सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-01-आदिपर्व-064

विकिस्रोतः तः
← आदिपर्व-063 महाभारतम्
प्रथमपर्व
महाभारतम्-01-आदिपर्व-064
वेदव्यासः
आदिपर्व-065 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203
  204. 204
  205. 205
  206. 206
  207. 207
  208. 208
  209. 209
  210. 210
  211. 211
  212. 212
  213. 213
  214. 214
  215. 215
  216. 216
  217. 217
  218. 218
  219. 219
  220. 220
  221. 221
  222. 222
  223. 223
  224. 224
  225. 225
  226. 226
  227. 227
  228. 228
  229. 229
  230. 230
  231. 231
  232. 232
  233. 233
  234. 234
  235. 235
  236. 236
  237. 237
  238. 238
  239. 239
  240. 240
  241. 241
  242. 242
  243. 243
  244. 244
  245. 245
  246. 246
  247. 247
  248. 248
  249. 249
  250. 250
  251. 251
  252. 252
  253. 253
  254. 254
  255. 255
  256. 256
  257. 257
  258. 258
  259. 259
  260. 260
उपरिचरराजोपाख्यानम्।। 1 ।। इन्द्रध्वजोत्सववृत्तान्तः।। 2 ।। गिरिकाया उत्पत्तिः। उपरिचरस्य तया विवाहश्च।। 3 ।। मृगयार्थं गतेनोपरिचरेण स्वपत्नीस्मरणात्स्कन्नस्य श्येनद्वरा प्रेषितस्य रेतसो यमुनाजले पतनम्।। 4 || ब्रह्मशापान्मत्स्यभावं प्राप्तयाऽद्रिकया तद्रेतःपानम्।। 5 ।। तदुदरे मिथुनोत्पत्तिः।। 6 ।। तत्र पुत्रस्य उपरिचरवसुना ग्रहणम्। कन्याया दाशगृहे स्थितिः।। 7 ।। नावं वाहयमानायां सत्यवतीनाम्न्यां दाशकन्यायां पराशराद्द्वैपायनस्योत्पत्तिः। तस्य व्यासनामप्राप्तिश्च।। 8 ।। पाठान्तरे पराशरसत्यवतीविवाहादि।। 9 ।। भीष्मादीनां संक्षेपतो जन्मवृत्तान्तकथनम्।। 10 ।।
वैशंपायन उवाच। 1-64-1x
राजोपरिचरो नाम धर्मनित्यो महीपतिः।
बभूव मृगयाशीलः शश्वत्स्वाध्यायवाञ्छुचिः।।
1-64-1a
1-64-1b
स चेदिविषयं रम्यं वसुः पौरवनन्दनः।
इन्द्रोपदेशाज्जग्राह रमणीयं महीपतिः।।
1-64-2a
1-64-2b
तमाश्रमे न्यस्तशस्त्रं निवसन्तं तपोनिधिम्।
देवाः शक्रपुरोगा वै राजानमुपतस्थिरे।।
1-64-3a
1-64-3b
इन्द्रत्वमर्हो राजायं तपसेत्यनुचिन्त्य वै।
तं सान्त्वेन नृपं साक्षात्तपसः संन्यवर्तयन्।।
1-64-4a
1-64-4b
देवा ऊचुः। 1-64-5x
न संकीर्येत धर्मोऽयं पृथिव्यां पृथिवीपते।
त्वया हि धर्मो विधृतः कृत्स्नं धारयते जगत्।।
1-64-5a
1-64-5b
इन्द्र उवाच। 1-64-6x
`देवानहं पालयिता पालय त्वं हि मानुषान्।'
लोके धर्मं पालय त्वं नित्ययुक्तः समाहितः।
धर्मयुक्तस्ततो लोकान्पुण्यान्प्राप्स्यसि शाश्वतान्।।
1-64-6a
1-64-6b
1-64-6c
दिविष्ठस्य भुविष्ठस्त्वं सखाभूतो मम प्रियः।
ऊधः पृथिव्या यो देशस्तमावस नराधिप।।
1-64-7a
1-64-7b
पशव्यश्चैव पुण्यश्च प्रभूतधनधान्यवान्।
स्वारक्ष्यश्चैव सौम्यश्च भोग्यैर्भूमिगुणैर्युतः।।
1-64-8a
1-64-8b
अर्थवानेष देशो हि धनरत्नादिभिर्युतः।
वसुपूर्णा च वसुधा वस चेदिषु चेदिप।।
1-64-9a
1-64-9b
धर्मशीला जनपदाः सुसंतोषाश्च साधवः।
न च मिथ्या प्रलापोऽत्र स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा।।
1-64-10a
1-64-10b
न च पित्रा विभज्यन्ते पुत्रा गुरुहिते रताः।
युञ्जते धुरि नो गाश्च कृशान्संधुक्षयन्ति च।।
1-64-11a
1-64-11b
सर्वे वर्णाः स्वधर्मस्थाः सदा चेदिषु मानद।
न तेऽस्त्यविदितं किंचित्त्रिषु लोकेषु यद्भवेत्।।
1-64-12a
1-64-12b
दैवोपभोग्यं दिव्यं त्वामाकाशे स्फाटिकं महत्।
आकाशगं त्वां मद्दत्तं विमानमुपपत्स्यते।।
1-64-13a
1-64-13b
त्वमेकः सर्वमर्त्येषु विमानवरमास्थितः।
चरिष्यस्युपरिस्थो हि देवो विग्रहवानिव।।
1-64-14a
1-64-14b
ददामि ते वैजयन्तीं मालामम्लानपङ्कजाम्।
धारयिष्यति सङ्ग्रामे या त्वां शस्त्रैरविक्षतम्।।
1-64-15a
1-64-15b
लक्षणं चैतदेवेह भविता ते नराधिप।
इन्द्रमालेति विख्यातं धन्यमप्रतिमं महत्।।
1-64-16a
1-64-16b
यष्टिं च वैणवीं तस्मै ददौ वृत्रनिषूदनः।
इष्टप्रदानमुद्दिश्य शिष्टानां प्रतिपालिनीम्।।
1-64-17a
1-64-17b
`एवं संसान्त्व्य नृपतिं तपसः संन्यवर्तयत्।
प्रययौ दैवतैः सार्धं कृत्वा कार्यं दिवौकसाम्।।
1-64-18a
1-64-18b
ततस्तु राजा चेदीनामिन्द्राभरणभूषितः।
इन्द्रदत्तं विमानं तदास्थाय प्रययौ पुरीम्।।'
1-64-19a
1-64-19b
तस्याः शक्रस्य पूजार्थं भूमौ भूमिपतिस्तदा।
प्रवेशं कारयामास सर्वोत्सववरं तदा।।
1-64-20a
1-64-20b
`मार्गशीर्षे महाराज पूर्वपक्षे महामखम्।
ततःप्रभृति चाद्यापि यष्टेः क्षितिपसत्तमैः।।'
1-64-21a
1-64-21b
प्रवेशः क्रियते राजन्यथा तेन प्रवर्तितः।
अपरेद्युस्ततस्तस्याः क्रियतेऽत्युच्छ्रयो नृपैः।।
1-64-22a
1-64-22b
अलङ्कृताया पिटकैर्गन्धमाल्यैश्च भूषणैः।
`माल्यदामपरिक्षिप्तां द्वात्रिंशत्किष्कुसंमिताम्।।
1-64-23a
1-64-23b
उद्धृत्य पिटके चापि द्वादशारत्निकोच्छ्रये।
