महाभारतम्/आदिपर्व/००१
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आदौ मङ्गलाचरणं।। 1 ।। नैमिशारण्ये दीर्घसत्रे शौनकादीन्प्रति सौतेरागमनम्।। 2 ।। तत्र शौनकादिभिः सौतिं प्रति भारतकथनचोदना।। 3 ।। सौतिना श्रीमन्नारायणनमस्कारपूर्वकं व्यासस्य भारतनिर्माणकथनम्।। 4 ।। पर्वानुक्रमणिका।। 5 ।।
।। श्रीवेदव्यासाय नमः।। | 1-1-1x |
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। | 1-1-1a 1-1-1b |
`नारायणं सुरगुरुं जगदेकनाथं' | 1-1-2a 1-1-2b 1-1-2c 1-1-2d |
`नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे। | 1-1-3a 1-1-3b |
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। | 1-1-4a 1-1-4b 1-1-4c 1-1-4d |
रोमहर्षणपुत्र उग्रश्रवाः सौतिः पौराणिको | 1-1-5a 1-1-5b |
सुखासीनानभ्यगच्छद्ब्रह्मर्षीन्संशितव्रतान्। | 1-1-6a 1-1-6b |
तमाश्रममनुप्राप्य नैमिशारण्यवासिनः। | 1-1-7a 1-1-7b |
वेद वैयासिकीः सर्वाः कथा धर्मार्यैसंहिताः। | 1-1-8a 1-1-8b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नैमिशारण्यवासिनः। | 1-1-9a 1-1-9b |
अभिवाद्य मुनींस्तांस्तु सर्वानेव कुताञ्जलिः। | 1-1-10a 1-1-10b |
अथ तेषूपविष्टेषु सर्वेष्वेव तपस्विषु। | 1-1-11a 1-1-11b |
सुखासीनं ततस्तं तु विश्रान्तमुपलक्ष्य च। | 1-1-12a 1-1-12b |
कुत आगम्यते सौते क्वचायं विहृतस्त्वया। | 1-1-13a 1-1-13b |
एवं पृष्टोऽब्रवीत्सम्यग्यथावद्रौमहर्षणिः। | 1-1-14a 1-1-14b |
तस्मिन्सदसि विस्तीर्णे मुनीनां भावितात्मनाम्। | 1-1-15a |
सौतिरुवाच। | 1-1-15x |
जनमेजयस्य राजर्षेः सर्पसत्रे महात्मनः।। | 1-1-15b |
समीपे पार्थिवेन्द्रस्य सम्यक्पारिक्षितस्य च। | 1-1-16a 1-1-16b |
कथिताश्चापि विधिवद्या वैशंपायनेन वै। | 1-1-17a 1-1-17b |
वहूनि संपरिक्रम्य तीर्थान्यायतनानि च। | 1-1-18a 1-1-18b |
गतवानस्मि तं देशं युद्धं यत्राभवत्पुरा। | 1-1-19a 1-1-19b |
दिदृक्षुंरागतस्तस्मात्समीपं भावतामिह। | 1-1-20a 1-1-20b 1-1-20c |
कृताभिषेकाः शुचयः कृतजप्या हुताग्नयः। | 1-1-21a 1-1-21b |
पुराणसंहिताः पुण्याः कथा धर्मार्थसंश्रिताः। | 1-1-22a 1-1-22b |
ऋषय ऊचुः। | 1-1-23x |
द्वैपायनेन यत्प्रोक्तं पुराणं परमर्षिणा। | 1-1-23a 1-1-23b |
तस्याख्यानवरिष्ठस्य विचित्रपदपर्वणः। | 1-1-24a 1-1-24b |
भारतस्येतिहासस्य पुण्यां ग्रन्थार्थसंयुताम्। | 1-1-25a 1-1-25b |
जनमेजयस्य यां राज्ञो वैशंपायन उक्तवान्। | 1-1-26a 1-1-26b |
वेदैश्चतुर्भिः सयुक्तां व्यासस्याद्भुतकर्मणः। | 1-1-27a 1-1-27b |
सौतिरुवाच। | 1-1-28x |
आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम्। | 1-1-28a 1-1-28b |
असच्च सच्चैव च यद्विश्वं सदसतः परम् | 1-1-29a 1-1-29b |
मङ्गल्यं मङ्गलं विष्णुं वरेण्यमनघं शुचिम्। | 1-1-30a 1-1-30b |
महर्षेः पूजितस्येह सर्वलोकैर्महात्मनः। | 1-1-31a 1-1-31b |
`नमो भगवते तस्मै व्यासायामिततेजसे। | 1-1-32a 1-1-32b |
सर्वाश्रमाभिशमनं सर्वतीर्थावगाहनम्। | 1-1-33a 1-1-33b |
नास्ति नारायणसमं न भूतं न भविष्यति। | 1-1-34a 1-1-34b |
आचख्युः कवयः केचित्संप्रत्याचक्षते परे। | 1-1-35a 1-1-35b |
इदं तु त्रिषु लोकेषु महज्ज्ञानं प्रतिष्ठितम्। | 1-1-36a 1-1-36b |
अलङ्कृतं शुभैः शब्दैः समयैर्दिव्यधनुषैः। | 1-1-37a 1-1-37b |
तपसा ब्रह्मचर्येण व्यस्य वेदं सनातनम्। | 1-1-38a 1-1-38b |
`पुण्ये हिमवतः पादे मेध्ये गिरिगुहालये। | 1-1-39a 1-1-39b |
शुचिः सनियमो व्यासः शान्तात्मातपसि स्थितः | 1-1-40a 1-1-40b |
प्रविश्य योगं ज्ञानेन सोऽपश्यत्सर्वमन्ततः।। | 1-1-41a |
निष्प्रभेऽस्मिन्निरालोके सर्वतस्तमसा वृते। | 1-1-42a 1-1-42b |
युगस्यादिनिमित्तं तन्महद्दिव्यं प्रचक्षत। | 1-1-43a 1-1-43b |
अद्भुतं चाप्यचिन्त्यं च सर्वत्र समतां मतम्। | 1-1-44a 1-1-44b |
यस्मिन्पितामहो जज्ञे प्रभुरेकः प्रजापतिः। | 1-1-45a 1-1-45b |
प्राचेतसस्तथा दक्षो दक्षपुत्राश्च सप्तवै। | 1-1-46a 1-1-46b |
पुरुषश्चाप्रमेयात्मा यं सर्वऋषयो विदु। | 1-1-47a 1-1-47b |
यक्षाः साध्याः पिशाचाश्च गुह्यकाः पितरस्तथा। | 1-1-48a 1-1-48b |
