महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-147

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त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-147
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ब्राह्मणादिधर्मनिरूपणपूर्वकं शूद्रस्य यतिशुश्रूषाप्रकारनिरूपणम्।। 1 ।।

`पुराशर उवाच। 13-147-1x
क्षत्रा आरम्भयज्ञास्तु वीर्ययज्ञा विशः स्मृताः।
शूद्रा परिचरायज्ञा जपयज्ञास्तु ब्राह्मणाः।।
13-147-1a
13-147-1b
शुश्रूषाजीविनः शूद्रा वैश्या विपणिजीविनः।
अनिष्टनिग्रहः क्षत्रा विप्राः स्वाध्यायजीविनः।।
13-147-2a
13-147-2b
तपसा शोभते विप्रो राजन्यः पालनादिभिः।
आतिथ्येन तथा वैश्यः शूद्रो दास्येन शोभते।।
13-147-3a
13-147-3b
यतात्मना तु शूद्रेण शुश्रूषा नित्यमेव च।
कर्तव्या त्रिषु वर्णेषु प्रायेणाश्रमवासिषु।।
13-147-4a
13-147-4b
अशक्तेन त्रिवर्गस्य सेव्या ह्याश्रमवासिनः।
यथाशक्यं यथाप्रज्ञं यथाधर्मं यथाश्रुतम्।।
13-147-5a
13-147-5b
विशेषेणैव कर्तव्या शुश्रूषा भिक्षुकाश्रमे।। 13-147-6a
आश्रमाणां तु सर्वेषां चतुर्णां भिक्षुकाश्रमम्।
प्रधानमिति वर्ण्यन्ते शिष्टाः शास्त्रविनिश्चये।।
13-147-7a
13-147-7b
यच्चोपदिश्यते शिष्टैः श्रुतिस्मृतिविधानतः।
तथाऽऽस्थेयमशक्तेन स धर्म इति निश्चितः।।
13-147-8a
13-147-8b
अतोऽन्यथा तु कुर्वाणः श्रेयो नाप्नोति मानवः।
तस्माद्भिक्षुषु शूद्रेण कार्यमात्महितं सदा।।
13-147-9a
13-147-9b
इह यत्कुरुते श्रेयस्तत्प्रेत्य समुपाश्नुते।
तच्चानसूयता कार्यं कर्तव्यं यद्धि मन्यते।।
13-147-10a
13-147-10b
असूयता तु तस्येह फलं दुःखादवाप्यते।
प्रियवादी जितक्रोधो वीततन्द्रीरमत्सरः।।
13-147-11a
13-147-11b
क्षमावाञ्शीलसम्पन्नः सत्यधर्मपरायणः।
आपद्भावेन कुर्याद्धि शुश्रूषां भिक्षुकाश्रमे।।
13-147-12a
13-147-12b
अयं मे परमो धर्मस्त्वनेनेदं सुदुष्करम्।
संसारसागरं घोरं तरिष्यामि न संशयः।।
13-147-13a
13-147-13b
विभयो देहमुत्सृज्य यास्यामि परमां गतिम्।
नातः परं ममाप्यन्य एष धर्मः सनातनः।।
13-147-14a
13-147-14b
एवं सञ्चिन्त्य मनसा शूद्रो बुद्धिसमाधिना।
कुर्यादविमना नित्यं शुश्रूषाधर्ममुत्तमम्।।
13-147-15a
13-147-15b
शुश्रूषानियमेनेह भाव्यं शिष्टाशिना सदा।
शमान्वितेन दान्तेन कार्याकार्यविदा सदा।।
13-147-16a
13-147-16b
सर्वकार्येषु कृत्यानि कृतान्येव तु दुर्शयेत्।
यथा प्रियो भवेद्भिक्षुस्तथा कार्यं प्रसाधयेत्।।
13-147-17a
13-147-17b
यदकल्प्यं भवेद्भिक्षोर्न तत्कार्यं समाचरेत्।
यथाऽऽश्रमस्याविरुद्धं धर्ममात्राभिसंहितम्।।
13-147-18a
13-147-18b
तत्कार्यमविचारेण नित्यमेव शुभार्थिना।
मनसा कर्ममा वाचा नित्यमेव प्रसादयेत्।।
13-147-19a
13-147-19b
स्थातव्यं तिष्ठमानेषु गच्छमानाननुव्रजेत्।
आसीनेष्वासितव्यं च नित्यमेवानुवर्तता।।
13-147-20a
13-147-20b
धर्मलब्धेन स्नेहेन पादौ सम्पीडयेत्सदा।
उद्वर्तनादींश्च तथा कुर्यादप्रतिचोदितः।।
13-147-21a
13-147-21b
नैजकार्याणि कृत्वा तु नित्यं चैवानुचोदितः।
यथाविधिरुपस्पृश्य संन्यस्य जलभाजनम्।।
13-147-22a
13-147-22b
भिक्षूणां निलयं गत्वा प्रणम्य विधिपूर्वकम्।
ब्रह्मपूर्वान्गुरूंस्तत्र प्रणम्यि नियतेन्द्रियः।।
13-147-23a
13-147-23b
तथाऽऽचार्यपुरोगाणामनुकुर्यान्नमस्क्रियाम्।
स्वधर्मचारिणां चापि सुखं पृष्ट्वाऽभिवाद्य च।।
13-147-24a
13-147-24b
यो भवेत्पूर्वसंसिद्धस्तुल्यकर्मा भवेत्सदा।
तस्मै प्रणामः कर्तव्यो नेतरेषु कदाचन।।
13-147-25a
13-147-25b
अनुक्त्वा तेषु चोत्थाय नित्यमेव यतव्रतः।
सम्मार्जनमथो गत्वा कृत्वा चाप्युपलेपनम्।।
13-147-26a
13-147-26b
ततः पुष्पबलिं दद्यापुष्पाण्यादाय धर्मतः।
निष्क्रम्यावसथात्तूर्णमन्यत्कर्म समाचरेत्।।
13-147-27a
13-147-27b
यथोपघातो न भवेत्स्वाध्यायेऽऽश्रमिणां तथा।
उपघातं तु कुर्वाण एनसा सम्प्रयुज्यते।
तथाऽऽत्मा प्रणिधातव्यो यथा ते प्रीतिमाप्नुयुः।।
13-147-28a
13-147-28b
13-147-28c
परिचारकोऽहं वर्णानां त्रयाणां धर्मतः स्मृतः।
किमुताश्रमवृद्धानां यथालब्धोपजीविनाम्।।
13-147-29a
13-147-29b
भिक्षूणां गतरागाणां केवलं ज्ञानदर्शिनम्।
विशेषेण मया कार्या शुश्रूषा नियतात्मना।।
13-147-30a
13-147-30b
तेषां प्रसादात्तपसा प्राप्स्यामीष्टां शुभां गतिम्।
एवमेतद्विनिश्चित्य यदि सेवेत भिक्षुकान्।
विधिना स्वोपदिष्टेन प्राप्नोति परमां गतिम्।।'
13-147-31a
13-147-31b
13-147-31c
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 147 ।।

[सम्पाद्यताम्]

13-147-1 हविर्यज्ञा विशः स्मृता इति ङ.थ.पाठः।।

अनुशासनपर्व-146 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-148