महाभारतम्-01-आदिपर्व-102
दिखावट
← आदिपर्व-101 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-102 वेदव्यासः |
आदिपर्व-103 → |
महाभिषगुपाख्यानम्।। १ ।।
महाभिषग्गङ्गयोः शापः।। २ ।।
अष्टवसूनां गङ्गायाश्च संवादः।। ३ ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-102-1x |
इक्ष्वाकुवंशप्रभो राजासीत्पृथिवीपतिः। महाभिषगिति ख्यातः सत्यवाक्सत्यविक्रमः।। | 1-102-1a 1-102-1b |
सोऽश्वमेधसहस्रेण राजसूयशतेन च। तोषयामास देवेशं स्वर्गं लेभे ततः प्रभुः।। | 1-102-2a 1-102-2b |
ततः कदाचिद्ब्रह्माणमुपासांचक्रिरे सुराः। तत्र राजर्षयो ह्यासन्स च राजा महाभिषक्।। | 1-102-3a 1-102-3b |
अथ गङ्गा सरिच्छ्रेष्ठा समुपायात्पितामहम्। तस्या वासः समुद्धूतं मारुतेन शशिप्रभम्।। | 1-102-4a 1-102-4b |
ततोऽभवन्सुरगणाः सहसाऽवाङ्मुखास्तदा। महाभिषक्तु राजर्षिरशङ्को दृष्टवान्नदीम्।। | 1-102-5a 1-102-5b |
सोपध्यातो भगवता ब्रह्मणा तु महाभिषक्। उक्तश्च जातो मर्त्येषु पुनर्लोकानवाप्स्यसि।। | 1-102-6a 1-102-6b |
यया हृतमनाश्चासि गङ्गया त्वं हि दुर्मते। सा ते वै मानुषे लोके विप्रियाण्याचरिष्यति।। | 1-102-7a 1-102-7b |
यदा ते भविता मन्युस्तदा शापाद्विमोक्ष्यते। | 1-102-8a |
वैशंपायन उवाच। | 1-102-8x |
स चिन्तयित्वा नृपतिर्नृपानन्यांस्तपोधनान्।। | 1-102-8b |
प्रतीपं रोचयामास पितरं भूरितेजसम्। सा महाभिषजं दृष्ट्वा नदी दैर्याच्च्युतं नृपम्।। | 1-102-9a 1-102-9b |
तमेव मनसा ध्यायन्त्युपावृत्ता सरिद्वरा। सा तु विध्वस्तवपुषः कश्मलाभिहतान्नृप।। | 1-102-10a 1-102-10b |
ददर्श पथि गच्छन्ती वसून्देवान्दिवौकसः। तथारूपांश्च तान्दृष्ट्वा प्रपच्छ सरितां वरा।। | 1-102-11a 1-102-11b |
किमिदं नष्टरूपाः स्थ कच्चित्क्षेमं दिवौकसाम्। तामूचुर्वसवो देवाः शप्ताः स्मो वै महानदि।। | 1-102-12a 1-102-12b |
अल्पेऽपराधे संरम्भाद्वसिष्ठेन महात्मना। विमूढा हि वयं सर्वे प्रच्छन्नमृषिसत्तमम्।। | 1-102-13a 1-102-13b |
सन्ध्यां वसिष्ठमासीनं तमत्यभिसृताः पुरा। तेन कोपाद्वयं शप्ता योनौ संभवतेति ह।। | 1-102-14a 1-102-14b |
न तच्छक्यं निवर्तयितुं यदुक्तं ब्रह्मवादिना। त्वमस्मान्मानुषी भूत्वा सूष्व पुत्रान्वसून्भुवि।। | 1-102-15a 1-102-15b |
न मानुषीणां जठरं प्रविशेम वयं शुभे। इत्युक्ता तैश्च वसुभिस्तथेत्युक्त्वाऽब्रवीदिदम्।। | 1-102-16a 1-102-16b |
गङ्गोवाच। | 1-102-17x |
मर्त्येषु पुरुषश्रेष्ठः को वः कर्ता भविष्यति। | 1-102-17a |
वसव ऊचुः। | 1-102-17x |
प्रतीपस्य सुतो राजा शान्तनुर्लोकविश्रुतः। भविता मानुषे लोके स नः कर्ता भविष्यति।। | 1-102-17b 1-102-17c |
गङ्गोवाच। | 1-102-18x |
ममाप्येवं मतं देवा यथा मां वदथानघाः। प्रियं तस्य करिष्यामि युष्माकं चेतदीप्सितम्।। | 1-102-18a 1-102-18b |
वसव ऊचुः। | 1-102-19x |
जातान्कुमारान्स्वानप्सु प्रक्षेप्तुं वै त्वमर्हसि। यथा नचिरकालं नो निष्कृतिः स्यात्त्रिलोकगे।। | 1-102-19a 1-102-19b |
जिघृक्षवो वयं सर्वे सुरभिं मन्दबुद्धयः। शप्ता ब्रह्मर्षिणा तेन तांस्त्वं मोचय चाशु नः।। | 1-102-20a 1-102-20b |
गङ्गोवाच। | 1-102-21x |
एवमेतत्करिष्यामि पुत्रस्तस्य विधीयताम्। नास्य मोघः सङ्गमः स्यात्पुत्रहेतोर्मया सह।। | 1-102-21a 1-102-21b |
वसव ऊचुः। | 1-102-22x |
तुरीयार्धं प्रदास्यामो वीर्यस्यैकैकशो वयम्। तेन वीर्येण पुत्रस्ते भविता तस्य चेप्सितः।। | 1-102-22a 1-102-22b |
न संपत्स्यति मर्त्येषु पुनस्तस्य तु सन्ततिः। तस्मादपुत्रः पुत्रस्ते भविष्यति स वीर्यवान्।। | 1-102-23a 1-102-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिप्रवमि संभवपर्वणि द्व्यधिकशततमोऽध्यायः।। 102 ।। |
आदिपर्व-101 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-103 |