महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-118
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति विस्तरेण गवोत्पत्तिप्रकारकथनम्।। 1 ।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 13-118-1x |
सुरभेः काः प्रजाः पूर्वं मार्ताण्डादभवन्पुरा। एतन्मे शंस तत्वेनि गोषु मे प्रीयते मनः।। | 13-118-1a 13-118-1b |
भीष्म उवाच। | 13-118-2x |
शृणु नामानि दिव्यानि गोमातॄणां विशेषतः। याभिर्व्याप्तास्त्रयो लोकाः कल्याणीभिर्जनाधिप।। | 13-118-2a 13-118-2b |
सुरभ्यः प्रथमोद्भूता याश्च स्युः प्रथमाः प्रजाः। मयोच्यमानाः शृणु ताः प्राप्स्यसे विपुलं यशः।। | 13-118-3a 13-118-3b |
तप्त्वा तपो घोरतपाः सुरभिर्दिप्ततेजसः। सुषावैकादश सुतान्रुद्रा ये च्छन्दसि स्तुताः।। | 13-118-4a 13-118-4b |
अजैकपादहिर्बुध्न्यस्त्र्यम्बकश्च महायशाः। वृषाकपिश्च शम्भुश्च कपाली रैवतस्तथा।। | 13-118-5a 13-118-5b |
हरश्च बहुरूपश्च उग्र उग्रोऽथ वीर्यवान्। तस्य चैवात्मजः श्रीमान्विश्वरूपो महायशाः।। | 13-118-6a 13-118-6b |
एकादशैते कथिता रुद्रास्ते नाम नामतः। महात्मानो महायोगास्तेजोयुक्ता महाबलाः।। | 13-118-7a 13-118-7b |
एते वरिष्ठजन्मानो देवानां ब्रह्मवादिनाम्। विप्राणां प्रकृतिर्लोके एत एव हि विश्रुताः।। | 13-118-8a 13-118-8b |
एत एकादश प्रोक्ता रुद्रास्त्रिभुवनेश्वराः। शतं त्वेतत्समाख्यातं शतरुद्रं महात्मनाम्।। | 13-118-9a 13-118-9b |
सुषुवे प्रथमां कन्यां सुरभिः पृथिवीं तदा। विश्वकामदुघा धेनुर्या धारयति देहिनः।। | 13-118-10a 13-118-10b |
सुतं गोब्राह्मणं राजन्नेकमित्यभिधीयते। गोब्राह्मणस्य जननी सुरभिः परिकीर्त्यते।। | 13-118-11a 13-118-11b |
सृष्ट्वा तु प्रथमं रुद्रान्वरदान्रुद्रसम्भवान्। पश्चात्प्रभुं ग्रहपतिं सुषुवे लोकसम्मतम्।। | 13-118-12a 13-118-12b |
सोमराजानममृतं यज्ञसर्वस्वमुत्तमम्। ओषधीनां रसानां च देवानां जीवितस्य च।। | 13-118-13a 13-118-13b |
ततः श्रियं च मेधां च कीर्तिं देवीं सरस्वतीम्। चतस्रः सुषुवे कन्या योगेषु नियताः स्तिताः।। | 13-118-14a 13-118-14b |
एताः सृष्ट्वा प्रजा एषा सुरभिः कामरूपिणी। सुषुवे परमं भूयो दिव्या गोमातरः शुभाः।। | 13-118-15a 13-118-15b |
पुण्यां मायां मधुश्च्योतां शिवां शीघ्रां सरिद्वराम्। हिरण्यवर्णां सुभगां गव्यां पृश्नीं कुथावतीम्।। | 13-118-16a 13-118-16b |
अङ्गावतीं घृतवतीं दधिक्षीरपयोवतीम्। अमोघां सुरमां सत्यां रेवतीं मारुतीं रसाम्।। | 13-118-17a 13-118-17b |
अजां च सिकतां चैव शुद्धधूमामधारिणीम्। जीवां प्राणवतीं धन्यां शुद्धां धेनुं धनावहाम्।। | 13-118-18a 13-118-18b |
इन्द्रामृद्धिं च शान्ति च शान्तपापां सरिद्वराम्। चत्वारिंशतिमेकां च धन्यास्ता दिवि पूजिताः।। | 13-118-19a 13-118-19b |
भूयो जज्ञे सुरभ्याश्च श्रीमांश्चन्द्रांशुसप्रभः। वृपो दक्ष इति ख्यातः कण्ढे मणितलप्रभः। | 13-118-20a 13-118-20b |
स्रग्वी ककुद्मान्द्युतिमान्मृणालसदृशप्रभः। सुरभ्यनुमते दत्तो ध्वजो माहेशअवरस्तु सः।। | 13-118-21a 13-118-21b |
सुरभ्यः कामरूपिण्यो गावः पुण्यार्थमुत्कटाः। आदित्येभ्यो वसुभ्यश्च विश्वेभ्यश्च ददौ वरान्।। | 13-118-22a 13-118-22b |
सुरभिस्तु तपस्तप्त्वा सुषुवे गास्ततः पुनः। या दत्ता लोकपालानामिन्द्रादीनां युधिष्ठिर।। | 13-118-23a 13-118-23b |
सुष्टुनां कपिलां चैव रोहिणीं च यशस्विनीम्। सर्वकामदुघां चैव मरुतां कामरूपिणीम्।। | 13-118-24a 13-118-24b |
गावो मृष्टदुघा ह्येतास्ताश्चतस्रोऽत्र संस्तुताः। यासां भूत्वा पुरा वत्साः पिबन्त्यमृतमुत्तमम्।। | 13-118-25a 13-118-25b |
सुष्टुतां देवराजाय वासवाय महात्मने। कपिलां धर्मराजाय वरुणाय च रोहिणीम्।। | 13-118-26a 13-118-26b |
सर्वकामदुघां धेनुं राज्ञे वैश्रवणाय च। इत्येता लोकमहिता विश्रुताः सुरभेः प्रजाः।। | 13-118-27a 13-118-27b |
एतासां प्रजया पूर्णा पृथिवी मुनिपुङ्गवः। गोभ्यः प्रभवते सर्वं यत्किंचिदिह शोभनम्।। | 13-118-28a 13-118-28b |
सुरभ्यपत्यमित्येतन्नामतस्तेऽनुपूर्वशः। कीर्तितं ब्रूहि राजेन्द्र किं भूयः कथयामि ते'।। | 13-118-29a 13-118-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 118 |
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