महाभारतम्-01-आदिपर्व-099
दिखावट
← आदिपर्व-098 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-099 वेदव्यासः |
आदिपर्व-100 → |
दुष्यन्तशकुन्तलाविवादः।। १ ।।
शकुन्तलोवाच। | 1-99-1x |
राजन्सर्षपमात्राणि परच्छिद्राणि पश्यसि। आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसि।। | 1-99-1a 1-99-1b |
मेनका त्रिदशेष्वेव त्रिदशाश्चानु मेनकाम्। ममैवोद्रिच्यते जन्म दुष्यन्त तव जन्मतः।। | 1-99-2a 1-99-2b |
क्षितौ चरसि राजंस्त्वमन्तरिक्षे चराम्यहम्। आवयोरन्तरं पश्य मेरुसर्षपयोरिव।। | 1-99-3a 1-99-3b |
महेन्द्रस्य कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च। भवनान्यनुसंयामि प्रभावं पश्य मे नृप।। | 1-99-4a 1-99-4b |
`पुरा नरवरः पुत्र उर्वश्यां जनितस्तदा। आयुर्नाम महाराज तव पूर्वपितामहः।। | 1-99-5a 1-99-5b |
महर्षयश्च बहवः क्षत्रियाश्च परन्तपाः। अप्सरःसु ऋषीणां च मातृदोषो न विद्यते।।' | 1-99-6a 1-99-6b |
सत्यश्चापि प्रवादोऽयं प्रवक्ष्यामि च ते नृप। निदर्शनार्थं न द्वेषाच्छ्रुत्वा तत्क्षन्तुमर्हसि।। | 1-99-7a 1-99-7b |
विरूपो यावदादर्शे नात्मनो वीक्षते मुखम्। मन्यते तावदात्मानमन्येभ्यो रूपवत्तरम्।। | 1-99-8a 1-99-8b |
यदा तु रूपमादर्शे विरूपं सोऽभिवीक्षते। तदा ह्रीमांस्तु जानीयादन्तरं नेतरं जनम्।। | 1-99-9a 1-99-9b |
अतीव रूपसंपन्नो न कंचिदवमन्यते। अतीव जल्पन्दुर्वाचो भवतीह विहेतुकः।। | 1-99-10a 1-99-10b |
`पांसुपातेन हृष्यन्ति कुञ्जरा मदशालिनः। तथा परिवदन्नन्यान्हृष्टो भवति दुर्मतिः।। | 1-99-11a 1-99-11b |
सत्यधर्मच्युतात्पुंसः क्रुद्धादाशीविषादिव। सुनास्तिकोप्युद्विजते जनः किं पुनरास्तिकः।। | 1-99-12a 1-99-12b |
स्वयमुत्पाद्य पुत्रं वै सदृशं योऽवमन्यते। तस्य देवाः श्रियं घ्नन्ति तत्रैनं कलिराविशेत्।। | 1-99-13a 1-99-13b |
अभव्येऽप्यनृतेऽशुद्धे नास्तिके पापकर्मणि। दुराचारे कलिर्ह्याशु न कलिर्धर्मचारिषु।।' | 1-99-14a 1-99-14b |
मूर्खो हि जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः। अशुभं वाक्यमादत्ते पुरीषमिव सूकरः।। | 1-99-15a 1-99-15b |
प्राज्ञस्तु जल्पतां पुंसां श्रुत्वा वाचः शुभाशुभाः। गुणवद्वाक्यमादत्ते हंसः क्षीरमिवाम्भसि।। | 1-99-16a 1-99-16b |
`आत्मनो दुष्टभावत्वं जानन्नीचोऽप्रसन्नधीः। परेषामपि जानाति स्वधर्मसदृशान्गुणान्।। | 1-99-17a 1-99-17b |
दह्यमानास्तु तीव्रेण नीचाः परयशोग्निना। अशक्तास्तद्गतिं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते।।' | 1-99-18a 1-99-18b |
अन्यान्परिवदन्साधुर्यथा हि परितप्यते। तथा परिवदन्नन्यान्हृष्टो भवति दुर्जनः।। | 1-99-19a 1-99-19b |
`अपवादरता मूर्खा भवन्ति हि विशेषतः। नापवादरताः सन्तो भवन्ति स्म विशेषतः।।' | 1-99-20a 1-99-20b |
अभिवाद्य यथा वृद्धान्साधुर्गच्छति निर्वृतिम्। एवं सज्जनमाक्रुश्य मूर्खो भवति निर्वृतः।। | 1-99-21a 1-99-21b |
सुखं जीवन्त्यदोषज्ञा मूर्खा दोषानुदर्शिनः। यथा वाच्याः परैः सन्तः परानाहुस्तथाविधान्।। | 1-99-22a 1-99-22b |
अतो हास्यतरं लोके किंचिदन्यन्न विद्यते। यदि दुर्जन इत्याहुः सज्जनं दुर्जनाः स्वयम्।। | 1-99-23a 1-99-23b |
`दारुणाल्लोकसंक्लेशाद्दुःखमाप्नोत्यसंशयम्।।' कुलवंशप्रतिष्ठां हि पितरः पुत्रमब्रुवन्।। | 1-99-24a 1-99-24b |