महर्षयश्च बहवः सर्वैः समुदिता गुणैः। | 1-1-49a 1-1-49b |
संवत्सरर्तवो मासाः पक्षाहोरात्रयः क्रमात्। | 1-1-50a 1-1-50b |
यदिदं दृश्यते किंचिद्बूतं स्थावरजङ्गमम्। | 1-1-51a 1-1-51b |
यथर्तुष्वृतुलिङ्गानि नानारूपाणि पर्यये। | 1-1-52a 1-1-52b |
एवमेतदनाद्यन्तं भूतसंघातकारकम्। | 1-1-53a 1-1-53b |
त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रयस्त्रिंशच्छतानि च। | 1-1-54a 1-1-54b |
दिवः पुत्रो बृहद्भानुश्चक्षुरात्मा विभावसुः। | 1-1-55a 1-1-55b |
पुत्रा विवस्वतः सर्वे मनुस्तेषां तथाऽवरः। | 1-1-56a 1-1-56b |
सुभ्राजस्तु त्रयः पुत्राः प्रजावन्तो बहुश्रुताः। | 1-1-57a 1-1-57b |
दशपुत्रसहस्राणि दशज्योतेर्महात्मनः। | 1-1-58a 1-1-58b |
भूयस्ततो दशगुणाः सहस्रज्योतिषः सुताः। | 1-1-59a 1-1-59b |
ययातीक्ष्वाकृवंशश्च राजर्षीणां च सर्वशः। | 1-1-60a 1-1-60b |
भूतस्थानानि सर्वाणि रहस्यं त्रिविधं च यत्। | 1-1-61a 1-1-61b |
धर्मार्थकामयुक्तानि शास्त्राणि विविधानि च। | 1-1-62a 1-1-62b |
`नीतिर्भरतवंशस्य विस्तारश्चैव सर्वशः।' | 1-1-63a 1-1-63b |
इह सर्वमनुक्रान्तमुक्तं ग्रन्थस्य लक्षणम्। | 1-1-64a 1-1-64b |
विस्तीर्यैतन्महज्ज्ञानमृषिः संक्षिप्य चाब्रवीत्। | 1-1-65a 1-1-65b |
मन्वादि भारतं केचिदास्तीकादि तथाऽपरे। | 1-1-66a 1-1-66b |
विविधं संहिताज्ञानं दीपयन्ति मनीषिणः। | 1-1-67a 1-1-67b |
तपसा ब्रह्मचर्येण व्यस्य वेदं सनातनम्। | 1-1-68a 1-1-68b |
पराशरात्मजो विद्वान्ब्रह्मर्षिः संशितव्रतः। | 1-1-69a 1-1-69b |
क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य कृष्णद्वैपायनः पुरा। | 1-1-70a 1-1-70b |
उत्पाद्य धृतराष्ट्रं च पाण्डुं विदुरमेव च। | 1-1-71a 1-1-71b |
तेषु जातेषु वृद्धेषु गतेषु परमां गतिम्। | 1-1-72a 1-1-72b |
जनमेजयेन पृष्टः सन्ब्राह्मणैश्च सहस्रशः। | 1-1-73a 1-1-73b |
स सदस्यैः सहासीनं श्रावयामास भारतम्। | 1-1-74a 1-1-74b |
विस्तारं कुरुवंशस्य गान्धार्या धर्मशीलताम्। | 1-1-75a 1-1-75b |
वासुदेवस्य माहात्म्यं पाण्डवानां च सत्यताम्। | 1-1-76a 1-1-76b |
इदं शतसहस्रं तु श्लोकानां पुण्यकर्मणाम्। | 1-1-77a 1-1-77b |
चतुर्विंशतिसाहस्रीं चक्रे भारतसंहिताम्। | 1-1-78a 1-1-78b |
ततोऽध्यर्धशतं भूयः संक्षेपं कृतवानृषिः। | 1-1-79a 1-1-79b |
तस्याख्यानवरिष्ठस्य कृत्वा द्वैपायनः प्रभुः। | 1-1-80a 1-1-80b |
तस्य तच्चिन्तितं ज्ञात्वा ऋषेर्द्वैपायनस्य च। | 1-1-81a 1-1-81b |
प्रीत्यर्थं तस्य चैवर्षेर्लोकानां हितकाम्यया। | 1-1-82a 1-1-82b |
आसनं कल्पयामास सर्वैर्मुनिगणैर्वृतः।। | 1-1-83a |
हिरण्यमर्भमासीनं तस्मिंस्तु परमासने। | 1-1-84a 1-1-84b |
अनुज्ञातोऽथ कृष्णस्तु ब्रह्मणा परमेष्ठिना। | 1-1-85a 1-1-85b |
उवाच स महातेजा ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्। | 1-1-86a 1-1-86b |
ब्रह्मन्वेदरहस्य च यच्चान्यत्स्थापितं मया। | 1-1-87a 1-1-87b |
इतिहासपुरापानामुन्मेषं निमिषं च यत्। | 1-1-88a 1-1-88b |
जरामृत्युभयव्याधिभावाभावविनिश्चयः। | 1-1-89a 1-1-89b |
चातुर्वर्ण्यविधानं च पुराणानां च कृत्स्नशः। | 1-1-90a 1-1-90b |
ग्रहनक्षत्रताराणां प्रमाणं च युगैः सह। | 1-1-91a 1-1-91b |
न्यायशिक्षा चिकित्सा च दानं पाशुपतं तथा। | 1-1-92a 1-1-92b |
तीर्थानां चैव पुण्यानां देशानां चैव कीर्तनम्। | 1-1-93a 1-1-93b |
पुराणां चैव दिव्यानां कल्पानां युद्धकौशलम्। | 1-1-94a 1-1-94b |
यच्चापि सर्वगं वस्तु तच्चैव प्रतिपादितम्। | 1-1-95a 1-1-95b |
ब्रह्मोवाच। | 1-1-96x |
तपोविशिष्टदपि वै वसिष्ठान्मुनिपुंगवात्। | 1-1-96a 1-1-96b |
जन्मप्रभृति सत्यां ते वेद्मि गां ब्रह्मवादिनीम्। | 1-1-97a 1-1-97b |
अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे। | 1-1-98a 1-1-98b |
`जडान्धबधिरोन्मत्तं तमोभूतं जगद्भवेत्। | 1-1-99a 1-1-99b |
तमसान्धस्य लोकस्य वेष्टितस्य स्वकर्मभिः। | 1-1-100a 1-1-100b |
| 1-1-101a 1-1-101b |
पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्नाप्रकाशिना। | 1-1-102a 1-1-102b |
इतिहासप्रदीपेन मोहावरणघातिना। | 1-1-103a 1-1-103b |