महारजनवासांसि परिक्षिप्य ध्वजोत्तमम्।।
1-64-24a
1-64-24b
वासोभिरन्नपानैश्च पूजितैर्ब्राह्मणर्षभैः।
पुण्याहं वाचयित्वाथ ध्वज उच्छ्रियते तदा।।
1-64-25a
1-64-25b
शङ्खभेरीमृदङ्गैश्च संनादः क्रियते तदा'।
भगवान्पूज्यते चात्र यष्टिरूपेण वासवः।।
1-64-26a
1-64-26b
स्वयमेव गृहीतेन वसोः प्रीत्या महात्मनः।
`माणिभद्रादयो यक्षाः पूज्यन्ते दैवतैः सह।।
1-64-27a
1-64-27b
नानाविधानि दानानि दत्त्वार्थिभ्यः सुहृज्जनैः।
अलङ्कृत्वा माल्यदामैर्वस्त्रैर्नानाविधैस्तथा।।
1-64-28a
1-64-28b
दृतिभिः सजलैः सर्वैः क्रीडित्वा नृपशासनात्।
सभाजयित्वा राजानं कृत्वा नर्माश्रयाः कथाः।।
1-64-29a
1-64-29b
रमन्ते नागराः सर्वे तथा जानपदैः सह।
सूताश्च मागधाश्चैव रमन्ते नटनर्तकाः।।
1-64-30a
1-64-30b
प्रीत्या तु नृपशार्दूल सर्वे चक्रुर्महोत्सवम्।
सान्तःपुरः सहामात्यः सर्वाभरणभूषितः।।
1-64-31a
1-64-31b
महारजनवासांसि वसित्वा चेदिराट् तदा।
जातिहिङ्गुलकेनाक्तः सदारो मुमुदे तदा।।
1-64-32a
1-64-32b
एवं जानपदाः सर्वे चक्रुरिन्द्रमहं वसुः।।'
यथा चेदिपतिः प्रीतश्चकारेन्द्रमहं वसुः।।'
1-64-33a
1-64-33b
एतां पूजां महेन्द्रस्तु दृष्ट्वा वसुकृतां शुभाम्।
`हरिभिर्वाजिभिर्युक्तमन्तरिक्षगतं रथम्।।
1-64-34a
1-64-34b
आस्थाय सह शच्या च वृतो ह्यप्सरसां गणैः।'
वसुना राजमुख्येन समागम्याब्रवीद्वचः।।
1-64-35a
1-64-35b
ये पूजयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नृपः।
कारयिष्यन्ति च मुदा यथा चेदिपतिर्नृपः।।
1-64-36a
1-64-36b
तेषां श्रीर्विजयश्चैव सराष्ट्राणां भविष्यति।
तथा स्फीतो जनपदो मुदितश्च भविष्यति।।
1-64-37a
1-64-37b
`निरीतिकानि सस्यानि भवन्ति बहुधा नृप।
राक्षसाश्च पिशाचाश्च न लुम्पन्ते कथंचन।।
1-64-38a
1-64-38b
वैशंपायन उवाच।' 1-64-39x
एवं महात्मना तेन महेन्द्रेण नराधिप।
वसुः प्रीत्या मघवता महाराजोऽभिसत्कृतः।
एवं कृत्वा महेन्द्रस्तु जगाम स्वं निवेशनम्।।
1-64-39a
1-64-39b
1-64-39c
उत्सवं कारयिष्यन्ति सदा शक्रस्य ये नराः।
भूमिरत्नादिभिर्दानैस्तथा पूज्या भवन्ति ते।
वरदानमहायज्ञैस्तथा शक्रोत्सवेन च।।
1-64-40a
1-64-40b
1-64-40c
संपूजितो मघवता वसुश्चेदीश्वरो नृपः।
पालयामास धर्मेण चेदिस्थः पृथिवीमिमाम्।।
1-64-41a
1-64-41b
इन्द्रपीत्या चेदिपतिश्चकारेन्द्रमहं वसुः।
पुत्राश्चास्य महावीर्याः पञ्चासन्नमितौजसः।।
1-64-42a
1-64-42b
नानाराज्येषु च सुतान्स सम्राडभ्यषेचयत्।
महारथो मागधानां विश्रुतो यो बृहद्रथः।।
1-64-43a
1-64-43b
प्रत्यग्रहः कुशाम्बश्च यमाहुर्मणिवाहनम्।
मत्सिल्लश्च यदुश्चैव राजन्यश्चापराजितः।।
1-64-44a
1-64-44b
एते तस्य सुता राजन्राजर्षेर्भूरितेजसः।
न्यवेशयन्नामभिः स्वैस्ते देशांश्च पुराणि च।।
1-64-45a
1-64-45b
वासवाः पञ्च राजानः पृथग्वंशाश्च शास्वताः।
वसन्तमिन्द्रप्रासादे आकाशे स्फाटिके च तम्।।
1-64-46a
1-64-46b
उपतस्थुर्महात्मानं गन्धर्वाप्सरसो नृपम्।
राजोपरिचरेत्येवं नाम तस्याथ विश्रुतम्।।
1-64-47a
1-64-47b
पुरोपवाहिनीं तस्य नदीं शुक्तमतीं गिरिः।
अरौत्सीच्चेतनायुक्तः कामात्कोलाहलः किल।।
1-64-48a
1-64-48b
गिरिं कोलाहलं तं तु पदा वसुरताडयत्।
निश्चक्राम ततस्तेन प्रहारविवरेण सा।।
1-64-49a
1-64-49b
तस्यां नद्यां स जनयन्मिथुनं पर्वतः स्वयम्।
तस्माद्विमोक्षणात्प्रीता नदी राज्ञे न्यवेदयत्।।
1-64-50a
1-64-50b
`महिषी भविता कन्या पुमान्सेनापतिर्भवेत्।
शुक्तिमत्या वचःश्रुत्वा दृष्ट्वा तौ राजसत्तमः'।।
1-64-51a
1-64-51b
यः पुमानभवत्तत्र तं स राजर्षिसत्तमः।
वसुर्वसुप्रदश्चक्रे सेनापतिमरिन्दमः।।
1-64-52a
1-64-52b
चकार पत्नीं कन्यां तु तथा तां गिरिकां नृपः।
वसोः पत्नी तु गिरिका कामकालं न्यवेदयत्।।
1-64-53a
1-64-53b
ऋतुकालमनुप्राप्ता स्नाता पुंसवने शुचिः।
तदहः पितरश्चैनपूचुर्जहि मृगानिति।।
1-64-54a
1-64-54b
तं राजसत्तमं प्रीतास्तदा मतिमतां वरः।
स पितॄणां नियोगेन तामतिक्रम्य पार्थिवः।।
1-64-55a
1-64-55b
चकार मृगयां कामी गिरिकामेव संस्मरन्।
अतीव रूपसंपन्नां साक्षाच्छ्रियमिवापराम्।।
1-64-56a
1-64-56b
अशोकैश्चम्पकैश्चूतैरनेकैरतिमुक्तकैः।
पुन्नागैः कर्णिकारैश्च बकुलैर्दिव्यपाटलैः।।
1-64-57a
1-64-57b
पनसैर्नारिकेलैश्च चन्दनैश्चार्जुनैस्तथा।
एतै रम्यैर्महावृक्षैः पुण्यैः स्वादुफलैर्युतम्।।
1-64-58a
1-64-58b
कोकिलाकुलसन्नादं मत्तभ्रमरनादितम्।
वसन्तकाले तत्पश्यन्वनं चैत्ररथोपमम्।।
1-64-59a
1-64-59b
मन्मथाभिपरीतात्मा नापश्यद्गिरिकां तदा।
अपश्यन्कामसंतप्तश्चरमाणो यदृच्छया।।
1-64-60a
1-64-60b
पुष्पसंछन्नशाखाग्रं पल्लवैरुपशोभितम्।
अशोकस्तबकैश्छन्नं रमणीयमपश्यत।।
1-64-61a
1-64-61b
अधस्यात्तस्य छायायां सुखासीनो नराधिपः।
