महाभारतम्-01-आदिपर्व-249
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खाण्डववनदहनार्थं कृष्णार्जुनौप्रति अग्नेः प्रार्थना।। 1 ।।
जनमेजयस्य अग्निकृतखाण्डवदाहप्रार्थनाकारणप्रश्नानुरोधेनवैशंपायनेन श्वेतकिराजोपाख्यानकथनम्।। 2 ।।
बहूनि वर्षाण्यविच्छिन्नं यजतः श्वेतकेर्यागेन श्रान्तैर्ऋत्विग्भिः पुनर्याजना नङ्गीकरणम्।। 3 ।।
आराधितस्य शङ्करस्याज्ञया द्वादशवर्षपर्यन्तं संतताज्यधारयाऽग्नेस्तोषणम्।। 4 ।।
पुनराराधितस्य शङ्करस्याज्ञया दुर्वाससः साहाय्येन यजतो राज्ञो मखे बहुहविर्भोजनेनाग्नेर्ग्लानिः।। 5 ।।
तत्परिहारार्थं प्रार्थितेन ब्रह्मणा खाण्डवभक्षणविधानम्।। 6 ।।
खाण्डवं दग्धुं सप्तकृत्वो यतितवतोऽप्यग्नेः तत्रत्यैर्गजादिसत्वैर्जलसेकेन निर्वापणम्।। 7 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-249-1x |
सोऽब्रवीदर्जुनं चैव वासुदेवं च सात्वतम्। लोकप्रवीरौ तिष्ठन्तौ काण्डवस्य समीपतः।। | 1-249-1a 1-249-1b |
ब्राह्मणो बहुभोक्ताऽस्मि बुञ्जेऽपरिमितं सदा। भिक्षे वार्ष्णेयपार्थौ वामेकां तृप्तिं प्रयच्छतम्।। | 1-249-2a 1-249-2b |
एवमुक्तो तमब्रूतां ततस्तौ कृष्णपाण्डवौ। केनान्नेन भवांस्तृप्येत्तस्यान्नस्य यतावहे।। | 1-249-3a 1-249-3b |
एवमुक्तः स भगवानब्रवीत्तावुभौ ततः। भाषमाणौ तदा वीरौ किमन्नं क्रियतामिति।। | 1-249-4a 1-249-4b |
ब्राह्मण उवाच। | 1-249-5x |
नाहमन्नं बुभुक्षे वै पावकं मां निबोधतम्। यदन्नमनुरूपं मे तद्युवां संप्रयच्छतम्।। | 1-249-5a 1-249-5b |
इदमिन्द्रः सदा दावं खाण्डवं परिरक्षति। न च शक्नोम्यहं दग्धुं रक्ष्यमाणं महात्मना।। | 1-249-6a 1-249-6b |
वसत्यत्र सखा तस्य तक्षकः पन्नगः सदा। सगणस्तत्कृते दावं परिरक्षति वज्रभृत्।। | 1-249-7a 1-249-7b |
तत्र भूतान्यनेकानि रक्ष्यन्तेऽस्य प्रसङ्गतः। तं दिधक्षुर्न शक्नोमि दग्धुं शक्रस्य तेजसा।। | 1-249-8a 1-249-8b |
स मां प्रज्वलितं दृष्ट्वा मेघाम्भोभिः प्रवर्षति। ततो दग्धुं न शक्नोमि दिधक्षुर्दावमीप्सितम्।। | 1-249-9a 1-249-9b |
स युवाभ्यां सहायाभ्यामस्त्रविद्भ्यां समागतः। दहेयं खाण्डवं दावमेतदन्नं वृतं मया।। | 1-249-10a 1-249-10b |
युवां ह्युदकधारास्ता भूतानि च समन्ततः। उत्तमास्त्रविदौ सम्यक्सर्वतो वारयिष्यथः।। | 1-249-11a 1-249-11b |
जनमेजय उवाच। | 1-249-12x |
किमर्थं भगवानग्निः खाण्डवं दग्धुमिच्छति। रक्ष्यमाणं महेन्द्रेण नानासत्वसमायुतम्।। | 1-249-12a 1-249-12b |
