-53a 1-192-53b |
तं तदा सुसमिद्धोऽपि न ददाह हुताशनः। दीप्यमानोऽप्यमित्रघ्न शीतोऽग्निरभवत्ततः।। | 1-192-54a 1-192-54b |
स समुद्रमभिप्रेक्ष्य शोकाविष्टो महामुनिः। बद्ध्वा कण्ठे शिलां गुर्वीं निपपात तदाम्भसि।। | 1-192-55a 1-192-55b |
स समुद्रोर्मिवेगेन स्थले न्यस्तो महामुनिः। न ममार यदा विप्रः कथंचित्संशितव्रतः। जगाम स ततः खिन्नः पुनरेवाश्रमं प्रति।। | 1-192-56a 1-192-56b 1-192-56c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 192 ।। |
1-192-9 याज्यार्थे अयं मम याज्यो भवत्वित्येतदर्थम्।। 1-192-10 एकायनगतः अतिसंकुचितमार्गे गतः।। 1-192-52 मुमोच पातयामास। आत्मानं देहम्।। द्विनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 192 ।।
आदिपर्व-191 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-193 |