महाभारतम्-01-आदिपर्व-239
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रवैतकपर्वतंप्रति उत्सवार्थं कृष्णादीनां गमनम्।। 1 ।।
तत्र कृष्णस्य परिव्राजकरूपार्जुनदर्शनम्।। 2 ।।
सुभद्रादर्शनेन तस्यां संजातहृच्छयस्यार्जुनस्य यतिरूपेण सुभद्राहरणे कुष्णानुज्ञालाभः।। 3 ।।
दूतेनिवेदितैतद्वृत्तान्तेन सपरिवारेण युधिष्ठिरेणाभ्यनुज्ञानम्।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-239-1x |
ततः कतिपयाहस्य तस्मिन्रैवतके गिरौ। वृष्ण्यन्धकानामभवदुत्सवो नृपसत्तम।। | 1-239-1a 1-239-1b |
तत्र दानं ददुर्वीरा ब्राह्मणेभ्यः सहस्रशः। भोजवृष्ण्यन्धकाश्चैव महे तस्य गिरेस्तदा।। | 1-239-2a 1-239-2b |
प्रसादै रत्नचित्रैश्च गिरेस्तस्य समन्ततः। स देशः शोभितो राजन्कल्पवृक्षैश्च सर्वशः।। | 1-239-3a 1-239-3b |
वादित्राणि च तत्रान्ये वादकाः समवादयन्। ननृतुर्नर्तकाश्चैव जगुर्गेयानि गायनाः।। | 1-239-4a 1-239-4b |
अलङ्कृताः कुमाराश्च वृष्णीनां सुमहौजसाम्। यानैर्हाटकचित्रैश्च चञ्चूर्यन्ते स्म सर्वशः।। | 1-239-5a 1-239-5b |
पौराश्च पादचारेण यानैरुच्चावचैस्तथा। सदाराः सानुयात्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः।। | 1-239-6a 1-239-6b |
ततो हलधरः क्षीबो रेवतीसहितः प्रभुः। अनुगम्यमानो गन्धर्वैरचरत्रत्र भारत।। | 1-239-7a 1-239-7b |
तथैव राजा वृष्णीनामुग्रसेनः प्रतापवान्। अनुगीयमानो गन्धर्वैः स्त्रीसहस्रसहायवान्।। | 1-239-8a 1-239-8b |
रौक्मिणेयश्च साम्बश्च क्षीबौ समरदुर्मदौ। दिव्यमाल्याम्बरधरौ विजह्वातेऽमराविव।। | 1-239-9a 1-239-9b |
अक्रूरः सारणश्चैव गदो बभ्रुर्विदूरथः। निशठश्चारुदेष्णश्च पृथुर्विपृथुरेव च।। | 1-239-10a 1-239-10b |
सत्यकः सात्यकिश्चैव भङ्गकारमहारवौ। हार्दिक्य उद्धवश्चैव ये चान्ये नानुकीर्तिताः।। | 1-239-11a 1-239-11b |
एते परिवृताः स्त्रीभिर्गन्धर्वैश्च पृथक्पृथक्। तमुत्सवं रैवतके शोभयाञ्चक्रिरे तदा।। | 1-239-12a 1-239-12b |
`वासदेवो ययौ तत्र सह स्त्रीभिर्मुदान्वितः। दत्त्वा दानं द्विजातिभ्यः परिव्राजमपश्यत।।' | 1-239-13a 1-239-13b |
चित्रकौतूहले तस्मिन्वर्तमाने महाद्भुते। वासुदेवश्च पार्थश्च सहितौ परिजग्मतुः।। | 1-239-14a 1-239-14b |
तत्र चङ्क्रममाणौ तौ वसुदेवसुतां शुभाम्। अलङ्कृतां सखीमध्ये भद्रां ददृशतुस्तदा।। | 1-239-15a 1-239-15b |
दृष्ट्वैव तामर्जुनस्य कन्दर्पः समजायत। तं तदैकाग्रमनसं कृष्णः पार्थमलक्षयत्।। | 1-239-16a 1-239-16b |
अब्रवीत्पुरुषव्याघ्रः प्रसहन्निव भारत। वनेचरस्य किमिदं कामेनालोड्यते मनः।। | 1-239-17a 1-239-17b |
ममैषा भगिनी पार्थ सारणस्य सहोदरी। सुभद्रा नाम भद्रं ते पितुर्मे दयिता सुता। यदि ते वर्तते बुद्धिर्वक्ष्यामि पितरं स्वयम्।। | 1-239-18a 1-239-18b 1-239-18c |
अर्जुन उवाच। | 1-239-19x |
दुहिता वसुदेवस्य वासुदेवस्य च स्वसा। रूपेण चैषा संपन्ना कमिवैषा न मोहयेत्।। | 1-239-19a 1-239-19b |
कृतमेव तु कल्याणं सर्वं मम भवेद्ध्रुवम्। यदि स्यान्मम वार्ष्णेयी महिषीयं स्वसा तव।। | 1-239-20a 1-239-20b |
प्राप्तौ तु क उपायः स्यात्तं व्रवीहि जनार्दन। आस्थास्यामि तदा सर्वं यदि शक्यं नरेण तत्।। | 1-239-21a 1-239-21b |
वासुदेव उवाच। | 1-239-22x |
स्वयं वरः क्षत्रियाणां विवाहः पुरुषर्षभ। स च संशयितः पार्थ स्वभावस्यानिमित्ततः।। | 1-239-22a 1-239-22b |
प्रसह्य हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते। विवाहहेतुः शूराणामिति धर्मविदो विदुः।। | 1-239-23a 1-239-23b |
स त्वमर्जुन कल्याणीं प्रसह्य भगिनीं मम। `यतिरूपधरस्तं तु यथा कालविपाकता।' हर स्वयंवरे ह्यस्याः को वै वेद चिकीर्षितम्।। | 1-239-24a 1-239-24b 1-239-24c |
वैशंपायन उवाच। | 1-239-25x |
ततोऽर्जुनश्च कृष्णश्च विनिश्चित्येतिकृत्यताम्। शीघ्रगान्पुरुषानन्प्रेषयामासतुस्तदा।। | 1-239-25a 1-239-25b |
धर्मराजाय तत्सर्वमिन्द्रप्रस्थगताय वै। श्रुत्वैव च महाबाहुरनुजज्ञे समातृकः।। | 1-239-26a 1-239-26b |
`भीमसेनस्तु तच्छ्रुत्वा कृतकृत्यं स्म मन्यते। इत्येवं मनुजैरुक्तं कृष्णः श्रुत्वा महामतिः।। | 1-239-27a 1-239-27b |
अनुज्ञाप्य तदा पार्थं हृदि स्थाप्य चिकीर्षितम्। इत्येवं मनुजैः सार्धं द्वारकां समुपेयिवान्।। | 1-239-28a 1-239-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि सुभद्राहरणपर्वणि ऊनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 239 ।। |
1-239-5 चञ्चूर्यन्ते देदीप्यन्ते।।
1-239-7 क्षीबो मधुमत्तः।। 1-239-22 स्वभावस्यानिमित्ततः स्त्रीचित्तस्य शौर्यपाण्डित्याद्यनपेक्षत्वात्। स्त्रियो ह्यपरीक्षितेपि पुंसि आपाततो रमणीये सद्यः सकामा भवन्तीति भावः।। ऊनचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 239 ।।
आदिपर्व-238 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-240 |