महाभारतम्-01-आदिपर्व-217
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चारद्वारा पाण्डवविवाहादिवृत्तान्तश्रवणेन अन्यैः राजभिः भीष्मधृतराष्ट्रादीनां धिक्कारः।। 1 ।।
धार्तराष्ट्रैः पाण्डवान्प्रति मन्त्रालोचनं।। 2 ।।
पाण्डवा हन्तव्या इति शकुनेरुक्तिः।। 3 ।।
पाण्डवानां हन्तुमशक्यत्वात्तैः सह सन्धिः कर्तव्य इति सौमदत्तेरुक्तिः।। 4 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-217-1x |
ततो राज्ञां चैरराप्तैः प्रवृत्तिरुपनीयत। पाण्डवैरुपसंपन्ना द्रौपदी पतिभिः शुभा।। | 1-217-1a 1-217-1b |
येन तद्धनुरादाय लक्ष्यं विद्धं महात्मना। सोऽर्जुनो जयतां श्रेष्ठो महाबाणधनुर्धरः।। | 1-217-2a 1-217-2b |
यः शल्यं मद्रराजं वै प्रोत्क्षिप्यापातयद्बली। त्रासयामास संक्रुद्धो वृक्षेण पुरुषान्रणे।। | 1-217-3a 1-217-3b |
न चास्य संभ्रमः कश्चिदासीत्तत्र महात्मनः। स भीमो भीमसंस्पर्शः शत्रुसेनाङ्गपातनः।। | 1-217-4a 1-217-4b |
`योऽसावत्यक्रमीद्युध्यन्युद्धे दुर्योधनं तथा। स राजा पाण्डवश्रेष्ठः पुण्यभाग्बुद्धिवर्धनः।। | 1-217-5a 1-217-5b |
दुर्योधनस्यावरजैर्यौ युध्येतां प्रतीपवत्। तौ यमौ वृत्तसंपन्नौ संपन्नबलविक्रमौ।।' | 1-217-6a 1-217-6b |
ब्रह्मरूपधराञ्श्रुत्वा प्रशान्तान्पाण्डुनन्दनान्। कौन्तेयान्मनुजेन्द्राणां विस्मयः समजायत।। | 1-217-7a 1-217-7b |
`पौरा हि सर्वे राजन्याः समपद्यन्त विस्मिताः।' सपुत्रा हि पुरा कुन्ती दग्धा जतुगृहे श्रुता।। | 1-217-8a 1-217-8b |
`सर्वभूमिपतीनां च राष्ट्राणां च यशस्विनी।' पुनर्जातानिव च तांस्तेऽमन्यन्त नराधिपाः।। | 1-217-9a 1-217-9b |
धिगकुर्वंस्तदा भीष्मं धृतराष्ट्रं च कौरवम्। कर्मणाऽतिनृशंसेन पुरोचनकृतेन वै।। | 1-217-10a 1-217-10b |
धार्मिकान्वृत्तसंपन्नान्मातुः प्रियहिते रतान्। यदा तानीदृशान्पार्थानुत्सादयितुमिच्छति।। | 1-217-11a 1-217-11b |
ततः स्वयंवरे वृत्ते धार्तराष्ट्राश्च भारत। मन्त्रयन्ति ततः सर्वे कर्णसौबलदूषिताः।। | 1-217-12a 1-217-12b |
शकुनिरुवाच। | 1-217-13x |
कश्चिच्छत्रुः कर्शनीयः पीडनीयस्तथाऽपरः। उत्सादनीयाः कौन्तेयाः सर्वक्षत्रस्य मे मताः।। | 1-217-13a 1-217-13b |
एवं पराजिताः सर्वे यदि यूयं गमिष्यथ। अकृत्वा संविदं कांचिन्मनस्तप्स्यत्यसंशयम्।। | 1-217-14a 1-217-14b |
अयं देशश्च कालश्च पाण्डवाहरणाय नः। न चेदेवं करिष्यध्वं लोके हास्या भविष्यथ।। | 1-217-15a 1-217-15b |
यमेते संश्रिता वस्तुं कामयन्ते च भूमिपम्। सोऽल्पवीर्यबलो राजा द्रुपदो वै मतो मम।। | 1-217-16a 1-217-16b |
यावदेतान्न जानन्ति जीवतो वृष्णिपुङ्गवाः। चैद्यश्च पुरुषव्याघ्रः शिशुपालः प्रतापवान्।। | 1-217-17a 1-217-17b |
एकीभावं गतो राज्ञा द्रुपदेन महात्मना। दुराधर्षतरा राजन्भविष्यन्ति न संशयः।। | 1-217-18a 1-217-18b |
यावच्चञ्चलतां सर्वे प्राप्नुवन्ति नराधिपाः। तावदेव व्यवस्यामः पाण्डवानां वधं प्रति।। | 1-217-19a 1-217-19b |
मुक्ता जतुगृहाद्भीमादाशीविषमुखादिव। पुनस्ते यदि मुच्यन्ते महन्नो भयमागतम्।। | 1-217-20a 1-217-20b |
तेषामिहोपयातानामेषां तु चिरवासिनाम्। अन्तरे दुष्करं स्थातुं गजयोर्महतोरिव।। | 1-217-21a 1-217-21b |
हनध्वं प्रगृहीतानि बलानि बलिनां वराः। यावन्नः कुरुसेनायां पतन्ति पतगा इव।। | 1-217-22a 1-217-22b |