मधुगन्धैश्च संयुक्तं पुष्पगन्धमनोहरम्।।
1-64-62a
1-64-62b
वायुना प्रेर्यमाणस्तु धूम्राय मुदमन्वगात्।
`भार्यां चिन्तयमानस्य मन्मथाग्निरवर्धत।'
तस्य रेतः प्रचस्कन्द चरतो गहने वने।।
1-64-63a
1-64-63b
1-64-63c
स्कन्नमात्रं च तद्रेतो वृक्षपत्रेण भूमिपः।
प्रतिजग्राह मिथ्या मे न पतेद्रेत इत्युत।।
1-64-64a
1-64-64b
`अङ्गुलीयेन शुक्लस्य रक्षां च विदधे नृपः।
अशोकस्तबकै रक्तैः पल्लवैश्चाप्यबन्धयत्।।'
1-64-65a
1-64-65b
इदं मिथ्या परिस्कन्नं रेतो मे न भवेदिति।
ऋतुश्च तस्याः पत्न्या मे न मोघः स्यादिति प्रभुः।।
1-64-66a
1-64-66b
संचिन्त्यैवं तदा राजा विचार्य च पुनःपुनः।
अमोघत्वं च विज्ञाय रेतसो राजसत्तमः।।
1-64-67a
1-64-67b
शुक्रप्रस्थापने कालं महिष्या प्रसमीक्ष्य वै।
अभिमन्त्र्याथ तच्छुक्रमारात्तिष्ठन्तमाशुगम्।।
1-64-68a
1-64-68b
सूक्ष्मधर्मार्थतत्त्वज्ञो गत्वा श्येनं ततोऽब्रवीत्।
मत्प्रियार्थमिदं सौम्य शुक्रं मम गृहं नय।।
1-64-69a
1-64-69b
गिरिकायाः प्रयच्छाशु तस्या ह्यार्तवमद्य वै। 1-64-70a
वैशंपायन उवाच। 1-64-70x
गृहीत्वा तत्तदा श्येनस्तूर्णमुत्पत्य वेगवान्।। 1-64-70b
जवं परममास्थाय प्रदुद्राव विहंगमः।
तमपश्यदथायान्तं श्येनं श्येनस्तथाऽपरः।।
1-64-71a
1-64-71b
अभ्यद्रवच्च तं सद्यो दृष्ट्वैवामिषशङ्कया।
तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ संप्रचक्रतुः।।
1-64-72a
1-64-72b
युद्ध्यतोरपतद्रेतस्तच्चापि यमुनाम्भसि।
तत्राद्रिकेति विख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सरा।।
1-64-73a
1-64-73b
मीनभावमनुप्राप्ता बभूव यमुनाचरी।
श्येनपादपरिभ्रष्टं तद्वीर्यमथ वासवम्।।
1-64-74a
1-64-74b
जग्राह तरसोपेत्य साऽद्रिका मत्स्यरूपिणी।
कदाचिदपि मत्सीं तां बबन्धुर्मत्स्यजीविनः।।
1-64-75a
1-64-75b
मासे च दशमे प्राप्ते तदा भरतसत्तम।।
उज्जह्रुरुदरात्तस्याः स्त्रीं पुमांसं च मानुषौ।।
1-64-76a
1-64-76b
आश्चर्यभूतं तद्गत्वा राज्ञेऽथ प्रत्यवेदयन्।
काये मत्स्या इमौ राजन्संभूतौ मानुषाविति।।
1-64-77a
1-64-77b
तयोः पुमांसं जग्राह राजोपरिचरस्तदा।
स मत्स्यो नाम राजासीद्धार्मिकः सत्यसङ्गरः।।
1-64-78a
1-64-78b
साऽप्सरा मुक्तशापा च क्षणेन समपद्यत।
या पुरोक्ता भगवता तिर्यग्योनिगता शुभा।।
1-64-79a
1-64-79b
मानुषौ जनयित्वा त्वं शापमोक्षमवाप्स्यसि।
ततः साजनयित्वा तौ विशस्ता मत्स्यघातिभिः।।
1-64-80a
1-64-80b
संत्यज्य मत्स्यरूपं सा दिव्यं रूपमवाप्य च।
सिद्धर्षिचारणपथं जगामाथ वराप्सराः।।
1-64-81a
1-64-81b
सा कन्या दुहिता तस्या मत्स्या मत्स्यसगन्धिनी।
राज्ञा दत्ता च दाशाय कन्येयं ते भवत्विति।।
1-64-82a
1-64-82b
रूपसत्वसमायुक्ता सर्वैः समुदिता गुणैः।
सा तु सत्यवती नाम मत्स्यघात्यभिसंश्रयात्।।
1-64-83a
1-64-83b
आसीत्सा मत्स्यगन्धैव कंचित्कालं शुचिस्मिता।
शुश्रूषार्थं पितुर्नावं वाहयन्तीं जले च ताम्।।
1-64-84a
1-64-84b
तीर्थयात्रां परिक्रामन्नपश्यद्वै पराशरः।
अतीव रूपसंपन्नां सिद्धानामपि काङ्क्षिताम्।।
1-64-85a
1-64-85b
दृष्ट्वैव स च तां धीमांश्चकमे चारुहासिनीम्।
दिव्यां तां वासवीं कन्यां रम्भोरूं मुनिपुङ्गवः।।
1-64-86a
1-64-86b
संभवं चिन्तयित्वा तां ज्ञात्वा प्रोवाच शक्तिजः।
क्व कर्णधारो नौर्येन नीयते ब्रूहि भामिनि।।
1-64-87a
1-64-87b
मत्स्यगन्धोवाच। 1-64-88x
अनपत्यस्य दाशस्य सुता तत्प्रियकाम्यया।
सहस्रजनसंपन्ना नौर्मया वाह्यते द्विज।।
1-64-88a
1-64-88b
पराशर उवाच। 1-64-89x
शोभनं वासवि शुभे किं चिरायसि वाह्यताम्।
कलशं भविता भद्रे सहस्रार्धेन संमितम्।।
1-64-89a
1-64-89b
अहं शेषो भिविष्यामि नीयतामचिरेण वै। 1-64-90a
वैशंपायन उवाच। 1-64-90x
मत्स्यगन्धा तथेत्युक्त्वा नावं वाहयतां जले।। 1-64-90b
वीक्षमाणं मुनिं दृष्ट्वा प्रोवाचेदं वचस्तदा।
मत्स्यगन्धेति मामाहुर्दाशराजसुतां जनाः।।
1-64-91a
1-64-91b
जन्म शोकाभितप्तायाः कथं ज्ञास्यसि कथ्यताम्। 1-64-92a
पराशर उवाच। 1-64-92x
दिव्यज्ञानेन दृष्टं हि दृष्टमात्रेण ते वपुः।। 1-64-92b
प्रणयग्रहणार्थाय वक्ष्येव वासवि तच्छृणु।
बर्हिषद इति ख्याताः पितरः सोमपास्तुते।।
1-64-93a
1-64-93b
तेषां त्वं मानसी कन्या अच्छोदा नाम विश्रुता।
अच्छोदं नाम तद्दिव्यं सरो यस्मात्समुत्थितम्।।
1-64-94a
1-64-94b
त्वया न दृष्टपूर्वास्तु पितरस्ते कदाचन।
संभूता मनसा तेषां पितॄन्स्वान्नाभिजानती।।
1-64-95a
1-64-95b
सा त्वन्यं पितरं वव्रे स्वानतिक्रम्य तान्पितॄन्।
नाम्ना वसुरिति ख्यातं मनुपुत्रं दिवि स्थितम्।।
1-64-96a
1-64-96b
अद्रिकाऽप्सरसा युक्तं विमाने दिवि विष्ठितम्।
सा तेन व्यभिचारेण मनसा कामचारिणी।।
1-64-97a
1-64-97b
पितरं प्रार्थयित्वाऽन्यं योगाद्भष्टा पपात सा।