उत्तमं सर्वधर्माणां तस्मात्पुत्रं तु न त्यजेत्। स्वपत्नीप्रभवाँल्लब्धान्कृतान्समयवर्धितान्।। | 1-99-25a 1-99-25b |
क्रीतान्कन्यासु चोत्पन्नान्पुत्रान्वै मनुरब्रवीत्। `ते च षड्वन्धुदायादाः षडदायादबान्धवाः।। | 1-99-26a 1-99-26b |
धर्मकृत्यवहा नॄणां मनसः प्रीतिवर्धनाः। त्रायन्ते नरकाज्जाताः पुत्रा धर्मप्लवाः पितॄन्।। | 1-99-27a 1-99-27b |
स त्वं नृपतिशार्दूल न पुत्रं त्यक्तुमर्हसि। तस्मात्पुत्रं च सत्यं च पालयस्व महीपते।। | 1-99-28a 1-99-28b |
उभयं पालयस्वैतन्नानृतं वक्तुमर्हसि।' आत्मानं सत्यधर्मौ च पालयेथा महीपते। नरेन्द्रसिंह कपटं न हि वोढुं त्वमर्हसि।। | 1-99-29a 1-99-29b 1-99-29c |
वरं कूपशताद्वापी वरं वापीशतात्क्रतुः। वरं क्रतुशतात्पुत्रः सत्यं पुत्रशताद्वरम्।। | 1-99-30a 1-99-30b |
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्। अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।। | 1-99-31a 1-99-31b |
सर्ववेदाधिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम्। सत्यस्यैव च राजेन्द्र कलां नार्हति षोडशीम्।। | 1-99-32a 1-99-32b |
नास्ति सत्यसमो धर्मो न सत्याद्विद्यते परम्। न हि तीव्रतरं पापमनृतादिह विद्यते।। | 1-99-33a 1-99-33b |
राजन्सत्यं परो धर्मः सत्याच्च समयः परः। मात्याक्षीः समयं राजन्सत्यं सङ्गतमस्तु ते।। | 1-99-34a 1-99-34b |
`यः पापो न विजानीयात्कर्म कृत्वा नराधिप। न हि तादृक्परं पापमनृतादिह विद्यते।। | 1-99-35a 1-99-35b |
यस्य ते हृदयं वेद सत्यस्यैवानृतस्य च। कल्याणावेक्षणं तस्मात्कर्तुमर्हसि धर्मतः।। | 1-99-36a 1-99-36b |
यो न कामान्न च क्रोधान्न द्रोहादतिवर्तते। अमित्रं वापि मित्रं वा स एवोत्तमपूरुषः।।' | 1-99-37a 1-99-37b |
अनृतश्चेत्प्रसङ्गस्ते श्रद्दधासि न चेत्स्वयम्। आश्रमं गन्तुमिच्छामि त्वादृशो नास्ति सङ्गतं।। | 1-99-38a 1-99-38b |
`पुत्रत्वे शङ्कमानस्य त्वं बुद्ध्या निश्चयं कुरु। गतिः स्वरः स्मृतिः सत्वं शीलं विद्या च विक्रमः।। | 1-99-39a 1-99-39b |
धृष्णुप्रकृतिभावौ च आवर्ता रोमराजयः। समा यस्य यदा स्युस्ते तस्य पुत्रो न संशयः।। | 1-99-40a 1-99-40b |
सादृश्येनोद्धऋतं बिम्बं तव देहाद्विशांपते। तातेति भाषमाणं वै मा स्म राजन्वृथा कृथाः।। | 1-99-41a 1-99-41b |
ऋते च गर्दभीक्षीरात्पयः पास्यति मे सुतः।' ऋतेपि त्वां च दुष्यन्त शैलराजावतंसिकाम्। चतुरन्तामिमामुर्वीं पुत्रो मे पालयिष्यति।। | 1-99-42a 1-99-42b 1-99-42c |
`शकुन्तले तव सुतश्चक्रवर्ती भविष्यति। एवमुक्तं महेन्द्रेण भविष्यति न चान्यथा।। | 1-99-43a 1-99-43b |
साक्षित्वे बहवो ह्युक्ता देवदूतादयो मया। न ब्रुवन्ति तथा सत्यमुताहो नानृतं किल।। | 1-99-44a 1-99-44b |
असाक्षिणी मन्दबाग्या गमिष्यामि यथागतम्।।' | 1-99-45a |
वैशंपायन उवाच। | 1-99-46x |
एतावदुक्त्वा वचनं प्रातिष्ठत शकुन्तला। `तस्याः क्रोधसमुत्थोग्निः सधूमो मूर्ध्न्यदृश्यत।। | 1-99-46a 1-99-46b |
संनियम्यात्मनोऽङ्गेषु ततः क्रोधाग्निमात्मजम्। प्रस्थितैवानवद्याङ्गी सह पुत्रेण वै वनम्'।। | 1-99-47a 1-99-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि एकोनशततमोऽध्यायः।। 99 ।। |
आदिपर्व-098 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-100 |