संग्रहाध्यायबीजो वै पौलोमास्तीकमूलवान्। | 1-1-104a 1-1-104b |
आरण्यपर्वरूपाढ्यो विराटोद्योगसारवान्। | 1-1-105a 1-1-105b |
कर्णपर्वसितैः पुष्पैः शल्यपर्वसुगन्धिभिः। | 1-1-106a 1-1-106b |
अश्वमेधामृतसस्त्वाश्रमस्थानसंश्रयः। | 1-1-107a 1-1-107b |
सर्वेषां कविमुख्यानामुपजीव्यो भविष्यति। | 1-1-108a 1-1-108b |
काव्यस्य लेखनार्थाय गणेशः स्मर्यतां मुने। | 1-1-109a |
सौतिरुवाच। | 1-1-110x |
एवमाभाष्य तं ब्रह्मा जगाम स्वं निवेशनम्। | 1-1-110a 1-1-110b |
ततः सस्मार हेरम्बं व्यासः सत्यवतीसुतः।। | 1-1-111a |
स्मृतमात्रो गणेशानो भक्तचिन्तितपूरकः। | 1-1-112a 1-1-112b |
पूजितश्चोपविष्टश्च व्यासेनोक्तस्तदानघ। | 1-1-113a 1-1-113b 1-1-113c |
श्रुत्वैतत्प्राह विघ्नेशो यदि मे लेखनी क्षणम्। | 1-1-114a 1-1-114b |
व्यासोऽप्युवाच तं देवमबुद्ध्वा मा लिख क्वचित्। | 1-1-115a 1-1-115b |
ग्रन्थग्रन्थिं तदा चक्रे मुनिर्गूढं कुतूहलात्। | 1-1-116a 1-1-116b |
अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च। | 1-1-117a 1-1-117b |
तच्छ्लोककूटमद्यापि ग्रथितं सुदृढं मुने। | 1-1-118a 1-1-118b |
सर्वज्ञोपि गणेशो यत्क्षणमास्ते विचारयन्। | 1-1-119a 1-1-119b |
तस्य वृक्षस्य वक्ष्यामि शाखापुष्पफलोदयम्। | 1-1-120a 1-1-120b |
अनुक्रमणिकाध्यायं वृत्तान्तं सर्वपर्वणाम्। | 1-1-121a 1-1-121b |
ततोऽन्येभ्योऽनुरूपेभ्यः शिष्येभ्यः प्रददौ प्रभु | 1-1-122a 1-1-122b 1-1-122c |
पित्र्ये पञ्चदश प्रोक्तं रक्षोयक्षे चतुर्दश। | 1-1-123a 1-1-123b |
नारदोऽश्रावयद्देवानसितो देवलः पितृन्। | 1-1-124a 1-1-124b |
`वैशंपायनविप्रर्षिः श्रावयामास पार्थिवम्। | 1-1-125a 1-1-125b |
अस्मिंस्तु मानुषे लोके वैशंपायन उक्तवान्। | 1-1-126a 1-1-126b |
एकं शतसहस्रं तु मयोक्तं वै निबोधत।। | 1-1-127a |
दुर्योधनो मन्युमयो महाद्रुमः | 1-1-128a 1-1-128b 1-1-128c 1-1-128d |
युधिष्ठिरे धर्ममयो महाद्रुमः | 1-1-129a 1-1-129b 1-1-129c 1-1-129d |
पाण्डुर्जित्वा बहून्देशान्युधा विक्रमणेन च। | 1-1-130a 1-1-130b |
मृगव्यवायनिधनात्कृच्छ्रां प्राप स आपदम्। | 1-1-131a 1-1-131b |
मात्रोरभ्युपपत्तिश्च धर्मोपनिषदं प्रति। | 1-1-132a 1-1-132b |
`ततो धर्मोपनिषदं भूत्वा भर्तुः प्रिया पृथा। | 1-1-133a 1-1-133b |
तद्दत्तोपनिषन्माद्री चाश्विनावाजुहाव च। | 1-1-134a 1-1-134b 1-1-134c |
मेध्यारण्येषु पुण्येषु महतामाश्रमेषु च। | 1-1-135a 1-1-135b |
माद्र्या तु सह संगम्य ऋषिशापप्रभावतः। | 1-1-136a 1-1-136b |
ऋषिभिश्च समानीता धार्तराष्ट्रान्प्रति स्वयम्। | 1-1-137a 1-1-137b |
पुत्राश्च भ्रातरश्चेमे शिष्याश्च सुहृदश्च वः। | 1-1-138a 1-1-138b |
तांस्तैर्निवेदितान्दृष्ट्वा पाण्डवान्कौरवास्तदा। | 1-1-139a 1-1-139b |
आहुः केचिन्न तस्यैते तस्यैत इति चापरे। | 1-1-140a 1-1-140b |
स्वागतं सर्वथा दिष्ट्या पाण्डोः पश्याम सन्ततिम्। | 1-1-141a 1-1-141b |
तस्मिन्नुपरते शब्दे दिशः सर्वा निनादयन्। | 1-1-142a 1-1-142b |
पुष्पवृष्टिः शुभा गन्धाः शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनाः। | 1-1-143a 1-1-143b |
तत्प्रीत्या चैव सर्वेषां पौराणां हर्षसंभवः। | 1-1-144a 1-1-144b |
तेऽधीत्य निखिलान्वेदाञ्शास्त्राणि विविधानि च। | 1-1-145a 1-1-145b |
युधिष्ठिरस्य शौचेन प्रीताः प्रकृतयोऽभवन्। | 1-1-146a 1-1-146b |
गुरुशुश्रूषया कुन्त्या यमयोर्विनयेन च। | 1-1-147a 1-1-147b |
समवाये ततो राज्ञां कन्यां भर्तृस्वयंवराम्। | 1-1-148a 1-1-148b |
ततः प्रभृति लोकेऽस्मिन्पूज्यः सर्वधनुष्मताम्। | 1-1-149a 1-1-149b |
स सर्वान्पार्थिवाञ्जित्वा सर्वांश्च महतो गणान्। | 1-1-150a 1-1-150b |
| 1-1-151a 1-1-151b |
सुनयाद्वासुदेवस्य भीमार्जुनबलेन च। | 1-1-152a 1-1-152b |
दुर्योधनं समागच्छन्नर्हणानि ततस्ततः। | 1-1-153a 1-1-153b |
विचित्राणि च वासांसि प्रावारावरणानि च। | 1-1-154a 1-1-154b |
समृद्धां तां तथा दृष्ट्वा पाण्डवानां तदा श्रियम्। | 1-1-155a 1-1-155b |
विमानप्रतिमां तत्र मयेन सुकृतां सभाम्। | 1-1-156a 1-1-156b |