अपश्यत्पतमाना सा विमानत्रयमन्तिकात्।।
1-64-98a
1-64-98b
त्रसरेणुप्रमाणांस्तांस्तत्रापश्यत्स्वकान्पितॄन्।
सुसूक्ष्मानपरिव्यक्तानङ्गैरङ्गेष्विवाहितान्।।
1-64-99a
1-64-99b
तातेति तानुवाचार्ता पतन्ती सा ह्यधोमुखी।
तैरुक्ता सा तु माभैषीस्तेन सा संस्थिता दिवि।।
1-64-100a
1-64-100b
ततः प्रसादयामास स्वान्पितॄन्दीनया गिरा।
तामूचुः पितरः कन्यां भ्रैष्टश्वर्यां व्यतिक्रमात्।।
1-64-101a
1-64-101b
भ्रष्टैश्वर्या स्वदोषेण पतसि त्वं शुचिस्मिते।
यैरारभन्ते कर्माणि शरीरैरिह देवताः।।
1-64-102a
1-64-102b
तैरेव तत्कर्मफलं प्राप्नुवन्ति स्म देवताः।
मनुष्यास्त्वन्यदेहेन शुभाशुभमिति स्थितिः।।
1-64-103a
1-64-103b
सद्यः फलन्ति कर्माणि देवत्वे प्रेत्य मानुषे।
तस्मात्त्वं पतसे पुत्रि प्रेत्यत्वं प्राप्स्यसे फलम्।।
1-64-104a
1-64-104b
पितृहीना तु कन्या त्वं वसोर्हि त्वं सुता मता।
मत्स्ययोनौ समुत्पन्ना सुताराज्ञो भविष्यसि।।
1-64-105a
1-64-105b
अद्रिका मत्स्यरूपाऽभूद्गङ्गायमनुसङ्गमे।
पराशरस्य दायादं त्वं पुत्रं जनयिष्यसि।।
1-64-106a
1-64-106b
यो वेदमेकं ब्रह्मर्षिश्चतुर्धा विबजिष्यति।
महाभिषक्सुतस्यैव शन्तनोः कीर्तिवर्धनम्।।
1-64-107a
1-64-107b
ज्येष्ठं चित्राङ्गदं वीरं चित्रवीरं च विश्रुतम्।
एतान्सूत्वा सुपुत्रांस्त्वं पुनरेव गमिष्यसि।।
1-64-108a
1-64-108b
व्यतिक्रमात्पितॄणां च प्राप्स्यसे जन्म कुत्सितम्।
अस्यैव राज्ञस्त्वं कन्या ह्यद्रिकायां भविष्यसि।।
1-64-109a
1-64-109b
अष्टाविंशे भवित्री त्वं द्वापरे मत्स्ययोनिजा।
एवमुक्ता पुरा तैस्त्वं जाता सत्यवती शुभा।।
1-64-110a
1-64-110b
अद्रिकेत्यभिविख्याता ब्रह्मशापाद्वराप्सरा।
मीनभावमनुप्राप्ता त्वं जनित्वा गता दिवम्।।
1-64-111a
1-64-111b
तस्यां जातासि सा कन्या राज्ञो वीर्येण चैवहि।
तस्माद्वासवि भद्रं ते याचे वंशकरं सुतम्।।
1-64-112a
1-64-112b
संगमं मम कल्याणि कुरुष्वेत्यभ्यभाषत।। 1-64-113a
वैशंपायन उवाच। 1-64-114x
विस्मयाविष्टसर्वाङ्गी जातिस्मरणतां गता।
साब्रवीत्पश्य भगवन्परपारे स्थितानृषीन्।।
1-64-114a
1-64-114b
आवयोर्दृष्टयोरेभिः कथं नु स्यात्समागमः।
एवं तयोक्तो भगवान्नीहारमसृजत्प्रभुः।।
1-64-115a
1-64-115b
येन देशः स सर्वस्तु तमोभूत इवाभवत्।
दृष्ट्वा सृष्टं तु नीहारं ततस्तं परमर्षिणा।।
1-64-116a
1-64-116b
विस्मिता साभवत्कन्या व्रीडिता च तपस्विनी। 1-64-117a
सत्यवत्युवाच। 1-64-117x
विद्धि मां भगवन्कन्यां सदा पितृवशानुगाम्।। 1-64-117b
त्वत्संयोगाच्च दुष्येत कन्याभावो ममाऽनघ।
कन्यात्वे दूषिते वापि कथं शक्ष्ये द्विजोत्तम।।
1-64-118a
1-64-118b
गृह गन्तुमुषे चाहं धीमन्न स्थातुमुत्सहे।
एतत्संचिन्त्य भगवन्विधत्स्व यदनन्तरम्।।
1-64-119a
1-64-119b
वैशंपायन उवाच। 1-64-119x
एवमुक्तवतीं तीं तु प्रीतिमानुषिसत्तमः।
उवाच मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यति।।
1-64-120a
1-64-120b
वृणीष्व च वरं भीरुं यं त्वमिच्छसि भामिनि।
वृथा हि न प्रसादो मे भूतपूर्वः शुचिस्मिते।।
1-64-121a
1-64-121b
एवमुक्ता वरं वव्रे गात्रसौगन्ध्यमुत्तमम्।
सचास्यै भगवान्प्रादान्मनः काङ्क्षितं प्रभुः।।
1-64-122a
1-64-122b
ततो लब्धवरा प्रीता स्त्रीभावगुणभूषिता।
जगाम सह संसर्गमृषिणाऽद्भुतकर्मणा।।
1-64-123a
1-64-123b

तस्यास्तु योजनाद्गन्धमाजिघ्रन्त नरा भुवि।।
1-64-124a
1-64-124b
तस्या योजनगन्धेति ततो नामापरं स्मृतम्।
इति सत्यवती हृष्टा लब्ध्वा वरमनुत्तमम्।।
1-64-125a
1-64-125b
पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भं सुषाव सा।
जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्यः स वीर्यवान्।।
1-64-126a
1-64-126b
स मातरमनुज्ञाप्य तपस्येव मनो दधे।
स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत्।।
1-64-127a
1-64-127b
एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्।
न्यस्तोद्वीपे यद्बालस्तस्माद्द्वैपायनःस्मृतः।।
1-64-128a
1-64-128b
पादापसारिणं धर्मं स तु विद्वान्युगे युगे।
आयुः शक्तिं च मर्त्यानां युगावस्थामवेक्ष्यच।।
1-64-129a
1-64-129b
ब्रह्मणो ब्राह्मणानां च तथानुग्रहकाङ्क्षया।
विव्यास वेदान्यस्मत्स तस्माद्व्यास इति स्मृतः।।
1-64-130a
1-64-130b
वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान्।
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम्।।
1-64-131a
1-64-131b
प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशंपायनमेव च।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकाशिताः।।
1-64-132a
1-64-132b
[ततो रम्ये वनोद्देशे दिव्यास्तरणसंयुते।
वीरासनमुपास्थाय योगी ध्यानपरोऽभवत्।।
1-64a-1a
1-64a-1b
