महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-035
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति मनोवाक्कायरूपकरणैर्दुष्कर्मपरित्पागपूर्वकं शुभकर्मकरणस्य भगवत्प्रसादनहेतुत्वोक्तिः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-35-1x |
किं कर्तव्यं मनुष्येण लोकयात्राहितार्थिना। कथं वै लोकयात्रां तु किंशीलश्च समाचरेत्।। | 13-35-1a 13-35-1b |
भीष्म उवाच। | 13-35-2x |
`देवे नारायणे भक्तिः शंकरे साधुपूजया। ध्यानेनाथ जपः कार्यः स्वधर्मैः शुचिचेतसा।।' | 13-35-2a 13-35-2b |
कायेन त्रिविधं कर्म वाचा चापि चतुर्विधम्। मनसा त्रिविधं चैव दश कर्मपथांस्त्यजेत्।। | 13-35-3a 13-35-3b |
प्राणातिपातः स्तैन्यं च परदाराभिमर्शनम्। त्रीणि पापानि कायेन सर्वतः परिवर्जयेत्।। | 13-35-4a 13-35-4b |
असत्प्रलापं पारुष्यं पैशुन्यमनृतं तथा। चत्वारि वाचा राजेन्द्र न जल्पेन्नानुचिन्तयेत्।। | 13-35-5a 13-35-5b |
अनभिध्या परस्वेषु सर्वसत्वेषु सौहृदम्। कर्मणां फलमस्तीति त्रिविधं मनसा चरेत्।। | 13-35-6a 13-35-6b |
तस्माद्वाक्वायमनसा नाचरेदशुभं नरः। शुभान्येवाचरँल्लोके भक्तो नारायणस्य हि। तस्यैव तु पदं सूक्ष्मं प्रसादादश्नुयात्परम्।।' | 13-35-7a 13-35-7b 13-35-7c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।। 35 ।। |
13-35-1 लोकयात्रां लोकद्वयश्रेयःसाधनम्।। 13-35-3 सुभं कर्मफलं चरेदिति ध.पाठः।। 13-35-4 प्राणातिपातो हिंसा।। 13-35-5 पारुष्यं निष्ठुरभाषणम्। पैशुन्यं राजद्वारादौ परदोषसूचनम्। अनतं मिथ्यावादः मनसाप्येवं वदिष्यामिति नानुचिन्तयेत्।। 13-35-6 अनभिध्येति श्लोकेन परद्रव्येष्वभिध्यानं परस्यानिष्टचिन्तनं वेदबादेषु नास्तिक्यमिति त्रीणि त्याज्यानि लक्षयेत्। त्यजेदित्युपक्रमात्।।
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