महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-054
पठन सेटिंग्स
← अनुशासनपर्व-053 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-054 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-055 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति युगचतुष्टयधर्मादिप्रतिपादकनारदमार्कण्डेयसंवादानुवादः।। 1 ।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 13-54-1x |
पुत्रैः कथं महाराज पुरुषस्तारितो भवेत्। यावन्न लब्धवान्पुत्रमफलः पुरुषो नृप।। | 13-54-1a 13-54-1b |
भीष्म उवाच। | 13-54-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। नारदेन पुरा गीतं मार्कण्डेयाय पृच्छते।। | 13-54-2a 13-54-2b |
पर्वतं नारदं चैव असितं देवलं च तम्। आरुणेयं च रैभ्यं च एतानत्रागतान्पुरा।। | 13-54-3a 13-54-3b |
गङ्गायमुनयोर्मध्ये भोगवत्याः समागमे। दृष्ट्वा पूर्वं समासीनान्मार्कण्डेयोऽभ्यगच्छत।। | 13-54-4a 13-54-4b |
ऋषयस्तु मुनिं दृष्ट्वा समुत्थायोन्मुखाः स्थिताः। अर्चयित्वाऽर्हतो विप्रं किं कुर्म इति चाब्रुवन्।। | 13-54-5a 13-54-5b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-54-6x |
अयं समागमः सद्भिर्यत्नेनासादितो मया। अत्र प्राप्स्यामि धर्माणामाचारस्य च निश्चयम्।। | 13-54-6a 13-54-6b |
ऋजुः कृतयुगे धर्मस्तस्मिन्क्षीणे विमुह्यति। युगेयुगे महर्षिभ्यो धर्ममिच्छामि वेदितुम्।। | 13-54-7a 13-54-7b |
ऋषिभिर्नारदः प्रोक्तो ब्रूहि यत्रास्य संशयः। धर्माधर्मेषु तत्वज्ञ त्वं हि च्छेत्ता हि संशयान्।। | 13-54-8a 13-54-8b |
ऋषिभ्योऽनुमतं वाक्यं नियोगान्नारदस्तदा। सर्वधर्मार्थतत्वज्ञं मार्कण्डेयं ततोऽब्रवीत्।। | 13-54-9a 13-54-9b |
दीर्घायो तपसा दीप्त वदेवदाङ्गतत्ववित्। यत्र ते संशयो ब्रह्मन्समुत्पन्नः स उच्यताम्।। | 13-54-10a 13-54-10b |
धर्मं लोकोपकारं वा यच्चान्यच्छ्रोतुमिच्छसि। तदहं कथयिष्यामि ब्रूहि त्वं सुमहातपाः।। | 13-54-11a 13-54-11b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-54-12x |
युगेयुगे व्यतीतेऽस्मिन्धर्मसेतुः प्रणश्यति। कथं धर्मच्छलेनाहं प्राप्नुयामिति मे मतिः।। | 13-54-12a 13-54-12b |
नारद उवाच। | 13-54-13x |
आसीद्धर्मः पुरा विप्र चतुष्पादः कृते युगे। ततो ह्यधर्मः कालेन प्रसूतः किञ्चिदूनतः।। | 13-54-13a 13-54-13b |
ततस्त्रेतायुगं नाम प्रवृत्तं धर्मदूषणम्।। | 13-54-14a |
तस्मिन्नतीते सम्प्राप्तं तृतीयं द्वापरं युगम्। तदा धर्मस्य द्वौ पादावधर्मो नाशयिष्यति।। | 13-54-15a 13-54-15b |
द्वापरे तु परिक्षीणे नन्दिके समुपस्थिते। लोकवृत्तं च धर्मं च उच्यमानं निबोध मे।। | 13-54-16a 13-54-16b |
चतुर्थं नन्दिकं नाम धर्मः पादावशेषितः। ततः प्रभृति जायन्ते क्षीणप्रज्ञायुपो नराः। क्षीणप्राणधना लोके धर्माचारबहिष्कृताः।। | 13-54-17a 13-54-17b 13-54-17c |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-54-18x |
एवं विलुलिते धर्मे लोके चाधर्मसंयुते। चातुर्वर्ण्यस्य नियतं हव्यं कव्यं नियच्छति।। | 13-54-18a 13-54-18b |
नारद उवाच। | 13-54-19x |
मन्त्रपूतं सदा हव्यं कव्यं चैव न नश्यति। प्रतिगृह्णन्ति तद्देवा दातुर्न्यायात्प्रयच्छतः।। | 13-54-19a 13-54-19b |
सत्वयुक्तं च दाता च सर्वान्कामानवाप्नुयात्। अवाप्तकामः स्वर्गे च महीयेत यथेप्सितम्।। | 13-54-20a 13-54-20b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-54-21x |
चत्वारो ह्यथ ये वर्णा हव्यं कव्यं प्रदास्यति। मन्त्रहीनमपन्यायं तेषां दत्तं क्व गच्छति।। | 13-54-21a 13-54-21b |
नारद उवाच। | 13-54-22x |
असुरान्गच्छते दत्तं विप्रै रक्षांसि क्षत्रियैः। वैश्यैः प्रेतानि वै दत्तं शूद्रैर्भूतानि गच्छति।। | 13-54-22a 13-54-22b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-54-23x |
अथ वर्णावरे जाताश्चातुर्वर्ण्योपदेशिनः। दास्यन्ति हव्यकव्यानि तेषां दत्तं क्व गच्छति | 13-54-23a 13-54-23b |
नारद उवाच। | 13-54-24x |
वर्णावराणां भूतानां हव्यकव्यप्रदातृणाम्। नैव देवा न पितरः प्रतिगृह्णन्ति तत्स्वयम्।। | 13-54-24a 13-54-24b |
यातुधानाः पिशाचाश्च भूता ये चापि नैर्ऋताः। तेषां सा विहिता वृत्तिः पितृदैवतनिर्गताः।। | 13-54-25a 13-54-25b |
तेषां सर्वप्रदातॄणां हव्यकव्यं समाहिताः। यत्प्रयच्छन्ति विधइवत्तद्वै भुञ्जन्ति देवताः।।' | 13-54-26a 13-54-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुःपश्चाशोऽध्यायः।। 54 ।। |
13-54-16 नन्दिक इति कलियुगे प्रवर्तमानधर्मैकपादस्य नाम।। 16 ।।
अनुशासनपर्व-053 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-055 |