श्वेतपट्टगृहे रम्ये पर्यङ्के सोत्तरच्छदे।
तूष्णींभूतां तदा कन्यां ज्वलन्तीं योगतेजसा।।
1-64a-2a
1-64a-2b
दृष्ट्वा तां तु समाधाय विचार्य च पुनः पुनः।
स चिन्तयामास मुनिः किं कृतं सुकृतं भवेत्।।
1-64a-3a
1-64a-3b
शिष्टानां तु समाचारः शिष्टाचार इति स्मृतः।
श्रुतिस्मृतिविदो विप्रा धर्मज्ञा ज्ञानिनः स्मृताः।।
1-64a-4a
1-64a-4b
धर्मज्ञैर्विहितो धर्मः श्रौतः स्मार्तो द्विधा द्विजैः।
दानाग्निहोत्रमिज्या च श्रौतस्यैतद्धि लक्षणम्।।
1-64a-5a
1-64a-5b
स्मार्तो वर्णाश्रमाचारो यमैश्च नियमैर्युतः।
धर्मे तु धारणे धातुः सहत्वे चापि पठ्यते।।
1-64a-6a
1-64a-6b
तत्रेष्टफलभाग्धर्म आचार्यैरुपदिश्यते।
अनिष्टफलभाक्रेति तैरधर्मोऽपि भाष्यते।।
1-64a-7a
1-64a-7b
तस्मादिष्टफलार्थाय धर्ममेव समाश्रयेत्।
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यश्च धार्मिकः।।
1-64a-8a
1-64a-8b
विवाहा ब्राह्मणानां तु गान्धर्वो नैव धार्मिकः।
त्रिवर्णेतरजातीनां गान्धर्वासुरराक्षसाः।।
1-64a-9a
1-64a-9b
पैशाचो नैव कर्तव्यः पैशाचश्चाष्टमोऽधमः।
सामर्षां व्यङ्गिकां कन्यां मातुश्च कुलजां तथा।।
1-64a-10a
1-64a-10b
वृद्धां प्रव्राजितां वन्ध्यां पतितां च रजस्वलाम्।
अपस्मारकुले जातां पिङ्गलांकुष्ठिनीं व्रणीम्।।
1-64a-11a
1-64a-11b
न चास्नातां स्त्रियं गच्छेदिति धर्मानुशासनम्।
पिता पितामहो भ्राता माता मातुल एव च।।
1-64a-12a
1-64a-12b
उपाध्यायर्त्विजश्चैव कन्यादाने प्रभूत्तमाः।
एतैर्दत्तां निषेवेत नादत्तामाददीत च।।
1-64a-13a
1-64a-13b
इत्येव ऋषयः प्राहुर्विवाहे धर्मवित्तमाः।
अस्या नास्ति पिता भ्राता माता मातुल एव च।।
1-64a-14a
1-64a-14b
गान्धर्वेण विवाहेन न स्पृशामि यदृच्छया।
क्रियाहीनं तु गान्धर्वं न कर्तव्यमनापदि।।
1-64a-15a
1-64a-15b
यदस्यां जायते पुत्रो वेदव्यासो भवेदृषिः।
क्रियाहीनः कथं विप्रो भवेदृषिरुदारधीः।।
1-64a-16a
1-64a-16b
वैशंपायन उवाच। 1-64a-17x
एवं चिन्तयतो भावं महर्षेर्भावितात्मनः।
ज्ञात्वा चैवाभ्यवर्तन्त पितरो बर्हिषस्तदा।।
1-64a-17a
1-64a-17b
तस्मिन्क्षणे ब्रह्मपुत्रो वसिष्ठोऽपि समेयिवान्।
पूर्वं स्वागतमित्युक्त्वा वसिष्ठः प्रत्यभाषत।।
1-64a-18a
1-64a-18b
पितृगणा ऊचुः। 1-64a-19x
अस्माकं मानसीं कन्यामस्मच्छापेन वासवीम्।
यदिचच्छशि पुत्रार्थं कन्यां गृह्मीष्वमा चिरम्।।
1-64a-19a
1-64a-19b
पितॄणां वचनं श्रुत्वा वसिष्ठः प्रत्यभाषत।
महर्षीणां वचः सत्यं पुराणेपि मया श्रुतम्।।
1-64a-20a
1-64a-20b
पराशरो ब्रह्मचारी प्रजार्थी मम वंशधृत्।
एवं संभाषमाणे तु वसिष्ठे पितृभिः सह।।
1-64a-21a
1-64a-21b
ऋषयोऽभ्यागमंस्तत्र नैमिशारण्यवासिनः।
विवाहं द्रष्टुमिच्छन्तः शक्तिपुत्रस्य धीमतः।।
1-64a-22a
1-64a-22b
अरुन्धती महाभागा अदृश्यन्त्या सहैव सा।
विश्वकर्मकृतां दिव्यां पर्णशालां प्रविश्य सा।।
1-64a-23a
1-64a-23b
वैवाहिकांस्तु संभारान्संकल्प्य च यथाक्रमम्।
अरुन्धती सत्यवतीं वधूं संगृह्य पाणिना।।
1-64a-24a
1-64a-24b
भद्रासने प्रतिष्ठाप्य इन्द्राणीं समकल्पयत्।
आपूर्यमाणपक्षे तु वैशाखे सोमदैवते।।
1-64a-25a
1-64a-25b
शुभग्रहे त्रयोदश्यां मुहूर्ते मैत्र आगते।
विवाहकाल इत्युक्त्वा वसिष्ठो मुनिभिः सह।।
1-64a-26a
1-64a-26b
यमुनाद्वीपमासाद्य शिष्यैश्च मुनिपङ्क्तिभिः।
स्थण्डिलं चतुरश्रं च गोमयेनोपलिप्य च।।
1-64a-27a
1-64a-27b
अक्षतैः फलपुष्पैश्च स्वस्तिकैराम्रपल्लवैः।
जलपूर्णघटैश्चैव सर्वतः परिशोभितम्।।
1-64a-28a
1-64a-28b
तस्य मध्ये प्रतिष्ठाप्य बृस्यां मुनिवरं तदा।
सिद्धार्थयवकल्कैश्च स्नातं सर्वौषधैरपि।।
1-64a-29a
1-64a-29b
कृत्वार्जुनानि वस्त्राणि परिधाप्य महामुनिम्।
वाचयित्वा तु पुण्याहमक्षतैस्तु समर्चितः।।
1-64a-30a
1-64a-30b
गन्धानुलिप्तः स्रग्वी च सप्रतोदो वधूगृहे।
अपदातिस्ततो गत्वा वधूज्ञातिभिरर्चितः।।
1-64a-31a
1-64a-31b
स्नातामहतसंवीतां गन्धलिप्तां स्रगुज्ज्वलाम्।
वधूं मङ्गलसंयुक्तामिषुहस्तां समीक्ष्य च।।
1-64a-32a
1-64a-32b
उवाच वचनं काले कालज्ञः सर्वधर्मवित्।
प्रतिग्रहो दातृवशः श्रुतमेवं मया पुरा।।
1-64a-33a
1-64a-33b
यथा वक्ष्यन्ति पितरस्तत्करिष्यामहे वयम्। 1-64a-34a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-34x
तद्धर्मिष्ठं यशस्यं च वचनं सत्यवादिनः।। 1-64a-34b
श्रुत्वा तु पितरः सर्वे निःसङ्गा निष्परिग्रहाः।
वसुं परमधर्मिष्ठमानीयेदं वचोऽब्रुवन्।।
1-64a-35a
1-64a-35b
मत्स्ययोनौ समुत्पन्ना तव पुत्री विशेषतः।
पराशराय मुनये दातुमर्हसि धर्मतः।।
1-64a-36a
1-64a-36b
वसुरुवाच। 1-64a-37x
सत्यं मम सुता सा हि दाशराजेन वर्धिता।
अहं प्रभुः प्रदाने तु प्रजापालः प्रजार्थिनाम्।।
1-64a-37a
1-64a-37b
पितर ऊचुः। 1-64a-38x