न ह्येतत्कारणं ब्रह्मन्नल्पं संप्रतिभाति मे। यद्ददाह सुसंक्रुद्धः खाण्डवं हव्यवाहनः।। | 1-249-13a 1-249-13b |
एतद्विस्तरशो ब्रह्मन्श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः। खाण्डवस्य पुरा दाहो यथा समभवन्मुने।। | 1-249-14a 1-249-14b |
वैशंपायन उवाच। | 1-249-15x |
शृणु मे ब्रुवतो राजन्सर्वमेतद्यथातथम्। यन्निमित्तं ददाहाग्निः खाण्डवं पृथिवीपते।। | 1-249-15a 1-249-15b |
हन्त ते कथयिष्यामि पौराणीमृषिसंस्तुताम्। कथामिमां नरश्रेष्ठ खाण्डवस्य विनाशिनीम्।। | 1-249-16a 1-249-16b |
पौराणः श्रूयते राजन्राजा हरिहयोपमः। श्वेतकिर्नाम विख्यातो बलविक्रमसंयुतः।। | 1-249-17a 1-249-17b |
यज्वा दानपतिर्धीमान्यथा नान्योऽस्ति कश्चन। `जग्राह दीक्षां स नृपः तदा द्वादशवार्षिकीम्।। | 1-249-18a 1-249-18b |
तस्य सत्रे सदा तस्मिन्समागच्छन्महर्षयः। वेदवेदाङ्गविद्वांसो ब्राह्मणाश्च सहस्रशः।।' | 1-249-19a 1-249-19b |
ईजे च स महायज्ञैः क्रतुभिश्चाप्तदक्षिणैः।। | 1-249-20a |
तस्य नान्याऽभवद्बुद्धिर्दिवसे दिवसे नृप। सत्रे क्रियासमारम्भे दानेषु विविधेषु च।। | 1-249-21a 1-249-21b |
ऋत्विग्भिः सहितो धीमानेवमीजे स भूमिपः। ततस्तु ऋत्विजश्चास्य धूमव्याकुललोचनाः।। | 1-249-22a 1-249-22b |
कालेन महता खिन्नास्तत्यजुस्ते नराधिपम्। ततः प्रसादयामास ऋत्विजस्तान्महीपतिः।। | 1-249-23a 1-249-23b |
चक्षुर्विकलतां प्राप्ता न प्रपेदुश्च ते क्रतुम्। ततस्तेषामनुमते तद्विप्रैस्तु नराधिपः।। | 1-249-24a 1-249-24b |
सत्रं समापयामास ऋत्विग्भिरपरैः सह। तस्यैवंवर्तमानस्य कदाचित्कालपर्यये।। | 1-249-25a 1-249-25b |
सत्रमहार्तुकामस्य संवत्सरशतं किल। ऋत्विजो नाभ्यपद्यन्त समाहर्तुं महात्मनः।। | 1-249-26a 1-249-26b |
स च राजाऽकरोद्यत्नं महान्तं ससुहृज्जनः। प्रणिपातेन सान्त्वेन दानेन च महायशाः।। | 1-249-27a 1-249-27b |
ऋत्विजोऽनुनयामास भूयो भूयस्त्वतन्द्रितः। ते चास्य तमभिप्रायं न चक्रुरमितौजसः।। | 1-249-28a 1-249-28b |
स चाश्रमस्थान्राजर्षिस्तानुवाच रुषान्वितः। यद्यहं पतितो विप्राः शुश्रूषायां न च स्थितः।। | 1-249-29a 1-249-29b |
आशु त्याज्योऽस्मि युष्माभिर्ब्राह्मणैश्च जुगुप्सितः। तन्नार्हथ क्रतुश्रद्धां व्याघातयितुमद्य ताम्।। | 1-249-30a 1-249-30b |
अस्थाने वा परित्यागं कर्तुं मे द्विजसत्तमाः। प्रपन्न एव वो विप्राः प्रसादं कर्तुमर्हथ।। | 1-249-31a 1-249-31b |
सान्त्वदानादिभिर्वाक्यैस्तत्त्वतः कार्यवत्तया। प्रसादयित्वा वक्ष्यामि यन्नः कार्यं द्विजोत्तमाः।। | 1-249-32a 1-249-32b |