तत्रावहसितश्चासीत्प्रस्कन्दन्निव संभ्रमात्। | 1-1-157a 1-1-157b |
स भोगान्विविधान्भुञ्जन्रत्नानि विविधानि च। | 1-1-158a 1-1-158b |
अन्वजानात्ततो द्यूतं धृतराष्ट्रः सुतप्रियः। | 1-1-159a 1-1-159b |
नातिप्रीतमनाश्चासीद्विवादांश्चान्वमोदत। | 1-1-160a 1-1-160b |
निरस्य विदुरं भीष्मं द्रोणं शारद्वतं कृपम्। | 1-1-161a 1-1-161b |
जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्। | 1-1-162a 1-1-162b |
धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत्। | 1-1-163a 1-1-163b |
श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसंमतः। | 1-1-164a 1-1-164b |
न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाम्डुसुतेषु वा। | 1-1-165a 1-1-165b |
अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात्पुत्रप्रीत्या सहामि तत्। | 1-1-166a 1-1-166b |
राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः। | 1-1-167a 1-1-167b |
अमर्षितः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान्रणे। | 1-1-168a 1-1-168b |
गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत्। | 1-1-169a 1-1-169b |
श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः। | 1-1-170a 1-1-170b |
यदाऽश्रौषं धनुरायम्य चित्रं | 1-1-171a 1-1-171b 1-1-171c 1-1-171d |
यदाऽश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां | 1-1-172a 1-1-172b 1-1-172c 1-1-172d |
यदाऽश्रौषं देवराजं प्रवृष्टं | 1-1-173a 1-1-173b 1-1-173c 1-1-173d |
यदाऽश्रौषं जातुषाद्वेश्मनस्ता- | 1-1-174a 1-1-174b 1-1-174c 1-1-174d |
यदाऽश्रौषं द्रौपदीं रङ्गमध्ये | 1-1-175a 1-1-175b 1-1-175c 1-1-175d |
यदाऽश्रौषं मागधानां वरिष्ठं | 1-1-176a 1-1-176b 1-1-176c 1-1-176d |
यदाऽश्रौषं दिग्जये पाण्डुपुत्रै- | 1-1-177a 1-1-177b 1-1-177c 1-1-177d |
यदाऽश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं | 1-1-178a 1-1-178b 1-1-178c 1-1-178d |
यदाऽश्रौषं वाससां तत्र राशिं | 1-1-179a 1-1-179b 1-1-179c 1-1-179d |
यदाऽश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं | 1-1-180a 1-1-180b 1-1-180c 1-1-180d |
यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टा | 1-1-181a 1-1-181b 1-1-181c 1-1-181d |
यदाऽ?श्रौषं स्नातकानां सहस्रै- | 1-1-182a 1-1-182b 1-1-183c 1-1-183d |
`यदाऽश्रौषं वनवासेन पार्था- | 1-1-184a 1-1-184b 1-1-184c 1-1-184d |
यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनंजयं | 1-1-185a 1-1-185b 1-1-185c 1-1-185d |
यदाऽश्रोषं कालकेयास्ततस्ते | 1-1-186a 1-1-186b 1-1-186c 1-1-186d |
यदाऽश्रौषमसुराणां वधार्थे | 1-1-187a 1-1-187b 1-1-187c 1-1-187d |
`यदाऽश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं | 1-1-188a 1-1-188b 1-1-188c 1-1-188d |
यदाऽश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं | 1-1-189a 1-1-189b 1-1-189c 1-1-189d |
यदाऽश्रौषं घोषयात्रागतानां | 1-1-190a 1-1-190b 1-1-190c 1-1-190d |
यदाऽश्रौषं यक्षरूपेण धर्मं | 1-1-191a 1-1-191b 1-1-191c 1-1-191d |
यदाऽश्रौषं न विदुर्मामकास्तान् | 1-1-192a 1-1-192b 1-1-192c 1-1-192d |
`यदाऽश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं | 1-1-193a 1-1-193b 1-1-193c 1-1-193d |
यदाऽश्रौषं मामकानां वरिष्ठा- | 1-1-194a 1-1-194b 1-1-194c 1-1-194d |
यदाऽश्रौषं सत्कृतं मत्स्यराज्ञा | 1-1-195a 1-1-195b 1-1-195c 1-1-195d |
यदाऽश्रौषं निर्जितस्याधनस्य | 1-1-196a 1-1-196b 1-1-196c 1-1-196d |
यदाऽश्रौषं माधवं वासुदेवं | 1-1-197a 1-1-197b 1-1-197c 1-1-197d |
यदाऽश्रौषं नरनारायणौ तौ | 1-1-198a 1-1-198b 1-1-198c 1-1-198d |
यदाऽश्रौषं लोकहिताय कृष्णं | 1-1-199a 1-1-199b 1-1-199c 1-1-199d |
| 1-1-200a 1-1-200b 1-1-200c 1-1-200d |
यदाऽश्रौषं वासुदेवे प्रयाते | 1-1-201a 1-1-201b 1-1-201c 1-1-201d |
यदाऽश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवं | 1-1-202a 1-1-202b 1-1-202c 1-1-202d |
