महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-272
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युधिष्ठिराय निखिलधर्मोपदेशानन्तरं स्वावसानकालाऽऽसत्त्यवगमेन भगवद्ध्यानाय वाक्प्रसारणादुपरते भीष्मे तंप्रति व्यासेन युधिष्ठिरस्थ नगरगमनाभ्यनुज्ञानचोदना।। 1 ।। युधिष्ठिरेण भीष्माश्यनुज्ञया सहकृष्णादिभिर्हास्तिनपुरप्रवेशनम्।। 2 ।।
जनमेजय उवाच। | 13-272-1x |
शरतल्पगते भीष्मे कौरवाणां धुरन्धरे। शयाने वीरशयने पाण्डवैः समुपस्थिते।। | 13-272-1a 13-272-1b |
युधिष्ठिरो महाप्राज्ञो मम पूर्वपितामहः। धर्माणामागमं श्रुत्वा विदित्वा सर्वसंशयान्।। | 13-272-2a 13-272-2b |
दानानां च विधिं श्रुत्वा च्छिन्नधर्मार्थसंशयः। यदन्यदकरोद्विप्र तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-272-3a 13-272-3b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-272-4x |
अभून्मुहूर्तं स्तिमितं सर्वं तद्राजमण्डलम्। तूष्णींभूते ततस्तस्मिन्पटे चित्रमिवार्पितम्।। | 13-272-4a 13-272-4b |
मुहूर्तमिव च ध्यात्वा व्यासःक सत्यवतीसुतः। नृपं शयानं गाङ्गेयमिदमाह वचस्त्वरन्।। | 13-272-5a 13-272-5b |
राजन्प्रकृतिमापन्नः कुरुराजो युधिष्ठिरः। सहितो भ्रातृभिः सर्वैः पार्तिवैश्चानुयायिभिः।। | 13-272-6a 13-272-6b |
उपास्ते त्वां नरव्याघ्र सह कृष्णेन धीमता। तमिमं पुरयानाय समनुज्ञातुमर्हसि।। | 13-272-7a 13-272-7b |
एवमुक्तो भगवता व्यासेन पृथिवीपतिः। युधिष्ठिरं सहामात्यमनुजज्ञे नदीसुतः।। | 13-272-8a 13-272-8b |
उवाच चैनं मधुरं नृपं शान्तनवो नृपः। प्रविशस्व पुरीं राजन्धर्मे च ध्रियतां मनः।। | 13-272-9a 13-272-9b |
यजस्व विविधैर्यजैर्बह्वन्नैः स्वाप्तदक्षिणैः। ययातिरिव राजेन्द्र श्रकद्धादमपुरःसरः।। | 13-272-10a 13-272-10b |
क्षत्रधर्मरतः पार्थ पितॄन्देवांश्च तर्पय। श्रेयसा योक्ष्यसे चैव व्येतु ते मानसो ज्वरः।। | 13-272-11a 13-272-11b |
रञ्जयस्व प्रजाः सर्वाः प्रकृतीः परिसान्त्वय। सुहृदः फलसत्कारैरर्चयस्व यथार्हतः।। | 13-272-12a 13-272-12b |
अनुं त्वां तात जीवन्तु मित्राणि सुहृकदस्तथा। चैत्यस्थाने स्थितं वृक्षं फलवन्तमिव द्विजाः।। | 13-272-13a 13-272-13b |
आगन्तव्यं च भवता समये मम पार्थिव। विनिवृत्ते दिनकरे प्रवृत्ते चोत्तरायणे।। | 13-272-14a 13-272-14b |
तथेत्युक्त्वा च कौन्तेयः सोभिवाद्य पितामहम्। प्रययौ सपरीवारो नगरं नागसाह्वयम्।। | 13-272-15a 13-272-15b |
धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य गान्धारीं च पतिव्रताम्। सह तैर्ऋषिभिः सर्वैर्भ्रातृभिः केशवेन च।। | 13-272-16a 13-272-16b |
पौरजानपदैश्चैव मन्त्रिवृद्धैश्च पार्थिव। प्रविवेश कुरुश्रेष्ठः पुरं वारणसाह्वयम्।। | 13-272-17a 13-272-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 272 ।। |
13-272-7 तमिमं पुनरागन्तुमिति थ.पाठः।।
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