निराशिषो वयं सर्वे निःसङ्गा निष्परिग्रहाः।
कन्यादानेन संबन्धो दक्षिणाबन्ध उच्यते।।
1-64a-38a
1-64a-38b
कर्मभूमिस्तु मानुष्यं भोगभूमिस्त्रिविष्टपम्।
इह पुण्यकृतो यान्ति स्वर्गलोकं न संशयः।।
1-64a-39a
1-64a-39b
इह लोके दुष्कृतिनो नरकं यान्ति निर्घृणाः।
दक्षिणाबन्ध इत्युक्ते उभे सुकृतदुष्कृते।।
1-64a-40a
1-64a-40b
दक्षिणाबन्धसंयुक्ता योगिनः प्रपतन्ति ते।
तस्मान्नो मानसीं कन्यां योगाद्भ्रष्टां विशापते।।
1-64a-41a
1-64a-41b
सुतात्वं तव संप्राप्तां सतीं भिक्षां ददस्व वै।
इत्युक्त्वा पितरः सर्वे क्षणादन्तर्हितास्तदा।।
1-64a-42a
1-64a-42b
वैशंपायन उवाच। 1-64a-43x
याज्ञवल्क्यं समाहूय विवाहाचार्यमित्युत।
वसुं चापि समाहूय वसिष्ठो मुनिभिः सह।।
1-64a-43a
1-64a-43b
विवाहं कारयामास विधिदृष्टेन कर्मणा। 1-64a-44a
वसुरुवाच। 1-64a-44x
पराशर महाप्राज्ञ तव दास्याम्यहं सुताम्।। 1-64a-44b
प्रतीच्छ चैनां भद्रं ते पाणिं गृह्णीष्व पाणिना। 1-64a-45a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-45x
वसोस्तु वचनं श्रुत्वा याज्ञवल्क्यमते स्थितः।। 1-64a-45b
कृतकौतुकमङ्गल्यः पाणिना पाणिमस्पृशत्।
प्रभूताज्येन हविषा हुत्वा मन्त्रैर्हुताशनम्।।
1-64a-46a
1-64a-46b
त्रिरग्निं तु परिक्रम्य समभ्यर्च्य हुताशनम्।
महर्षीन्याज्ञवल्क्यादीन्दक्षिणाभिः प्रतर्प्यच।।
1-64a-47a
1-64a-47b
लब्धानुज्ञोऽभिवाद्याशु प्रदक्षिणमथाकरोत्।
पराशरे कृतोद्वाहे देवाः सर्पिगणास्तदा।।
1-64a-48a
1-64a-48b
हृष्टा जग्मुः क्षणादेव वेदव्यासो भवत्विति।
एवं सत्यवती हृष्टा पूजां लब्ध्वा यथेष्टतः।।
1-64a-49a
1-64a-49b
पराशरेण संयुक्ता सद्यो गर्भं सुषाव सा।
जज्ञे च यमुनाद्वीपे पाराशर्यः स वीर्यवान्।।
1-64a-50a
1-64a-50b
जातमात्रः स ववृधे सप्तवर्षोऽभवत्तदा।
स्नात्वाभिवाद्य पितरं तस्थौ व्यासः समाहितः।।
1-64a-51a
1-64a-51b
स्वस्तीति वचनं चोक्त्वा ददौ कलशमुत्तमम्।
गृहीत्वा कलशं प्राप्ते तस्थौ व्यासः समाहितः।।
1-64a-52a
1-64a-52b
ततो दाशभयात्पत्नी स्नात्वा कन्या बभूव सा।
अभिवाद्य मुनेः पादौ पुत्रं जग्राह पाणिना।।
1-64a-53a
1-64a-53b
स्पृष्टमात्रे तु निर्भर्त्स्य मातरं वाक्यमब्रवीत्।
मम पित्रा तु संस्पर्शान्मातस्त्वमभवः शुचिः।।
1-64a-54a
1-64a-54b
अद्य दाशसुता कन्या न स्पृशेर्मामनिन्दिते। 1-64a-55a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-55x
व्यासस्य वचनं श्रुत्वा बाष्पपूर्णमुखी तदा।। 1-64a-55b
मनुष्यभावात्सा योषित्पपात मुनिपादयोः।
महाप्रसादो भगवान्पुत्रं प्रोवाच धर्मवित्।।
1-64a-56a
1-64a-56b
मा त्वमेवंविधं कार्षीर्नैतद्धर्म्यं मतं हि नः।
दूष्यौ न मातापितरौ तथा पूर्वोपकारिणौ।।
1-64a-57a
1-64a-57b
धारणाद्दुःखसहनात्तयोर्माता गरीयसी।
बीजक्षेत्रसमायोगे सस्यं जायेत लौकिकम्।।
1-64a-58a
1-64a-58b
जायते च सुतस्तद्वत्पुरुषस्त्रीसमागमे।
मृगीणां पक्षिणां चैव अप्सराणां तथैव च।।
1-64a-59a
1-64a-59b
शूद्रयोन्यां च जायन्ते मुनयो वेदपारगाः।
ऋष्यशृङ्गो मृगीपुत्रः कण्वो बर्हिसुतस्तथा।।
1-64a-60a
1-64a-60b
अगस्त्यश्च वसिष्ठश्च उर्वश्यां जनितावुभौ।
सोमश्रवास्तु सर्प्यां तु अश्विनावश्विसंभवौ।।
1-64a-61a
1-64a-61b
स्कन्दः स्कन्नेन शुक्लेन जातः शरवणे पुरा।
एवमेव च देवानामृषीमां चैव संभवः।।
1-64a-62a
1-64a-62b
लोकवेदप्रवृत्तिर्हि न मीमांस्या बुधैः सदा।
वेदव्यास इति प्रोक्तः पुराणे च स्वयंभुवा।।
1-64a-63a
1-64a-63b
धर्मनेता महर्षीणां मनुष्याणां त्वमेव च।
तस्मात्पुत्र न दूष्येत वासवी योगचारिणी।।
1-64a-64a
1-64a-64b
मत्प्रीत्यर्थं महाप्राज्ञ सस्नेहं वक्तुमर्हसि।
प्रजाहितार्थं संभूतो विष्णोर्भागो महानृषिः।।
1-64a-65a
1-64a-65b
तस्मात्स्वमातरं स्नेहात्प्रबवीहि तपोधन। 1-64a-66a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-66x
गुरोर्वचनमाज्ञाय व्यासः प्रीतोऽभवत्तदा।। 1-64a-66b
चिन्तयित्वा लोकवृत्तं मातुरङ्कमथाविशत्।
पुत्रस्पर्शात्तु लोकेषु नान्यत्सुखमतीव हि।।
1-64a-67a
1-64a-67b
व्यासं कमलपत्राक्षं परिष्वज्याश्र्ववर्तयत्।
स्तन्यासारैः क्लिद्यमाना पुत्रमाघ्राय मूर्धनि।।
1-64a-68a
1-64a-68b
वासव्युवाच। 1-64a-69x
पुत्रलाभात्परं लोके नास्तीह प्रसवार्थिनाम्।
दुर्लभं चेति मन्येऽहं मया प्राप्तं महत्तपः।।
1-64a-69a
1-64a-69b
महता तपसा तात महायोगबलेन च।
मया त्वं हि महाप्राज्ञ लब्धोऽमृतमिवामरैः।।
1-64a-70a
1-64a-70b
तस्मात्त्वं मामृषेः पुत्र त्यक्तुं नार्हसि सांप्रतम्। 1-64a-71a
वैशंपायन उवाच। 1-64a-71x
एवमुक्तस्ततः स्नेहाद्व्यासो मातरमब्रवीत्।। 1-64a-71b
त्वया स्पृष्टः परिष्वक्तो मूर्ध्नि चाघ्रायितो मुहुः।
एतावन्मात्रया प्रीतो भविष्येषु नृपात्मजे।।
