महाभारतम्-01-आदिपर्व-041
दिखावट
← आदिपर्व-040 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-041 वेदव्यासः |
आदिपर्व-042 → |
मुनिपुत्राच्छृङ्गिणः परीक्षितः शापः।। 1 ।।
सौतिरुवाच। | 1-41-1x |
एवमुक्तः स तेजस्वी शृङ्गी कोपसमन्वितः। मृतधारं गुरुं श्रुत्वा पर्यतप्यत मन्युना।। | 1-41-1a 1-41-1b |
स त कृशमक्षिप्रेक्ष्य सूनृतां वाचमुत्सृजन्। अपृच्छत्तं कथं तातः `सर्वभूतहिते रतः।। | 1-41-2a 1-41-2b |
अनन्यचेताः सततं विष्णुं दवेमतोषयत्। वन्यान्नभोजी सततं मुनिर्मौनव्रते स्थितः। एवंभूतः स तेजस्वी' स मेऽद्य मृतधारकः।। | 1-41-3a 1-41-3b 1-41-3c |
कृश उवाच। | 1-41-4x |
राज्ञा परिक्षिता तात मृगयां परिधावता। अवसक्तः पितुस्तेऽद्य मृतः स्कन्धे भुजङ्गमः।। | 1-41-4a 1-41-4b |
शृङ्ग्युवाच। | 1-41-5x |
किं मे पित्रा कृतं तस्य राज्ञोऽनिष्टं दुरात्मनः। ब्रूहि तत्कृश तत्त्वेन पश्य मे तपसो बलम्।। | 1-41-5a 1-41-5b |
कृश उवाच। | 1-41-6x |
स राजा मृगयां यातः परिक्षिदभिमन्युजः। ससार मृगमेकाकी विद्ध्वा बाणेन शीघ्रगम्।। | 1-41-6a 1-41-6b |
न चापश्यन्मृगं राजा चरंस्तस्मिन्महावने। पितरं ते स दृष्ट्वैव पप्रच्छानभिभाषिणम्।। | 1-41-7a 1-41-7b |
तं स्थाणुभूतं तिष्ठन्तं क्षुत्पिपासाश्रमातुरः। पुनःपुनर्मृगं नष्टं प्रपच्छ पितरं तव।। | 1-41-8a 1-41-8b |
स च मौनव्रतोपेतो नैव तं प्रत्यभाषत। तस्य राजा धनुष्कोट्या सर्पं स्कन्धे समासजत्।। | 1-41-9a 1-41-9b |
शृङ्गिंस्तव पिता सोऽपि तथैवास्ते यतव्रतः। सोऽपि राजा स्वनगरं प्रस्थितो गजसाह्वयम्।। | 1-41-10a 1-41-10b |
सौतिरुवाच। | 1-41-11x |
श्रुत्वैवमृषिपुत्रस्तु शवं स्कन्धे प्रतिष्ठितम्। कोपसंरक्तनयनः प्रज्वलन्निव मन्युना।। | 1-41-11a 1-41-11b |
आविष्टः स हि कोपेन शशाप नृपतिं तदा। वार्युपस्पृश्य तेजस्वी क्रोधवेगबलात्कृतः।। | 1-41-12a 1-41-12b |
शृङ्ग्युवाच। | 1-41-13x |
योऽसौ वृद्धस्य तातस्य तथा कृच्छ्रगतस्य ह। स्कन्धे मृतं समास्राक्षीत्पन्नगं राजकिल्विषी।। | 1-41-13a 1-41-13b |
तं पापमतिसंक्रुद्धस्तक्षकः पन्नगेश्वरः। आशीविषस्तिग्मतेजा मद्वाक्यबलचोदितः।। | 1-41-14a 1-41-14b |
सप्तरात्रादितो नेता यमस्य सदनं प्रति। द्विजानामवमन्तारं कुरूणामयशस्करम्।। | 1-41-15a 1-41-15b |
सौतिरुवाच। | 1-41-16x |
इति शप्त्वातिसंक्रुद्धः शृङ्गी पितरमभ्यगात्। आसीनं ग्रोव्रजे तस्मिन्वहन्तं शवपन्नगम्।। | 1-41-16a 1-41-16b |
स तमलक्ष्य पितरं शृङ्गी स्कन्धगतेन वै। शवेन भुजगेनासीद्भूयः क्रोधसमाकुलः।। | 1-41-17a 1-41-17b |