यदा कर्णो भीष्ममुवाच वाक्यं | 1-1-203a 1-1-203b 1-1-203c 1-1-203d |
यदाऽश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ | 1-1-204a 1-1-204b 1-1-204c 1-1-204d |
यदाऽश्रौषं कश्ललेनाभिपन्ने | 1-1-205a 1-1-205b 1-1-205c 1-1-205d |
यदाऽश्रौषं भीष्ममित्रकर्शनं | 1-1-206a 1-1-206b 1-1-206c 1-1-206d |
यदाऽश्रौषं चापगेयेन सङ्ख्ये | 1-1-207a 1-1-207b 1-1-207c 1-1-207d |
यदाऽश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं | 1-1-208a 1-1-208b 1-1-208c 1-1-208d |
यदाऽश्रौषं शरतल्पे शयानं | 1-1-209a 1-1-209b 1-1-209c 1-1-209d |
यदाऽश्रौषं शान्तनवे शयाने | 1-1-210a 1-1-210b 1-1-210c 1-1-210d |
यदाश्रौषं शुक्रसूर्यौ च युक्तौ | 1-1-211a 1-1-211b 1-1-211c 1-1-211d |
यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गा- | 1-1-212a 1-1-212b 1-1-212c 1-1-212d |
यदाऽश्रौषं चास्मदीयान्महारथा- | 1-1-213a 1-1-213b 1-1-213c 1-1-213d |
यदाऽश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यै- | 1-1-214a 1-1-214b 1-1-214c 1-1-214d |
यदाऽभिमन्युं परिवार्य बालं | 1-1-215a 1-1-215b 1-1-215c 1-1-215d |
यदाऽश्रौषमभिमन्युं निहत्य | 1-1-216a 1-1-216b 1-1-216c 1-1-216d |
यदाऽश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां | 1-1-217a 1-1-217b 1-1-217c 1-1-217d |
यदाऽश्रौषं श्रान्तहये धनंजये | 1-1-218a 1-1-218b 1-1-218c 1-1-218d |
यदाऽश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु | 1-1-219a 1-1-219b 1-1-219c 1-1-219d |
यदाऽश्रौषं नागबलैः सुदुःसहं | 1-1-220a 1-1-220b 1-1-220c 1-1-220d |
यदाऽश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं | 1-1-221a 1-1-221b 1-1-221c 1-1-221d |
यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च | 1-1-222a 1-1-222b 1-1-222c 1-1-222d |
यदाऽश्रौषं देवराजेन दत्तां | 1-1-223a 1-1-223b 1-1-223c 1-1-223d |
यदाऽश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यां | 1-1-224a 1-1-224b 1-1-224c 1-1-224d |
यदाऽश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकं | 1-1-225a 1-1-225b 1-1-225c 1-1-225d |
यदाऽश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थं | 1-1-226a 1-1-226b 1-1-226c 1-1-226d |
यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो | 1-1-227a 1-1-227b 1-1-227c 1-1-227d |
यदाऽश्रौषं भीमसेनेन पीतं | 1-1-228a 1-1-228b 1-1-228c 1-1-228d |
यदाऽश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं | 1-1-229a 1-1-229b 1-1-229c 1-1-229d |
यदाऽश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं | 1-1-230a 1-1-230b 1-1-230c 1-1-230d |
यदाऽश्रौषं निहतं मद्रराजं | 1-1-231a 1-1-231b 1-1-231c 1-1-231d |
यदाऽश्रौषं कलहद्यूतमूलं | 1-1-232a 1-1-232b 1-1-232c 1-1-232d |
यदाऽश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं | 1-1-233a 1-1-233b 1-1-233c 1-1-233d |
यदाऽश्रौषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान् | 1-1-234a 1-1-234b 1-1-234c 1-1-234d |
यदाऽश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान् | 1-1-235a 1-1-235b 1-1-235c 1-1-235d |
यदाऽश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तै- | 1-1-236a 1-1-236b 1-1-236c 1-1-236d |
यदाऽश्रौषं भीमसेनानुयाते- | 1-1-237a 1-1-237b 1-1-237c 1-1-237d |
यदाऽश्रौषं ब्रह्मशिरोऽर्जुनेन | 1-1-238a 1-1-238b 1-1-238c 1-1-238d |
यदाऽश्रौषं द्रोणपुत्रेण गर्भे | 1-1-239a 1-1-239b 1-1-239c 1-1-239d |
द्वैपायनः केशवो द्रोणपुत्रं | 1-1-240a 1-1-240b 1-1-240c 1-1-240d |
शोच्या गान्धारी पुत्रपौत्रैर्विहीना | 1-1-241a 1-1-241b 1-1-241c 1-1-241d |
कष्टं युद्धे दश शेषाः श्रुता मे | 1-1-242a 1-1-242b 1-1-242c 1-1-242d |
तमस्त्वतीव विस्तीर्णं मोह आविशतीव माम्। | 1-1-243a 1-1-243b |
सौतिरुवाच। | 1-1-244x |