अथवाऽहं परित्यक्तो भवद्भिर्द्वेषकारणात्। ऋत्विजोऽन्यान्गमिष्यामि याजनार्थं द्विजोत्तमाः।। | 1-249-33a 1-249-33b |
एतावदुक्त्वा वचनं विरराम स पार्थिवः। यदा न शेकू राजानं याजनार्थं परन्तप।। | 1-249-34a 1-249-34b |
ततस्ते याजकाः क्रुद्धास्तमूचुर्नृपसत्तमम्। तव कर्माम्यजस्रं वै वर्तन्ते पार्थिवोत्तम।। | 1-249-35a 1-249-35b |
ततो वयं परिश्रान्ताः सततं कर्मवाहिनः। श्रमादस्मात्परिश्रान्तान्स त्वं नस्त्यक्तुमर्हसि।। | 1-249-36a 1-249-36b |
बुद्धिमोहं समास्थाय त्वरासंभावितोऽनघ। गच्छ रुद्रसकाशं त्वं सहि त्वां याजयिष्यति।। | 1-249-37a 1-249-37b |
साधिक्षेपं वचः श्रुत्वा संक्रुद्धः श्वेतकिर्नृपः। कैलासं पर्वतं गत्वा तप उग्रं समास्थितः।। | 1-249-38a 1-249-38b |
आराधयन्महादेवं नियतः संशितव्रतः। उपवासपरो राजन्दीर्घकालमतिष्ठत।। | 1-249-39a 1-249-39b |
कदाचिद्द्वादशे काले कदाचिदपि षोडशे। आहारमकरोद्राजा मूलानि च फलानि च।। | 1-249-40a 1-249-40b |
ऊर्ध्वबाहुस्त्वनिमिषस्तिष्ठन्स्थाणुरिवाचलः। षण्मासानभवद्राजा श्वेतकिः सुसमाहितः।। | 1-249-41a 1-249-41b |
तं तथा नृपशार्दूलं तप्यमानं महत्तपः। शङ्करः परमप्रीत्या दर्शयामास भारत।। | 1-249-42a 1-249-42b |
उवाच चैनं भगवान्स्निग्धगम्भीरया गिरा। प्रीतोऽस्मि नरशार्दूल तपसा ते परन्तप।। | 1-249-43a 1-249-43b |
वरं वृणीष्व भद्रं ते यं त्वमिच्छसि पार्थिव। एतच्छ्रुत्वा तु वचनं रुद्रस्यामिततेजसः।। | 1-249-44a 1-249-44b |
प्रणिपत्य महात्मानं राजर्षिः प्रत्यभाषत। यदि मे भगवान्प्रीतः सर्वलोकनमस्कृतः।। | 1-249-45a 1-249-45b |
स्वयं मां देवदेवेश याजयस्व सुरेश्वर। एतच्छ्रुत्वा तु वचनं राज्ञा तेन प्रभाषितम्।। | 1-249-46a 1-249-46b |
उवाच भगवान्प्रीतः स्मितपूर्वमिदं वचः। नास्माकमेतद्विषये वर्तते याजनं प्रति।। | 1-249-47a 1-249-47b |
त्वया च सुमहत्तप्तं तपो राजन्वरार्थिना। याजयिष्यामि राजंस्त्वां समयेन परन्तप।। | 1-249-48a 1-249-48b |
समा द्वादश राजेन्द्र ब्रह्मचारी समाहितः। सततं त्वाज्यधाराभिर्यदि तर्पयसेऽनलम्।। | 1-249-49a 1-249-49b |
कामं प्रार्थयसे यं त्वं मत्तः प्राप्स्यसि तं नृप। एवमुक्तश्च रुद्रेण श्वेतकिर्मनुजाधिपः।। | 1-249-50a 1-249-50b |
तथा चकार तत्सर्वं यथोक्तं शूलपाणिना। पूर्णे तु द्वादशे वर्षे पुनरायान्महेश्वरः।। | 1-249-51a 1-249-51b |
दृष्टैव च स राजानं शङ्करो लोकभावनः। उवाच परमप्रीतः श्वेतकिं नृपसत्तमम्।। | 1-249-52a 1-249-52b |
