महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-264
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति ब्राह्मणानां महत्तरत्वे दृष्टान्ततया स्वेन प्रद्युम्नं प्रत्युक्तदुर्वासश्चरित्रप्रतिपादनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-264-1x |
ब्रूहि ब्राह्मणपूजायां व्युष्टिं त्वं मधुसूदन। वेत्ता त्वमस्य चार्थस्य वेद त्वां हि पितामहः।। | 13-264-1a 13-264-1b |
वासुदेव उवाच। | 13-264-2x |
शृणुष्वावहितो राजन्द्विजानां भरतर्षभ। यथातत्त्वेन वदतो गुणान्वै कुरुसत्तम।। | 13-264-2a 13-264-2b |
द्वारवत्यां समासीनं पुरा मां कुरुनन्दन। प्रद्युम्नः परिपप्रच्छ ब्राह्मणैः परिकोपितः।। | 13-264-3a 13-264-3b |
किं फलं ब्राह्मणेष्वस्ति पूजायां मधुसूदन। ईश्वरत्वं कुतस्तेषामिहैव च परत्र च।। | 13-264-4a 13-264-4b |
सदा द्विजातीन्सम्पूज्य किं फलं तत्र मानद। एतद्ब्रूहि स्फुटं सर्वं सुमहान्संशयोऽत्र मे।। | 13-264-5a 13-264-5b |
इत्युक्ते वचने तस्मिन्प्रद्युम्नेन तथा त्वहम्। प्रत्यब्रवं महाराज यत्तच्छृणु समाहितः।। | 13-264-6a 13-264-6b |
व्युष्टिं ब्राह्मणपूजायां रौक्मिणेय निबोध मे। एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः।। | 13-264-7a 13-264-7b |
अस्मिँल्लोके रौक्मिणेय तथाऽमुष्मिंश्च पुत्रक। ब्राह्मणप्रमुखं सौम्यं न मेऽत्रास्ति विचारणा।। | 13-264-8a 13-264-8b |
ब्राह्मणप्रभवं सौख्यमायुः कीर्तिर्यशो बलम्। लोका लोकेश्वराश्चैव सर्वे ब्राह्मणपूजकाः।। | 13-264-9a 13-264-9b |
त्रिवर्गे चापवर्गे च यशःश्रीरोगशान्तिषु। देवतापितृपूजासु सन्तोष्याश्चैव नो द्विजाः।। | 13-264-10a 13-264-10b |
तान्कथं वै नाद्रियेयमीश्वरोस्मीति पुत्रक। मा ते मन्युर्महाबाहो भवत्वत्र द्विजान्प्रति।। | 13-264-11a 13-264-11b |
ब्राह्मणा हि महद्भूतमस्मिँल्लोके परत्र च। भस्म कुर्यर्जगदिदं क्रुद्धाः प्रत्यक्षदर्शिनः।। | 13-264-12a 13-264-12b |
हन्युस्तेऽपि सृजेयुस्च लोकान्लोकेश्वरांस्तथा। कथं तेषु न वर्तेरन्सम्यग्ज्ञानात्सुतेजसः।। | 13-264-13a 13-264-13b |
अवसन्मद्गृहे तात ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः। चीरवासा बिल्वदण्डी दीर्घश्मश्रुः कृशो महान्।। | 13-264-14a 13-264-14b |
दीर्घभ्यश्च मनुष्येभ्यः प्रमाणादधिको भुवि। स स्वैरं चरते लोकान्ये दिव्या ये च मानुषाः।। | 13-264-15a 13-264-15b |
इमां गाथां गायमानश्चत्वरेषु सभासु च। दुर्वाससं वासयेत्को ब्राह्मणं सत्कृतं गृहे।। | 13-264-16a 13-264-16b |
रोषणः सर्वभूतानां सूक्ष्मेऽप्यपकृते कृते। परिभाषां च मे श्रुत्वा को नु दद्यात्प्रतिश्रयम्।। | 13-264-17a 13-264-17b |
यो मां कश्चिद्वासयीत न स मां कोपयेदिति। यस्मान्नाद्रियते कश्चित्ततोऽहं समवासयम्।। | 13-264-18a 13-264-18b |
स सम्भुङ्क्ते सहस्राणां बहूनामन्नमेकदा। एकदा सोल्पकं भुङ्क्ते नचैवैति पुनर्गृहान्।। | 13-264-19a 13-264-19b |
अकस्माच्च प्रहसति तथाऽकस्मात्प्ररोदिति। न चास्य वयसा तुल्यः पृथिव्यामभवत्तदा।। | 13-264-20a 13-264-20b |
अथ स्वावसथं गत्वा सशय्यास्तरणानि च। अदहत्स महातेजास्ततश्चाभ्यपतत्स्वयम्।। | 13-264-21a 13-264-21b |
अथ मामब्रवीद्भूयः स मुनिः संशितव्रतः। कृष्ण पायसमिच्छामि भोक्तुमित्येव सत्वरः।। | 13-264-22a 13-264-22b |
तदैव तु मया तस्य चित्तज्ञेन गृहे जनः। सर्वाण्यन्नानि पानानि भक्ष्याश्चोच्चावचास्तथा।। | 13-264-23a 13-264-23b |