तावत्सर्वाभिसारेण पुरमेतद्विहन्यताम्। एतन्मम मतं चैव प्राप्तकालं नरर्षभ।। | 1-217-23a 1-217-23b |
वैशंपायन उवाच। | 1-217-24x |
शकुनेर्वचनं श्रुत्वा भाषमाणस्य दुर्मतेः। सोमदत्तिरिदं वाक्यं जगाद परमं ततः।। | 1-217-24a 1-217-24b |
प्रकृतीः सप्त वै ज्ञात्वा आत्मनश्च परस्य च। तथा देशं च कालं च षड्विधान्स नयोद्गुणान्।। | 1-217-25a 1-217-25b |
स्थानं वृद्धिं क्षयं चैव भूमिं मित्राणि विक्रमम्। प्रसमीक्ष्याभियुञ्जीत परं व्यसनपीडितम्।। | 1-217-26a 1-217-26b |
ततोऽहं पाण्डवान्मन्ये मित्रकोशसमन्वितान्। बलस्थान्विक्रमस्थांश्च स्वकृतैः प्रकृतिप्रियान्।। | 1-217-27a 1-217-27b |
वपुषा हि तु भूतानां नेत्राणि हृदयानि च। श्रोत्रं मधुरया वाचा रमयत्यर्जुनो नृणाम्।। | 1-217-28a 1-217-28b |
न तु केवलदैवेन प्रजा भावेन भेजिरे। यद्बभूव मनःकान्तं कर्मणा स चकार तत्।। | 1-217-29a 1-217-29b |
न ह्ययुक्तं न चासक्तं नानृतं न च विप्रियम्। भाषितं चारुभाषस्य जज्ञे पार्थस्य भारती।। | 1-217-30a 1-217-30b |
तानेवंगुणसंपन्नान्संपन्नान्राजलक्षणैः। न तान्पश्यामि ये शक्ताः समुच्छेत्तुं यथा बलात्।। | 1-217-31a 1-217-31b |
प्रभावशक्तिर्विपुला मन्त्रशक्तिश्च पुष्कला। तथैवोत्साहशक्तिश्च पार्थेष्वप्यधितिष्ठति।। | 1-217-32a 1-217-32b |
मौलमित्रबलानां च कालज्ञो वै युधिष्टिरः। साम्ना दानेन भेदेन दण्डेनेति युधिष्ठिरः।। | 1-217-33a 1-217-33b |
अमित्रांश्च ततो जेतुनं न रोषेणेति मे मतिः। परिक्रीय धनैः शत्रुं मित्राणि च बलानि च।। | 1-217-34a 1-217-34b |
मूलं च सुकृतं कृत्वा भुङ्क्ते भूमिं च पाण्डवः। अशक्यान्पाण्डवान्मन्ये देवैरपि सवासवैः।। | 1-217-35a 1-217-35b |
येषामर्थे सदा युक्तौ कृष्णसंकर्षणावुभौ। श्रेयश्च यदि मन्यद्वं मन्मतं यदि वा मतम्।। | 1-217-36a 1-217-36b |
संविदं पाण्डवैः सर्वैः कृत्वा याम यथागतम्। गोपुराट्टालकैरुच्चैरुपतल्पशतैरपि।। | 1-217-37a 1-217-37b |
गुप्तं पुरवरश्रेष्ठमेतदद्भिश्च संवृतम्। तृणधान्येन्धरसैस्तथा यन्त्रायुधौषधैः।। | 1-217-38a 1-217-38b |
युक्तं बहुकवाटैश्च द्रव्यागारसुवेदिकैः। भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहदट्टालसंवृतम्।। | 1-217-39a 1-217-39b |
दृढप्राकारनिर्यूहं शतघ्नीशतसंकुलम्। ऐष्टको दारवो वप्रो मानुषश्चेति यः स्मृतः।। | 1-217-40a 1-217-40b |
प्राकारकर्तृभिर्वीरैर्नृगर्भस्तत्र पूजितः। तदेतन्नरगर्भेण पाण्डरेण विराजते।। | 1-217-41a 1-217-41b |
सालेनानेकतालेन सर्वतः संवृतं पुरम्। अनुरक्ताः प्रकृतयो द्रुपदस्य महात्मनः।। | 1-217-42a 1-217-42b |
दानमानार्जिताः सर्वे बाह्याभ्यन्तरगाश्च ये। प्रतिरुद्धानिमाञ्ज्ञात्वा राजभिर्भीमविक्रमैः।। | 1-217-43a 1-217-43b |
उपयास्यन्ति दाशार्हाः समुदग्रोच्छ्रितायुधाः। तस्मात्संन्धिं वयं कृत्वा धार्तराष्ट्रस्य पाण्डवैः।। | 1-217-44a 1-217-44b |
स्वराष्ट्रमेव गच्छामो यद्याप्तं वचनं मम। एतन्मम मतं सर्वैः क्रियतां यदि रोचते। एतद्धि सुकृतं मन्ये क्षेमं चापि महीभिताम्।। | 1-217-45a 1-217-45b 1-217-45c |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 217 ।। |
1-217-29 भेजिर अर्जुनमिति शेषः।। सप्तदशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 217 ।।
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