तोषितोऽहं नृपश्रेष्ठ त्वयेहाद्येन कर्मणा।। याजनं ब्राह्मणानां तु विधिदृष्टं परन्तप।। | 1-249-53a 1-249-53b |
अतोऽहं त्वां स्वयं नाद्य याजयामि परन्तप। ममांशस्तु क्षितितले महाभागो द्विजोत्तमः।। | 1-249-54a 1-249-54b |
दुर्वासा इति विख्यातः स हि त्वां याजयिष्यति। मन्नियोगान्महातेजाः संभाराः संभ्रियन्तु ते।। | 1-249-55a 1-249-55b |
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं रुद्रेण समुदाहृतम्। स्वपुरं पुनरागम्य संभारान्पुनरार्जयत्।। | 1-249-56a 1-249-56b |
ततः संभृतसंभारो भूयो रुद्रमुपागमत्। `उवाच च महिपालः प्राञ्जलिः प्रणतः स्थितः।' संभृता मम संभाराः सर्वोपकरणानि च।। | 1-249-57a 1-249-57b 1-249-57c |
त्वत्प्रसादानमहादेव श्वो मे दीक्षा भवेदिति। एतच्छ्रुत्वा तु वचनं तस्य राज्ञो महात्मनः।। | 1-249-58a 1-249-58b |
दुर्वाससं समाहूय रुद्रो वचनमब्रवीत्। एष राजा महाभागः श्वेतकिर्द्विजसत्तम।। | 1-249-59a 1-249-59b |
एनं याजय विप्रेन्द्र मन्नियोगेन भूमिपम्। बाढमित्येव वचनं रुद्रं त्वृषिरुवाच ह।। | 1-249-60a 1-249-60b |
ततः सत्रं समभवत्तस्य राज्ञो महात्मनः। यथाविधि यथाकालं यथोक्तं बहुदक्षिणम्।। | 1-249-61a 1-249-61b |
तस्मिन्परिसमाप्ते तु राज्ञः सत्रे महात्मनः। दुर्वाससाऽभ्यनुज्ञाता विप्रतस्थुः स्म याजकाः।। | 1-249-62a 1-249-62b |
ये तत्र दीक्षिताः सर्वे सदस्याश्च महौजसः। सोऽपि राजन्महाभागः स्वपुरं प्राविशत्तदा।। | 1-249-63a 1-249-63b |
पूज्यमानो महाभागैर्ब्राह्मणैर्वेदपारगैः। बन्दिभिः स्तूयमानश्च नागरैश्चाभिनन्दितः।। | 1-249-64a 1-249-64b |
एवंवृत्तः स राजर्षिः श्वेतकिर्नृपसत्तमः। कालेन महता चापि ययौ स्वर्गमभिष्टुतः।। | 1-249-65a 1-249-65b |
ऋत्विग्भिः सहितः सर्वैः सदस्यैश्च समन्वितः। तस्य सत्रे पपौ वह्निर्हविद्वार्दशवत्सरान्।। | 1-249-66a 1-249-66b |
सततं चाज्यधाराभिरैकात्म्ये तत्र कर्मणि। हविषा च ततो वह्निः परां तृप्तिमगच्छत।। | 1-249-67a 1-249-67b |
न चैच्छत्पुनरादातुं हविरन्यस्य कस्यचित्। पाण्डुवर्णो विवर्णश्च न यतावत्प्रकाशते।। | 1-249-68a 1-249-68b |
ततो भघवतो वह्नेर्विकारः समजायत। तेजसा विप्रहीणश्च ग्लानिश्चैनं समाविशत्।। | 1-249-69a 1-249-69b |
स लक्षयित्वा चात्मानं तेजोहीनं हुताशनः। जगाम सदनं पुण्यं ब्रह्मणो लोकपूजितम्।। | 1-249-70a 1-249-70b |
तत्र ब्रह्माणमासीनमिदं वचनमब्रवीत्। भगवन्परमा प्रीतिः कृता श्वेतकिना मम।। | 1-249-71a 1-249-71b |
