महाभारतम्-01-आदिपर्व-194
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पराशरोत्पत्तिः।। 1 ।।
पितरं कल्माषपादभक्षितं ज्ञात्वा क्रुद्धेन पराशरेण लोकविनाशाय यतनम्।। 2 ।।
कर्तवीर्यार्जुन वंश्यैः क्षत्रियैः धनार्थं भृगुवंश्यानां ब्राह्मणानां हननम्।। 3 ।।
क्षत्रियभीत्या कयाचिद्ब्राह्मण्या ऊरौ गर्भं धृतं हन्तुं क्षत्रियाणामुद्यमः।। 4 ।।
ऊरुं भित्वा निर्गतस्य बालकस्य तेजसान्धीभूतानां क्षत्रियाणां ब्राह्मणींप्रति शरणगमनम्।। 5 ।।
गन्धर्व उवाच। | 1-195-1x |
आश्रमस्था ततः पुत्रमदृश्यन्ती व्यजायत। शक्तेः कुलकरं राजन् द्वितीयमिव शक्तिनम्।। | 1-194-1a 1-194-1b |
जातकर्मादिकास्तस्य क्रियाः स मुनिसत्तमः। पौत्रस्य भरतश्रेष्ठ चकार भगवान्स्वयम्।। | 1-194-2a 1-194-2b |
परासुः स यतस्तेन वसिष्ठः स्थापितो मुनिः। गर्भस्थेन ततो लोके पराशर इति स्मृतः।। | 1-194-3a 1-194-3b |
अमन्यत स धर्मात्मा वसिष्ठं पितरं मुनिः। जन्मप्रभृति तस्मिंस्तु पितरीवान्ववर्तत।। | 1-194-4a 1-194-4b |
स तात इति विप्रर्षिं वसिष्ठं प्रत्यभाषत। मातुः समक्षं कौन्तेय अदृश्यन्त्याः परन्तप।। | 1-194-5a 1-194-5b |
तातेति परिपूर्णार्थं तस्य तन्मधुरं वचः। अदृश्यन्त्यश्रुपूर्णाक्षी शृण्वती तमुवाच ह।। | 1-194-6a 1-194-6b |
मा तात ताततातेति ब्रूह्येनं पितरं पितुः। रक्षसा भक्षितस्तात तव तातो वनान्तरे।। | 1-194-7a 1-194-7b |
मन्यसे यं तु तातेति नैष तातस्तवानघ। आर्य एष पिता तस्य पितुस्तव यशस्विनः।। | 1-194-8a 1-194-8b |
स एवमुक्तो दुःखार्तः सत्यवागृषिसत्तमः। सर्वलोकविनाशाय मतिं चक्रे महामनाः।। | 1-194-9a 1-194-9b |
तं तथा निश्चितात्मानं स महात्मा महातपाः। ऋषिर्ब्रह्मविदां श्रष्ठो मैत्रावरुणिरन्त्यधीः।। | 1-194-10a 1-194-10b |
वसिष्ठो वारयामास हेतुना येन तच्छृणु। | 1-194-11a |
वसिष्ठ उवाच। | 1-194-11x |
कृतवीर्य इति ख्यातो बभूव पृथिवीपतिः।। | 1-194-11b |
याज्यो वेदविदां लोके भृगूणां पार्थिवर्षभः। स तानग्रभुजस्तात धान्येन च धनेन च।। | 1-194-12a 1-194-12b |
सोमान्ते तर्पयामास विपुलेन विशांपतिः। तस्मिन्नृपतिशार्दूले स्वर्यातेऽथ कथंचन।। | 1-194-13a 1-194-13b |
बभूव तत्कुलेयानां द्रव्यकार्यमुपस्थितम्। भृगूणां तु धनं ज्ञात्वा राजानः सर्व एव ते।। | 1-194-14a 1-194-14b |
याचिष्णवोऽभिजग्मुस्तांस्ततो भार्गवसत्तमान्। भूमौ तु निददुः केचिद्भृगवो धनमक्षयम्।। | 1-194-15a 1-194-15b |
ददुः केचिद्द्विजातिभ्यो ज्ञात्वा क्षत्रियतो भयम्। भृहवस्तु ददुः केचित्तेषां वित्तं यथेप्सितम्।। | 1-194-16a 1-194-16b |
क्षत्रियाणां तदा तात कारणान्तरदर्शनात्। ततो महीतलं तात क्षत्रियेण यदृच्छया।। | 1-194-17a 1-194-17b |
खनताऽधिगतं वित्तं केनच्चिद्धृगुवेश्मनि। तद्वित्तं ददृशुः सर्वे समेताः क्षत्रियर्षभाः।। | 1-194-18a 1-194-18b |
अवमन्य ततः क्रोधाद्भृगूंस्ताञ्छरणगतान्। निजघ्नुः परमेष्वासाः सर्वांस्तान्निशितैः शरैः।। | 1-194-19a 1-194-19b |
आगर्भादवकृन्तन्तश्चेरुः सर्वां वसुन्धराम्। तत उच्छिद्यमानेषु भृगुष्वेवं भयात्तदा।। | 1-194-20a 1-194-20b |
भृगुपत्न्यो गिरिं दुर्गं हिमवन्तं प्रपेदिरे। तासामन्यतमा गर्भं भयाद्दध्रे महौजसम्।। | 1-194-21a 1-194-21b |
ऊरुणैकेन वाभोरूर्भर्तुः कुलविवृद्धये। तं गर्भमुपलभ्याशु ब्राह्मण्येका भयार्दिता।। | 1-194-22a 1-194-22b |
गत्वा वै कथयामास क्षत्रियाणामुपह्वरे। ततस्ते क्षत्रिया जग्मुस्तं गर्भं हन्तुमुद्यताः।। | 1-194-23a 1-194-23b |
ददृशुर्ब्राह्मणीं तेऽथ दीप्यमानां स्वतेजसा। अथ गर्भः स भित्त्वोरुं ब्राह्मण्या निर्जगाम ह।। | 1-194-24a 1-194-24b |
मुष्णन्दृष्टीः क्षत्रियाणां मध्याह्न इव भास्करः। ततश्चक्षुर्विहीनास्ते गिरिदुर्गेषु बभ्रमुः।। | 1-194-25a 1-194-25b |
ततस्ते मोघसङ्कल्पा भयार्ताः क्षत्रियाः पुनः। ब्राह्मणीं शरमं जग्मुर्दृष्ट्यर्थं तामनिन्दिताम्।। | 1-194-26a 1-194-26b |
ऊचुश्चैनां महाभागां क्षत्रियास्ते विचेतसः। ज्योतिःप्रहीणा दुःखार्ताः शान्तार्चिष इवाग्नयः।। | 1-194-27a 1-194-27b |
भगवत्याः प्रसादेन गच्छेत्क्षत्रमनामयम्। उपारम्य च गच्छेम सहिताः पापकर्मणः।। | 1-194-28a 1-194-28b |
सपुत्रा त्वं प्रसादं नः कर्तुमर्हसि शोभने। पुनर्दृष्टिप्रदानेन राज्ञः संत्रातुमर्हसि।। | 1-194-29a 1-194-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिप्रवणि चैत्ररथपर्वणि चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 194 ।। |
1-194-10 अन्त्यधीः अन्ते सिद्धान्ते साध्वी अन्त्या धीर्यस्य सोन्त्यधीः।। चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 194 ।।
आदिपर्व-193 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-195 |