महाभारतम्-01-आदिपर्व-118
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कंचित्कालं भीष्मेण राज्यपरिपालनानन्तरं पाण्डो राज्येऽभिषेकः।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-118-1x |
`धृतराष्ट्रे च पाण्डौ च विदुरे च महात्मनि।' एषु त्रिषु कुमारेषु जातेषु कुरुजाङ्गलम्। कुरवोऽथ कुरुक्षेत्रं त्रयमेतदवर्धत।। | 1-118-1a 1-118-1b 1-118-1c |
ऊर्ध्वसस्याऽभवद्भूमिः सस्यानि फलवन्ति च। यथर्तुवर्षी पर्जन्यो बहुपुष्पफला द्रुमाः।। | 1-118-2a 1-118-2b |
वाहनानि प्रहृष्टानि मुदिता मृगपक्षिणः। गन्धवन्ति च माल्यानि रसवन्ति फलानि च।। | 1-118-3a 1-118-3b |
वणिग्भिश्चान्वकीर्यन्त नगराण्यथ शिल्पिभिः। शूराश्च कृतविद्याश्च सन्तश्च सुखिनोऽभवन्।। | 1-118-4a 1-118-4b |
नाभवन्दस्यवः केचिन्नाधर्मरुचयो जनाः। प्रदेशेष्वपि राष्ट्राणां कृतं युगमवर्तत।। | 1-118-5a 1-118-5b |
धर्मक्रिया यज्ञशीलाः सत्यव्रतपरायणाः। अन्योन्यप्रीतिसंयुक्ता व्यवर्धन्त प्रजास्तदा।। | 1-118-6a 1-118-6b |
मानक्रोधविहीनाश्च नरा लोभविवर्जिताः। अन्योन्यमभ्यनन्दन्त धर्मोत्तरमवर्तत।। | 1-118-7a 1-118-7b |
तन्महोदधिवत्पूर्णं नगरं वै व्यरोचत। द्वारतोरणनिर्यूहैर्युक्तमभ्रचयोपमैः।। | 1-118-8a 1-118-8b |
प्रसादशतसंबाधं महेन्द्रपुरसन्निभम्। नदीषु वनखण्डेषु वापीपल्वलसानुषु। काननेषु च रम्येषु विजह्रुर्मुदिता जनाः।। | 1-118-9a 1-118-9b 1-118-9c |
उत्तरैः कुरुभिः सार्धं दक्षिणाः कुरवस्तथा। विस्पर्धमाना व्यचरंस्तथा देवर्षिचारणैः।। | 1-118-10a 1-118-10b |
नाभवत्कृपणः कश्चिन्नाभवन्विधवाः स्त्रियः। तस्मिञ्जनपदे रम्ये कुरुभिर्बहुलीकृते।। | 1-118-11a 1-118-11b |
कूपारामसभावाप्यो ब्राह्मणावसथास्तथा। बभूवुः सर्वर्द्धियुतास्तस्मिन्राष्ट्रे सदोत्सवाः।। | 1-118-12a 1-118-12b |
भीष्मेण धर्मतो राजन्सर्वतः परिरक्षिते। बभूव रमणीयश्च चैत्ययूपशताङ्कितः।। | 1-118-13a 1-118-13b |
स देशः परराष्ट्राणि विमृज्याभिप्रवर्धितः। भीष्मेण विहितं राष्ट्रे धर्मचक्रमवर्तत।। | 1-118-14a 1-118-14b |
क्रियमाणेषु कृत्येषु कुमाराणां महात्मनाम्। पौरजानपदाः सर्वे बभूवुः परमोत्सुकाः।। | 1-118-15a 1-118-15b |
गृहेषु कुरुमुख्यानां पौराणां च नराधिप। दीयतां भुज्यतां चेति वाचोऽश्रूयन्त सर्वशः।। | 1-118-16a 1-118-16b |
धृतराष्ट्रश्च पाण्डुश्च विदुरश्च महामतिः। जन्मप्रभृति भीष्मेण पुत्रवत्परिपालिताः।। | 1-118-17a 1-118-17b |