अरुचिश्चाभवत्तीव्रा तां न शक्नोम्यपोहितुम्। तेजसा विप्रहीणोऽस्मि बलेन च जगत्पते।। | 1-249-72a 1-249-72b |
इच्छेयं त्वत्प्रसादेन स्वात्मनः प्रकृतिं स्थिराम्। एतच्छ्रुत्वा हुतवहाद्भगवान्सर्वलोककृत्।। | 1-249-73a 1-249-73b |
हव्यवाहमिदं वाक्यमुवाच प्रहसन्निव। त्वया द्वादश वर्षाणि वसोर्धाराहुतं हविः।। | 1-249-74a 1-249-74b |
उपयुक्तं महाभाग तेन त्वां ग्लानिराविशत्। तेजसा विप्रहीणत्वात्सहसा हव्यवाहन।। | 1-249-75a 1-249-75b |
मागमस्त्वं व्यथां वह्ने प्रकृतिस्थो भविष्यसि। अरुचिं नाशयिष्येऽहं समयं प्रतिपद्य ते।। | 1-249-76a 1-249-76b |
पुरा देवनियोगेन यत्त्वया भस्मसात्कृतम्। आलयं देवशत्रूणां सुघोरं खाण्डवं वनम्।। | 1-249-77a 1-249-77b |
तत्र सर्वाणि सत्वानि निवसन्ति विभावसो। तेषां त्वं मेदसा तृप्तः प्रकृतिस्थो भविष्यसि।। | 1-249-78a 1-249-78b |
गच्छ शीघ्रं प्रदग्धुं त्वं ततो मोक्ष्यसि किल्विषात्। एतच्छुत्वा तु वचनं परमेष्ठिमुखाच्च्युतम्।। | 1-249-79a 1-249-79b |
उत्तमं जवमास्थाय प्रदुद्राव हुताशनः। आगम्य खाण्डवं दावमुत्तमं वीर्यमास्थितः। सहसा प्राज्वलच्चाग्निः क्रुद्धो वायुसमीरितः।। | 1-249-80a 1-249-80b 1-249-80c |
प्रदीप्तं खाण्डवं दृष्ट्वा ये स्युस्तत्र निवासिनः। परमं यत्नेमातिष्ठन्पावकस्य प्रशान्तये।। | 1-249-81a 1-249-81b |
करैस्तु करिणः शीघ्रं जलमादाय सत्वराः। सिषिचुः पावकं क्रुद्धाः शतशोऽथ सहस्रशः।। | 1-249-82a 1-249-82b |
बहुशीर्षास्ततो नागाः शिरोभिर्जलसन्ततिम्। मुमुचुः पावकाभ्याशे सत्वराः क्रोधमूर्च्छिताः।। | 1-249-83a 1-249-83b |
तथैवान्यानि सत्वानि नानाप्रहरणोद्यमैः। विलयं पावकं शीघ्रमनयन्भरतर्षभ।। | 1-249-84a 1-249-84b |
अनेन तु प्रकारेण भूयोभूयश्च प्रज्वलन्। सप्तकृत्वः प्रशमितः खाण्डवे हव्यवाहनः।। | 1-249-85a 1-249-85b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि खाण्डवदाहपर्वणि ऊनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 249 ।। |
1-249-20 इक्ष्वाकूणामधिरथो यज्वा विपुलदक्षिणः इति ङ. पाठः।।
1-249-37 त्वरासंभावितः त्वरायुक्तः।। 1-249-73 प्रकृतिं स्वभावम्।। 1-249-74 वसोर्धारा पात्रविशेषः। येन हूयमानं घृतद्रव्यं संततधारारूपेण क्षरति। तेन हुतं हविरर्थाद्धृतमेव वसोर्धारां जुहोतीत्युपक्रम्य घृतस्य वा एवमेषा धारेति वाक्यशेषात्।। 1-249-75 उपयुक्तं भुक्तम्।। ऊनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 249 ।।
आदिपर्व-248 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-250 |