1-64a-72a
1-64a-72b
स्मृतोऽहं दर्शयिष्यामि कृत्येष्विति च सोऽब्रवीत्।
स मातरमनुज्ञाप्य तपस्येव मनो दधे।।
1-64a-73a
1-64a-73b
ततः कन्यामनुज्ञाय पुनः कन्या भवत्विति।
पराशरोऽपि भगवान्पुत्रेण सहितो ययौ।।
1-64a-74a
1-64a-74b
गत्वाश्रमपदं पुम्यमदृश्यन्त्या पराशरः।
जातकर्मादिसंस्कारं कारयामास धर्मतः।।
1-64a-75a
1-64a-75b
कृतोपनयनो व्यासो याज्ञवल्क्येन भारत।
वेदानधिजगौ साङ्गानोङ्कारेण त्रिमात्रया।।
1-64a-76a
1-64a-76b
गुरवे दक्षिणां दत्त्वा तपः कर्तुं प्रचक्रमे।
एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात्।।
1-64a-77a
1-64a-77b
द्वीप न्यस्तः स यद्वालस्तस्माद्द्वैपायनोऽभवत्।
पादापसारिणं धर्मं विद्वान्स तु युगे युगे।।
1-64a-78a
1-64a-78b
आयुः शक्तिं च मर्त्यानां युगाद्युगमवेक्ष्य च।
ब्रह्मर्षिर्ब्राह्मणानां च तथाऽनुग्रहकाङ्क्षया।।
1-64a-79a
1-64a-79b
विव्यास वेदान्यस्माच्च वेदव्यास इति स्मृतः।
ततः स महर्षिर्विद्वाञ्शिष्यानाहूय धर्मतः।।
1-64a-80a
1-64a-80b
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं शुकं चैव स्वमात्मजम्।
प्रभुर्वरिष्ठो वरदो वैशंपायनमेव च।।
1-64a-81a
1-64a-81b
वेदानध्यापयामास महाभारतपञ्चमान्।
संहितास्तैः पृथक्त्वेन भारतस्य प्रकीर्तिता।।
1-64a-82a
1-64a-82b
ततः सत्यवती हृष्टा जगाम स्वं निवेशनम्।
तस्यास्तु योजनाद्गन्धमाजिघ्रन्ति नरा भुवि।।
1-64a-83a
1-64a-83b
दाशराजस्तु तद्गन्धमाजिघ्रन्पीतिमावहत्। 1-64a-84a
दाशराज उवाच। 1-64a-84x
त्वामाहुर्मत्स्यगन्धेति कथं बाले सुगन्धता।। 1-64a-84b
अपास्य मत्स्यगन्धत्वं केन दत्ता सुगन्धता 1-64a-85a
सत्यवत्युवाच। 1-64a-85x
शक्ते- पुत्रो महाप्राज्ञः पराशर इति श्रुतः।। 1-64a-85b
नावं वाहयमानाया मम दृष्ट्वां सुशिक्षितम्।
उपास्य मत्स्यगन्धत्वं योजनाद्गन्धतां ददौ।।
1-64a-86a
1-64a-86b
ऋषेः प्रसादं दृष्ट्वा तु जनाः प्रीतिमुपागमन्।
एवं लब्धो मया गन्धो न रोषं कर्तुमर्हसि।।
1-64a-87a
1-64a-87b
दाशराजस्तु तद्वाक्यं प्रशशंस ननन्द च।
एतत्पवित्रं पुण्यं च व्याससमवमुत्तमम्।
इतिहासमिमं श्रुत्वा प्रजावन्तो भवन्ति च।।
1-64a-88a
1-64a-88b
1-64a-88c
तथा भीष्मः शान्तनवो गङ्गायाममितद्युतिः।
वसुवीर्यात्समभवन्महावीर्यो महायशाः।।
1-64-133a
1-64-133b
वैदार्थविच्च भगवानृषिर्विप्रो महायशाः।
शूले प्रोतः पुराणर्षिरचोरश्चोरशङ्कया।।
1-64-134a
1-64-134b
अणीमाण्डव्य इत्येवं विख्यातः स महायशाः।
स धर्ममाहूय पुरा महर्षिरिदमुक्तवान्।।
1-64-135a
1-64-135b
इषीकया मया बाल्याद्विद्धा ह्येका शकुन्तिका।
तत्किल्बिषं स्मरे धर्म नान्यत्पापमहं स्मरे।।
1-64-136a
1-64-136b
तन्मे सहस्रममितं कस्मान्नेहाजयत्तपः।
गरीयान्ब्राह्मणवधः सर्वभूतवधाद्यतः।।
1-64-137a
1-64-137b
तस्मात्त्वं किल्बिषादस्माच्छूद्रयोनौ जनिष्यसि। 1-64-138a
वैशंपायन उवाच। 1-64-138x
तेन शापेन धर्मोऽपि शूद्रयोनावजायत।। 1-64-138b
विद्वान्विदुररूपेण धार्मिकः किल्बिषात्ततः।
संजयो मुनिकल्पस्तु जज्ञे सूतो गवल्गणात्।।
1-64-139a
1-64-139b
सूर्याच्च कुन्तिकन्यायां जज्ञे कर्णो महाबलः।
सहजं कवचं बिभ्रत्कुण्डलोद्योतिताननः।।
1-64-140a
1-64-140b
अनुग्रहार्थं लोकानां विष्णुर्लोकनमस्कृतः।
वसुदेवात्तु देवक्यां प्रादुर्भूतो महायशाः।।
1-64-141a
1-64-141b
अनादिनिधनो देवः स कर्ता जगतः प्रभुः।
अव्यक्तमक्षरं ब्रह्म प्रधानं त्रिगुणात्मकम्।।
1-64-142a
1-64-142b
आत्मानमव्ययं चैव प्रकृतिं प्रभवं प्रभुम्।
पुरुषं विश्वकर्माणं सत्वयोगं ध्रुवाक्षरम्।।
1-64-143a
1-64-143b
अनन्तमचलं देवं हंसं नारायणं प्रभुम्।
धातारमजमव्यक्तं यमाहुः परमव्ययम्।।
1-64-144a
1-64-144b
कैवल्यं निर्गुणं विश्वमनादिमजमव्ययम्।
पुरुषः स विभुः कर्ता सर्वभूतपितामहः।।
1-64-145a
1-64-145b
धर्मसंस्थापनार्थाय प्रजज्ञेऽन्धकवृष्णिषु।
अस्त्रज्ञौ तु महावीर्यौ सर्वशास्त्रविशारदौ।।
1-64-146a
1-64-146b
सात्यकिः कृतवर्मा च नारायणमनुव्रतौ।
सत्यकाद्धृदिकाच्चैव जज्ञातेऽस्त्रविशारदौ।।
1-64-147a
1-64-147b
भरद्वाजस्य च स्कन्नं द्रोण्यां शुक्रमवर्धत।
सहर्षेरुग्रतपसस्तस्माद्द्रोणो व्यजायत।।
1-64-148a
1-64-148b
गौतमान्मिथुनं जज्ञे शरस्तम्बाच्छरद्वतः।
अश्वत्थाम्नश्च जननी कृपश्चैव महाबलः।।
1-64-149a
1-64-149b
अश्वत्थामा ततो जज्ञे द्रोणादेव महाबलः।
तथैव धृष्टद्युम्नोऽपि साक्षादग्निसमद्युतिः।।
1-64-150a
1-64-150b
वैताने कर्मणि तते पावकात्समजायत।
वीरो द्रोणविनाशाय धनुरादाय वीर्यवान्।।
1-64-151a
1-64-151b
तथैव वेद्यां कृष्णापि जज्ञे तेजस्विनी शुभा।
विभ्राजमाना वपुषा बिभ्रती रूपमुत्तमम्।।
1-64-152a
1-64-152b
प्रह्रादशिष्यो नग्नजित्सुबलश्चाभवत्ततः।