इत्युक्त्वा धृतराष्ट्रोऽथ विलप्य बहु दुःखितः। | 1-1-244a 1-1-244b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 1-1-245x |
संजयैवं गते प्राणांस्त्यक्तुमिच्छामि मा चिरम्। | 1-1-245a 1-1-245b |
सौतिरुवाच। | 1-1-246x |
तं तथा वादिनं दीनं विलपन्तं महीपतिम्। | 1-1-246a 1-1-246b |
गावल्गणिरिदं धीमान्महार्थं वाक्यमब्रवीत्। | 1-1-247a |
संजय उवाच। | 1-1-247x |
श्रुतवानसि वै राजन्महोत्साहान्महाबलान्।। | 1-1-247b |
द्वैपायनस्य वदतो नारदस्य च धीमतः। | 1-1-248a 1-1-248b |
जातान्दिव्यास्त्रविदुषः शक्रप्रतिमतेजसः। | 1-1-249a 1-1-249b |
अस्मिँल्लोके यशः प्राप्य ततः कालवशं गतान्। | 1-1-250a 1-1-250b |
| 1-1-251a 1-1-251b |
विश्वामित्रममित्रघ्नमम्बरीषं महाबलम्। | 1-1-252a 1-1-252b |
रामं दाशरथिं चैव शशबिन्दुं भगीरथम्। | 1-1-253a 1-1-253b |
ययातिं शुभकर्माणं देवैर्यो याजितः स्वयम्। | 1-1-254a 1-1-254b |
इति राज्ञां चतुर्विंशन्नारदेन सुरर्षिणा। | 1-1-255a 1-1-255b |
तेभ्यश्चान्ये गताः पूर्वं राजानो बलवत्तराः। | 1-1-256a 1-1-256b |
पूरुः कुरुर्यदुः शूरो विष्वगश्वो महाद्युतिः। | 1-1-257a 1-1-257b |
विजयो वीतिहोत्रोऽह्गो भवः श्वेतो बृहद्गुरुः। | 1-1-258a 1-1-258b |
दम्भोद्भवः परो वेनः सगरः संकृतिर्निमिः। | 1-1-259a 1-1-259b |
देवाह्वयः सुप्रतिमः सुप्रतीको बृहद्रथः। | 1-1-260a 1-1-260b |
सत्यव्रतः शान्तभयः सुमित्रः सुबलः प्रभुः। | 1-1-261a 1-1-261b |
बलबन्धुर्निरामर्दः केतुशृङ्गो बृहद्बलः। | 1-1-262a 1-1-262b |
अविक्षिच्चपलो धूर्तः कृतबन्धुर्दृढेषुधिः। | 1-1-263a 1-1-263b |
एते चान्ये च राजानः शतशोऽथ सहस्रशः। | 1-1-264a 1-1-264b |
हित्वा सुविपुलान्भोगान्बुद्धिमन्तो महाबलाः। | 1-1-265a 1-1-265b |
येषां दिव्यानि कर्माणि विक्रमस्त्याग एव च। | 1-1-266a 1-1-266b |
विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणैः कविसत्तमैः। | 1-1-267a 1-1-267b |
तव पुत्रा दुरात्मानः प्रतप्ताश्चैव मन्युना। | 1-1-268a 1-1-268b |
श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसंमतः। | 1-1-269a 1-1-269b |
निग्रहानुग्रहौ चापि विदितौ ते नराधिप। | 1-1-270a 1-1-270b |
भवितव्यं तथा तच्च नानुशोचितुमर्हसि। | 1-1-271a 1-1-271b |
विधातृविहितं मार्गं न कश्चिदतिवर्तते। | 1-1-272a 1-1-272b |
कालः सृजति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। | 1-1-273a 1-1-273b |
कालो विकुरुते भावान्सर्वांल्लोके शुभाशुभान्। | 1-1-274a 1-1-274b |
कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः। | 1-1-275a 1-1-275b |
अतीतानागता भावा ये च वर्तन्ति सांप्रतम्। | 1-1-276a 1-1-276b |
सौतिरुवाच। | 1-1-277x |
इत्येवं पुत्रशोकार्तं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्। | 1-1-277a 1-1-277b |
धृतराष्ट्रोऽपि तच्छ्रुत्वा धृतिमेव समाश्रयत्। | 1-1-278a 1-1-278b |
लोकानां च हितार्थाय कारुण्यान्मुनिसत्तमः। | 1-1-279a 1-1-279b |
विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः। | 1-1-280a 1-1-280b 1-1-280c |
देवा देवर्षयो ह्यत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः। | 1-1-281a 1-1-281b |
भगवान्वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः। | 1-1-282a 1-1-282b |
शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम्। | 1-1-283a 1-1-283b |
असत्सत्सदसच्चैव यस्माद्विश्वं प्रवर्तते। | 1-1-284a 1-1-284b |
अध्यात्मं श्रूयतें यत्र पञ्चभूतगुणात्मकम्। | 1-1-285a 1-1-285b |
यं ध्यायन्ति सदा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः। | 1-1-286a 1-1-286b |
श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः। | 1-1-287a 1-1-287b |
अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः। | 1-1-288a 1-1-288b |
उभे सन्ध्ये जपन्किंचित्सद्यो मुच्येत किल्बिषात्। | 1-1-289a 1-1-289b |
भारतस्य वपुर्ह्येतत्सत्यं चामृतमेव च। | 1-1-290a 1-1-290b |
आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा। | 1-1-291a 1-1-291b |
यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते। | 1-1-292a 1-1-292b |
अक्षय्यमन्नपानं वै पितृंस्तस्योपतिष्ठते। | 1-1-293a 1-1-293b |
बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रतरिष्यति। | 1-1-294a 1-1-294b |
भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम्। | 1-1-295a 1-1-295b |
अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः। | 1-1-296a 1-1-296b |
स दीर्घमायुः कीर्तिं च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः। | 1-1-297a 1-1-297b |
पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम्। | 1-1-298a 1-1-298b |
तदाप्रभृति लोकेऽस्मिन्महाभारतमुच्यते। | 1-1-299a 1-1-299b |
महत्त्वाद्भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते। | 1-1-300a 1-1-300b |
तपो नकल्कोऽध्ययनं नकल्कः | 1-1-301a 1-1-301b 1-1-301c 1-1-301d |
इति श्रीमन्माहाभारते आदिपर्वणि | |
।। अनुक्रमणिकापर्व समाप्तम् ।। |
1-1-1 श्रीलक्ष्मीनृसिंहाय नमः।। श्रीहयग्रीवाय नमः।। श्रीवेदव्यासाय नमः।। इह खलु भगवान्पाराशर्यः परमकारुणिको मन्दमतीननुग्रहीतुं चतुर्दशविद्यास्थानान्येकत्र दिदर्शयिषुर्महाभारताख्यमितिहासं प्रणेष्यन्प्रारिप्सितस्य निष्प्रत्यूहारिपूरणाय प्रचयगमनाय च मङ्गलं रचयन् शिष्यशिक्षायै लोकरूपेम निबघ्नन्नर्यात्तत्र प्रेक्षावत्प्रवृत्त्यङ्गमभिधेयादि दर्शयति।। नारायणमिति।। नरोत्तमं पुरुषोत्तमं नारायणं नरं देवी सरस्वतीं (व्यासं) चैव नमस्कृत्य जयं भारताख्यमितिहासं उदीरयेत्।। 1-1-2 लक्षालङ्कारव्याख्यानरीत्यायमाद्यः श्लोकः।। 1-1-3 कतिपयकोशरीत्यायस्पद्यः।। 3 ।। 1-1-5 रोमहर्षणपुत्रः रोमाणि हर्षयाञ्चके श्रोतॄणा यः स्वभाषितैः। कर्मणा प्रथितस्तेन रोमहर्षणसंज्ञया। इति कौर्मे निरुक्तार्थनाम्नः पुत्रः। अग्रश्रवाः उग्रस्य नृसिंहस्य श्रवः श्रवणं यस्य सः। पौराणिकः पुराणे कृतश्रमः। नैमिशारण्ये वायवीये। एतन्मनोमयं चक्रं मया सृष्टं विसृज्यते। यत्रास्य शीर्यते नेमिः स देशस्तपसः शुभः। इत्युक्त्वा सूर्यसंकाशं चक्रं सृष्ट्वा मनोमयम्। प्रणिपत्य महादेवं विससर्ज पितामहः। तेपि हृष्टतरा विप्राः प्रणम्य जगतां प्रभुम्. प्रययुस्तस्य चक्रस्य यत्र नेमिर्व्यशीर्यत। तद्वनं तेन विख्यातं नैमिशं मुनिपूजितम्। इति उक्तरूपे। नैमिषेति पाठे तु वाराहे। एवं कृत्वा ततो देवो मुनि गौरमुखं तदा। उवाच निमिषेणेदं निहतं दानवं बलं। अरण्येऽस्मिंस्ततस्त्वेतन्नैमिषारण्यसंज्ञितं। इति निर्वचनं द्रष्टव्यं। शुनकस्य मुनेरपत्यं शौनकः। कुलपतेः। एको दशसहस्राणि योऽन्नदानादिना भरेत्। स वै कुलपतिः इत्युक्तलक्षणस्य। सत्रे ये यजमानास्तएव ऋत्विजो यस्मिन्बहुकर्तृके क्रतौ स सत्रसंज्ञ तस्मिन्।। 5 ।। 1-1-7 नैमिशारण्यवासिनः तान्सर्वानृषीनुवाचेत्यन्वयः।। 7 ।। 1-1-8 अहं तपोधनाः सिकीः सर्वाः कथा वेद जानामि।। 8 ।। 1-1-11 निर्दिष्टं इहोपविश्यतामिति दर्शितम्।। 11 ।। 1-1-12 प्रस्तावयन् उपोद्धातयन्।। 12 ।। 1-1-13 विहृतः नीतः।। 13 ।। 1-1-14 तेषां मुनीनां चादन्येषां राजादीनां च यानि चरितानि तेषामाश्रयभूतम्। भावितात्मनां शोधितचित्तानाम्।। 14 ।। 1-1-18 समन्तपञ्चकं समन्तात् पञ्चकं परशुरामकृतहृदपञ्चकं यस्मिंस्तत्। स्यमन्तपञ्चकमित्यपि पाठो दृश्यते।। 18 ।। 1-1-21 ब्रवीमि किमहं द्विजाः अहं च पुराणादिष्वन्यतमं किं ब्रवीमि तदाज्ञापयतेति शेषः।। 21 ।। 1-1-25 संस्कारोपगतां पदादिव्युत्पत्तिमतीम्। ब्राह्मो वाचं। ब्राह्मी तु भारती भाषेत्यमरः।। 25 ।। 1-1-28 मङ्गलाचरणपूर्वकं मुनिभिः प्रार्थितमर्थं वक्तुं प्रतिजानीते आद्यमित्यदिचतुर्भिः। हरिं नमस्कृत्य महर्षेर्मतं प्रवक्ष्यामीत्यन्वयः। पुरुहूतं पुरुभिर्बहुभिर्होतृभिः हूतं आहूतं। पुरुभिः सामगैः स्तुतं। ऋतं सत्यं। एकश्चासावक्षरश्च तं। एकं अद्वितीयं समाधिकरहितमिति वा। अक्षरं नाशरहितं। व्यख्यव्यक्तं रामकृष्णादिरूपेण दृश्यं। ज्ञानानन्दादिरूपेण मन्देरदृश्यं।। 28 ।। 1-1-30 मङ्गल्यं मङ्गलप्रदं।। 30 ।। 1-1-36 ज्ञानं ज्ञानसाधनं इदं भारत त्रिषु लोकेषु प्रतिष्ठितम्।। 36 ।। 1-1-37 समयैः संकेतैः। छन्दोवृत्तैः त्रिष्टुबादिछन्दोन्तीतैरिन्द्रवज्रादिभिर्वृत्तैः।। 