संस्कारैः संस्कृतास्ते तु व्रताध्ययनसंयुताः। श्रमव्यायामकुशलाः समपद्यन्त यौवनम्।। | 1-118-18a 1-118-18b |
धनुर्वेदे च वेदे च गदायुद्धेऽसिचर्मणि। तथैव गजशिक्षायां नीतिशास्त्रेषु पारगाः।। | 1-118-19a 1-118-19b |
इतिहासपुराणेषु नानाशिक्षासु बोधिताः। वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञाः सर्वत्र कृतनिश्चयाः।। | 1-118-20a 1-118-20b |
`वैदिकाध्ययने युक्तो नीतिशास्त्रेषु पारगः। भीष्मेण राजा कौरव्यो धृतराष्ट्रोऽभिषेचितः।। | 1-118-21a 1-118-21b |
धनुर्वेदेऽश्वपृष्ठे च गदायुद्धेऽसिचर्मणि। तथैव गजशिक्षायामस्त्रेषु विविधेषु च।। | 1-118-22a 1-118-22b |
अर्थधर्मप्रधानासु विद्यासु विविधासु च। गतः पारं यदा पाण्डुस्तदा सेनापतिः कृतः।।' | 1-118-23a 1-118-23b |
पाण्डुर्धनुषि विक्रान्तो नरेष्वभ्यदिकोऽभवत्। अन्येभ्यो बलवानासीद्धृतराष्ट्रो महीपतिः।। | 1-118-24a 1-118-24b |
अमात्यो मनुजेन्द्रस्य बाल एव यशस्विनः। भीष्मेण सर्वधर्माणां प्रणेता विदुरः कृतः।। | 1-118-25a 1-118-25b |
`सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो बुद्धिमेधापटुर्युवा। भावेनागमयुक्तेन सर्वं वेदयते जगत्।।' | 1-118-26a 1-118-26b |
त्रिषु लोकेषु न त्वासीत्कश्चिद्विदुरसंमितः। धर्मनित्यस्तथा राजन्धर्मं च परमं गतः।। | 1-118-27a 1-118-27b |
प्रनष्टं शान्तनोर्वंशं समीक्ष्य पुनरुद्धृतम्। ततो निर्वचनं लोके सर्वराष्ट्रेष्ववर्तत।। | 1-118-28a 1-118-28b |
वीरसूनां काशिसुते देशानां कुरुजाङ्गलम्। सर्वध्रमविदां भीष्मः पुराणां गजसाह्वयम्।। | 1-118-29a 1-118-29b |
धृतराष्ट्रस्त्वचक्षुष्ट्वाद्रज्यं न प्रत्यपद्यत। पारसवत्वाद्विदुरो राजा पाण्डुर्बभूव ह।। | 1-118-30a 1-118-30b |
`अथ शुश्राव विप्रेभ्यः कुन्तिभोजमहीपतेः। रूपयौवनसंपन्नां सुतां सागरगासुतः।। | 1-118-31a 1-118-31b |
सुबलस्य च कल्याणीं गान्धाराधिपतेः सुताम्। सुतां च मद्रराजस्य रूपेणाप्रतिमां भुवि।।' | 1-118-32a 1-118-32b |
कदाचिदथ गाङ्गेयः सर्वनीतिमतां वरः। विदुरं धर्मतत्त्वज्ञं वाक्यमाह यथोचितम्।। | 1-118-33a 1-118-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 118 ।। |
1-118-2 ऊर्ध्वसस्या प्रचुरसस्या।। 1-118-18 श्रमः शास्त्राभ्यासः। व्यायामो बाहुयुद्धाद्यभ्यासः।। 1-118-28 निर्वचनं प्रशंसा।। 1-118-30 पारसवत्वाच्छूद्रायां ब्राह्मणाज्जातत्वात्।। अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 118 ।।
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