दुःखाच्चाश्रूणि मुमुचे पितरं चेदमब्रवीत्। श्रुत्वेमां धर्षणां तात तव तेन दुरात्मना।। | 1-41-18a 1-41-18b |
राज्ञा परिक्षिता कोपादशपं तमहं नृपम्। यथार्हति स एवोग्रं शापं कुरुकुलाधमः। सप्तमेऽहनि तं पापं तक्षकः पन्नगोत्तमः।। | 1-41-19a 1-41-19b 1-41-19c |
वैवस्वतस्य सदनं नेता परमदारुणम्। | 1-41-20a |
सौतिरुवाच। | 1-41-20x |
तमब्रवीत्पिता ब्रह्मंस्तथा कोपसमन्वितम्।। | 1-41-20b |
शमीक उवाच। | 1-41-21x |
न मे प्रियं कृतं तात नैष धर्मस्तपस्विनाम्। वयं तस्य नरेन्द्रस्य विषये निवसामहे।। | 1-41-21a 1-41-21b |
न्यायतो रक्षितास्तेन तस्य पापं न रोचये। सर्वथा वर्तमानस्य राज्ञो ह्यस्मद्विधैः सदा।। | 1-41-22a 1-41-22b |
क्षन्तव्यं पुत्र धर्मो हि हतो हन्ति न संशयः। यदि राजा न संरक्षेत्पीडा नः परमा भवेत्।। | 1-41-23a 1-41-23b |
न शक्नुयाम चरितुं धर्मं पुत्र यथासुखम्। रक्षमाणा वयं तात राजभिर्धर्मदृष्टिभिः।। | 1-41-24a 1-41-24b |
चरामो विपुलं धर्मं तेषां भागोऽस्ति धर्मतः। सर्वथा वर्तमानस्य राज्ञः क्षन्तव्यमेव हि।। | 1-41-25a 1-41-25b |
परिक्षित्तु विशेषेण यथाऽस्य प्रपितामहः। रक्षत्यस्मांस्तथा राज्ञा रक्षितव्याः प्रजा विभो।। | 1-41-26a 1-41-26b |
अराजके जनपदे दोषा जायन्ति वै सदा। उद्वृत्तं सततं लोकं राजा दण्डेन शास्ति वै।। | 1-41-27a 1-41-27b |
दण्डात्प्रतिभयं भूयः शान्तिरुत्पद्यते तदा। नोद्विग्नश्चरते धर्मं नोद्विग्नश्चरते क्रियाम्।। | 1-41-28a 1-41-28b |
राज्ञा प्रतिष्ठितो धर्मो धर्मात्स्वर्गः प्रतिष्ठितः। राज्ञो यज्ञक्रियाः सर्वा यज्ञाद्देवाः प्रतिष्ठिताः।। | 1-41-29a 1-41-29b |
देवाद्वृष्टिः प्रवर्तेत वृष्टेरोषधयः स्मृताः। ओषधिभ्यो मनुष्याणां धारयन्सततं हितम्।। | 1-41-30a 1-41-30b |
मनुष्याणां च यो धाता राजा राज्यकरः पुनः। दशश्रोत्रियसमो राजा इत्येवं मनुरब्रवीत्।। | 1-41-31a 1-41-31b |
तेनेह क्षुधितेनैत्य श्रान्तेन मृगलिप्सुना। अजानता कृतं मन्ये व्रतमेतदिदं मम।। | 1-41-32a 1-41-32b |
कस्मादिदं त्वया बाल्यात्सहसा दुष्कृतं कृतम्। न ह्यर्हति नृपः शापमस्मत्तः पुत्र सर्वथा।। | 1-41-33a 1-41-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः।। 41 ।। |
1-41-10 गजसाह्वयं हस्तिनपुरम्।। 1-41-13 कृच्छ्रगतस्य मौनव्रतधरस्य। राजा चासौ किल्बिषी च राजकिल्बिषी।। 1-41-21 विषये देशे।। 1-41-22 पापं द्रोहम्।। 1-41-27 दोषाः दस्युपीडादयः।। 1-41-30 मनुष्याणां हितं धारयन् कुर्वन्।। 1-41-31 धाता पोषकः।। 1-41-32 व्रतमजानतेति संबन्धः।। एकचत्वारिंशोऽध्यायः।। 41 ।।
आदिपर्व-040 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-042 |