तस्य प्रजा धर्महन्त्री जज्ञे देवप्रकोपनात्।।
1-64-153a
1-64-153b
गान्धारराजपुत्रोऽभूच्छकुनिः सौबलस्तथा।
दुर्योधनस्य जननी जज्ञातेऽर्थविशारदौ।।
1-64-154a
1-64-154b
कृष्णद्वैपायनाज्जज्ञे धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
क्षेत्रे विचित्रवीर्यस्य पाण्डुश्चैव महाबलः।।
1-64-155a
1-64-155b
धर्मार्थकुशलो धीमान्मेधावी धूतकल्मषः।
विदुरः शूद्रयोनौ तु जज्ञे द्वैपायनादपि।।
1-64-156a
1-64-156b
पाण्डोस्तु जज्ञिरे पञ्च पुत्रा देवसमाः पृथक्।
द्वयोः स्त्रियोर्गुणज्येष्ठस्तेषामासीद्युधिष्ठिरः।।
1-64-157a
1-64-157b
धर्माद्युधिष्ठिरो जज्ञे मारुताच्च वृकोदरः।
इन्द्राद्धनंजयः श्रीमान्सर्वशस्त्रभृतां वरः।।
1-64-158a
1-64-158b
जज्ञाते रूपसंपन्नावश्विभ्यां च यमावपि।
नकुलः सहदेवश्च गुरुशुश्रूषणे रतौ।।
1-64-159a
1-64-159b
तथा पुत्रशतं जज्ञे धृतराष्ट्रस्य धीमतः।
दुर्योधनप्रभृतयो युयुत्सुः करणस्तथा।।
1-64-160a
1-64-160b
ततो दुःशासनश्चैव दुःसहश्चापि भारत।
दुर्मर्षणो विकर्णश्च चित्रसेनो विविंशतिः।।
1-64-161a
1-64-161b
जयः सत्यव्रतश्चैव पुरुमित्रश्च भारत।
वैश्यापुत्रो युयुत्सुश्च एकादश महारथाः।।
1-64-162a
1-64-162b
अभिमन्युः सुभद्रायामर्जुनादभ्यजायत।
स्वस्रीयो वासुदेवस्य पौत्रः पाण्डोर्महात्मनः।।
1-64-163a
1-64-163b
पाण्डवेभ्यो हि पाञ्चाल्यां द्रौपद्यां पञ्च जज्ञिरे।
कुमारा रूपसंपन्नाः सर्वशास्त्रविशारदाः।।
1-64-164a
1-64-164b
प्रतिविन्ध्यो युधिष्ठिरात्सुतसोमो वृकोदरात्।
अर्जुनाच्छ्रुतकीर्तिस्तु शतानीकस्तु नाकुलिः।।
1-64-165a
1-64-165b
तथैव सहदेवाच्च श्रुतसेनः प्रतापवान्।
हिडिम्बायां च भीमेन वने जज्ञे घटोत्कचः।।
1-64-166a
1-64-166b
शिखण्डी द्रुपदाज्जज्ञे कन्या पुत्रत्वभागता।
यां यक्षः पुरुषं चक्रे स्थूमः प्रियचिकीर्षया।।
1-64-167a
1-64-167b
कुरूणां विग्रहे तस्मिन्समागच्छन्बहून्यथ।
राज्ञां शतसहस्राणि योत्स्यमानानि संयुगे।।
1-64-168a
1-64-168b
तेषामपरिमेयानां नामधेयानि सर्वशः।
न शक्यानि समाख्यातुं वर्षाणामयुतैरपि।
एते तु कीर्तिता मुख्या यैराख्यानमिदं ततम्।।
1-64-169a
1-64-169b
1-64-169c
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि
अंशावतरणपर्वणि चतुःषष्टितमोऽध्यायः।। 64 ।।

1-64-1 रञ्जकत्वाद्राजा। महीपतिः पृथ्वीपालकः।। 1-64-2 वसुः उपरिचरः।। 1-64-4 साक्षात्प्रत्यक्षभूय।। 1-64-5 न संकीर्येत निर्नायकत्वात्।। 1-64-8 पशव्यः पशुभ्यो हितः।। 1-64-11 गाः बलीवर्दान्। वृषभान्कृशान्न धुरि युञ्जते प्रत्युत संधुक्षयन्ति पुष्टान्कुर्वन्ति। अन्ये तु गाः स्त्रीगवीः तासामप्यान्ध्रादिदुर्देशेषु धुरि योजनं दृष्टं तदिह नास्तीत्याहुः।। 1-64-12 न त इति। आत्मज्ञानात्सर्वज्ञो भविष्यसीत्यर्थः।। 1-64-13 उपपत्स्यते उपस्थास्यते।। 1-64-15 वैजयन्तीं विजयहेतुं। अविक्षतमेव धारयिष्यति पालयिष्यति नतु विक्षतम्।। 1-64-16 लक्षणं चिह्नम्।। 1-64-17 इष्टप्रदानं प्रीतिदायमुद्दिश्य यष्टिं ददौ।। 1-64-20 शक्रस्य पूजार्थं तस्या यष्टेः प्रवेशं स्थापनम्।। 1-64-23 पिटकैः मञ्जूषारूपैर्वस्त्रमयैः कोशैः।। 1-64-46 वासवाः वसुपुत्राः।। 1-64-48 पुरोपवाहिनीं पुरसमीपे वहन्तीं।। 1-64-50 नदी राज्ञे न्यवेदयन्मिथुनमित्यनुषज्यते।। 1-64-54 तदहस्तस्मिन् दिने।। 1-64-63 वायुना कामोद्दीपकेन। धूम्रं मलिनं रतिकर्म तदर्थं। मुदं स्त्रीविषयां प्रीतिमनुसृत्य तामेन मनसाऽगात्। तया सह मानसं सुरतमकरोदित्यर्थः। प्रचस्कन्द पपात।। 1-64-64 मिथ्या प्रसवशून्यत्वेनालीकप्रायम्।। 1-64-68 अभिमन्त्र्य पुत्रोत्पत्तिलिङ्गैर्मन्त्रैः स्पृष्ट्वा।। 1-64-70 आर्तवमृतुकालीनं स्नानम्।। 1-64-73 युध्यतोः सतोः।। 1-64-76 मासे दशमे प्राप्ते बबन्धुरिति संबन्धः। उज्जह्नुः उद्धृतवन्तः।। 1-64-77 काये देहे। मत्स्याः मत्स्ययोषायाः।। 1-64-115 नीहारं धूमिकाम्।। 1-64-119 स्थातुं जीवितुं नोत्सहे कन्यात्वदूषणादित्यर्थः।। 1-64-128 द्वीपमेवाऽयनं न्यासस्थानं यस्य द्वीपायनः स्वार्थे तद्धितः द्वीपायन एव द्वैपायन इति नाम निर्वक्ति न्यस्त इति।। 1-64-125 पादापसारिणं युगेयुगे पादशः 1-64-88 तमश्लोकपूर्वार्धात्परं `इति सत्यवती हृष्टा' इत्यादि `भारतस्य प्रकाशिताः' इत्यन्तसार्धश्लोकसप्तकस्थाने इमे कुण्डलिताः श्लोकाः केषुचित्कोशेषूपलभ्यन्ते। 1-64-133 वसुवीर्यात् वस्वंशात्।। 1-64-136 शकुन्तिका मक्षिका।। 1-64-140 कुन्तिभोजस्य कन्यायां कुन्त्याम्।। 1-64-167 स्थूणो नाम्ना।। चतुःषष्ठितमोऽध्यायः।। 64 ।।

आदिपर्व-063 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आदिपर्व-065
"https://sa.wikisource.org/w/index.php?title=महाभारतम्-01-आदिपर्व-064&oldid=54241" इत्यस्माद् प्रतिप्राप्तम्