37 ।। 1-1-45 यस्मिन् ब्रह्माण्डे।। 45 ।। 1-1-52 प्रतिकल्पं सृष्टेः समाननामरूपत्वमाह यथेति।। 52 ।। 1-1-53 कल्पानामानन्त्यमाह एवमिति।। 53 ।। 1-1-54 एवं जडसृष्टिमुक्त्वा चेतनसृष्टिमाह त्रयन्निंशदिति।। 54 ।। 1-1-61 भूतस्थानानि नृणां वासस्थानानि नगरादीनि।। 61 ।। 1-1-64 इह सर्वमनुकान्तं अनुकमेण उक्तं।। 64 ।। 1-1-65 समासः सङ्क्षेपः। व्यासो विस्तारः।। 65 ।। 1-1-66 भारतारम्भे मतभेदमाह मन्वादीति। मन्वादि मनुर्मन्त्रः नारायणं नमस्कृत्येति। ॐ नमो भगवते वासुदेवायेति वा तदादि। प्रस्तीकं आस्तीकचरितं तदादि। उपरिचरो वसुः तच्चरितादि वा।। 66 ।। 1-1-67 बह्वर्थत्वाद्विविधं संहिताज्ञानं दीपयन्ति प्रकाशयन्ति।। 67 ।। 1-1-69 महुः सत्यवत्याः। गाङ्गेयस्य भीष्मस्य।। 69 ।। 1-1-70 क्षत्र भार्यासु अम्बिकादिषु।। 70 ।। 1-1-71 परमां गतिं मृत्युं।। 71 ।। 1-1-73 शशासं त्वममन् भारतं श्रावयेत्याज्ञापितवान्।। 73 ।। 1-1-84 वसोः अपत्यं स्त्री वास्त्री तस्याः अपत्यं वासवेयो व्यासः।। 84 ।। 1-1-85 कृष्णो व्यासः।। 85 ।। 1-1-98 विशेषणे अतिशायने।। 98 ।। 1-1-104 विटङ्काः पक्ष्युपवेशनस्थानानि।। 104 ।। 1-1-105 सारो मज्जा।। 105 ।। 1-1-106 विश्रामः छाया।। 106 ।। 1-1-108 आश्रमस्थानसंश्रयः आश्रमवासिकस्यण्डिलः। मौसलश्रुतिसंक्षेपः मौसलादिग्रन्थः श्रुतिस्थानीयदीर्घशाखान्तः।। 108 ।। 1-1-112 यतः यत्र देशे।। 112 ।। 1-1-115 अबुद्ध्वा अर्थमिति शेषः। ओमित्यङ्गीकारे।। 115 ।। 1-1-116 अन्थग्रन्थिं ग्रन्थे दुर्भेद्यस्थानं।। 116 ।। 1-1-131 कृच्छ्रां आपदं व्यवायकाले मरिष्यसीत्येवं शापरूपां। तत्र आपदि एवं सत्यामपि पार्थानां पाण्डवानां जन्मप्रभृति आचारविधिक्रमः अभूदिति शेषः।। 131 ।। 1-1-132 आचारविधिक्रममेवाह। मात्रोरिति। मात्रोः कुन्तीमाद्योः। धर्मोपनिषदं प्रति आपदि अपत्यार्थे विशिष्टः पुमान्प्रार्थनीय इत्येवरूपं धर्मरहस्यं प्रति। अभ्युपपत्तिः अङ्गीकारः।। 132 ।। 1-1-137 धार्तराष्ट्रान्धृतराष्ट्रसंबन्धिगृहान्।। 137 ।। 1-1-142 अन्तर्हितानां भूतानां निःस्वनः पाण्डुपुत्रा एवैते इत्येवंरूपा अशरीरवाक्।। 142 ।। 1-1-148 भर्तारं स्वयमेव वृणुत इति भर्तृस्वयंवरां।। 148 ।। 1-1-150 राज्ञो युधिष्ठिरस्य।। 150 ।। 1-1-157 अनभिजातवत् ग्रामीणवत्।। 157 ।। 1-1-160 धृतराष्ट्रो यद्विवादानन्वमोदत यच्चानयानुपैक्षत तस्माद्वासुदेवस्य कोपः समभवत्।। 160 ।। 1-1-161 दहन् अदहत्।। 161 ।। 1-1-173 प्रवृष्टं वर्षणे प्रवृत्तं।। 173 ।। 1-1-181 चेष्टाः बाहुवीक्षणाद्याः।। 181 ।। 1-1-182 स्नातकानां समापितविद्याव्रतानां ब्राह्मणानां।। 182 ।। 1-1-185 शंसितं प्रशस्यं।। 185 ।। 1-1-197 इमां गां पृथिवीं यस्य वासुदेवस्य एकं विक्रमं पदमात्रमाहुः।। 197 ।। 1-1-198 यौ नरनारायणौ ब्रह्मलोके अहं द्रष्टा अद्राक्षं तौ कृष्णार्जुनौ अर्जुनकृष्णौ इति वदतो नारदस्य नारदात्।। 198 ।। 1-1-200 बहुधा विश्वरूपत्वेन।। 200 ।। 1-1-202 तेषां पाण्डवानां।। 202 ।। 1-1-209 सोमकानेव अल्पशेषान्कृत्वा।। 209 ।। 1-1-210 चोदितमर्जुनं च। गां भित्त्वाम्बो वारुणेनाददाने इति पाठान्तरं।। 210 ।। 1-1-223 व्यंसितां व्यर्थीकृतां।। 223 ।। 1-1-237 क्रुद्धेनैषीकं चावधीद्यन्न गर्भं इति पाठान्तरम्।। 1-1-280 पूयन्ते नश्यन्ति।। 280 ।। 1-1-294 कार्ष्णं कृष्णेन व्यासेन प्रोक्तं।। 294 ।। 1-1-301 ननु वेदेभ्यः कथमिदमधिकं अत्र युद्धप्रधानानां कर्मणां बन्धनहेतूनां कथनादुपनिषदि तावन्मोक्षसाधनानां धर्माणां ब्रह्मणश्च प्रतिपादनादिति चेत्तत्राह। तप इति। तपः कृच्छ्रचान्द्रायणादि नकल्कः पापनाशकं। स्वाभाविकः स्वस्ववर्णाश्रमादिपुरस्कारेण विहितः। वेदविधिः वेदोक्तो विधिः सन्ध्योपासनादिः। प्रसह्य प्रकर्षेण सोढ्वा क्षुधादिदुःखमपि सोढ्वा। वित्तस्य आहरणं शिलोञ्छादिना अर्जनं। तान्येव तपआदीन्येव भावेन फलानुसन्धानेन उपहतानि प्रतिषिद्धानि। कल्कः पापहेतुः। तथाचात्रापि मोक्षधर्मादिषु तत्रतत्र निष्कामकर्मणां प्रतिपादनं ब्रह्मनिरूपणं चास्त्येव। अतो वेदादप्युत्तमं भारतं।। 301 ।। इति टिप्पणे प्रथमोऽध्यायः।। 1 ।।
आदिपर्व अध्यायाः | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-002 |