भवन्तु सत्कृतानीह पूर्वमेव प्रयोचितः। ततोऽहं ज्वलमानं वै पायसं प्रत्यवेदयम्।। | 13-264-24a 13-264-24b |
तं भुक्त्वैव स तु क्षिप्रं ततो वचनमब्रवीत्। क्षिप्रमङ्गानि लिम्पस्व पायसेनेति स स्म ह।। | 13-264-25a 13-264-25b |
अविमृश्यैव च ततः कृतवानस्मि तत्तथा। तेनोच्छिष्टेन गात्राणि शरीरं च समालिपम्।। | 13-264-26a 13-264-26b |
स ददर्श तदाऽभ्याशे मातरं ते शुभाननाम्। तामपि स्मयमानां स पायसेनाभ्यलेपयत्।। | 13-264-27a 13-264-27b |
मुनिः पायसदिग्धाङ्गीं रथे तूर्णमयोजयत्। तमारुद्य रथं चैव निर्ययौ स गृहान्मम।। | 13-264-28a 13-264-28b |
अग्निवर्णो ज्वलन्धीमान्स द्विजो रथधुर्यवत्। प्रतोदेनातुदद्बालां रुक्मिणीं मम पश्यतः।। | 13-264-29a 13-264-29b |
न च मे स्तोकमप्यासीद्दुः खमीर्ष्याकृतं तदा। तथा स राजमार्गेणि महता निर्ययौ बहिः।। | 13-264-30a 13-264-30b |
तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं दाशार्हा जातमन्यवः। तत्राजल्पन्मिथः केचित्समाभाष्य परस्परम्।। | 13-264-31a 13-264-31b |
ब्राह्मणा एव जायेरन्नान्यो वर्णः कथञ्चन। को ह्येनां रथमास्थाय जीवेदन्य पुमानिह।। | 13-264-32a 13-264-32b |
आशीविषविषं तीक्ष्णं ततस्तीक्ष्णतरो द्विजः। ब्रह्माहिविषदिग्धस्य नास्ति कश्चिच्चिकित्सकः।। | 13-264-33a 13-264-33b |
तस्मिन्व्रजति दुर्धर्षे प्रास्खलद्रुक्मिणी पथि। अमर्षयंस्तथा श्रीमान्स्मितपूर्वमचोदयम्।। | 13-264-34a 13-264-34b |
ततः परमसंक्रुद्धो रथात्प्रस्कन्द्य स द्विजः। पदातिरुत्पथेनैव प्राद्रवद्दक्षिणामुखः।। | 13-264-35a 13-264-35b |
तमुत्पथेन धावन्तमन्वधावं द्विजोत्तमम्। तथैव पायसादिग्धः प्रसीद भगवन्निति।। | 13-264-36a 13-264-36b |
ततो विलोक्य तेजस्वी ब्राह्मणो मामुवाच ह। जितः क्रोधस्त्वया कृष्ण प्रकृत्यैव महाभुज।। | 13-264-37a 13-264-37b |
न तेऽपराधमिह वै दृष्टवानस्मि सुव्रत। प्रीतोस्मि तव गोविन्द वृणु कामान्यथेप्सितान्।। | 13-264-38a 13-264-38b |
प्रसन्नस्य च मे तात पश्य व्युष्टिं यथाविधाम्।। | 13-264-39a |
यावदेव मनुष्याणामन्ने भावो भविष्यति। यथैवान्ने तथा तेषां त्वयि भावो भविष्यति।। | 13-264-40a 13-264-40b |
यावच्च पुण्या लोकेषु त्वयि कीर्तिर्भविष्यति। त्रिषु लोकेषु तावच्च वैशिष्ट्यं प्रतिपत्स्यसे। सुप्रियः सर्वलोकस्य भविष्यसि जनार्दन।। | 13-264-41a 13-264-41b 13-264-41c |
यत्ते भिन्नं च दग्धं च यच्च किञ्चिद्विनाशितम्। सर्वं तथैव द्रष्टासि विशिष्टं जनार्दन।। | 13-264-42a 13-264-42b |
यावदेतत्प्रलिप्तं ते गात्रेषु मधुसूदन। अतो मृत्युभयं नास्ति यावदिच्छसि चाच्युत।। | 13-264-43a 13-264-43b |
न तु पादतले लिप्ते तस्मात्ते मृत्युरत्र वै। नैतन्मे प्रियमित्येवं स मां प्रीतोऽब्रवीत्तदा।। | 13-264-44a 13-264-44b |
इत्युक्तोऽहं शरीरं स्वं ददर्श श्रीसमायुतम्। | 13-264-45a |
रुक्मिणीं चाब्रवीत्प्रीतः सर्वस्त्रीणां वरं यशः। कीर्तिं चानुत्तमां लोके समवाप्स्यसि शोभने।। | 13-264-46a 13-264-46b |
न त्वां जरा वा रोगो वा वैवर्ण्यं चापि भामिनि। स्प्रक्ष्यन्ति पुण्यगन्धा च कृष्णमाराधयिष्यसि।। | 13-264-47a 13-264-47b |
षोडशानां सहस्राणां बधूनां केशवस्य ह। वरिष्ठा च सलोक्या च केशवस्य भविष्यसि।। | 13-264-48a 13-264-48b |
तव मातरमित्युक्त्वा ततो मां पुनरब्रवीत्। प्रस्थितः सुमहातेजा दुर्वासाऽग्निरिव ज्वलन्।। | 13-264-49a 13-264-49b |
एषैव ते बुद्धिरस्तु ब्राह्मणान्प्रति केशव। इत्युक्त्वा स तदा पुत्र तत्रैवान्तरधीयत।। | 13-264-50a 13-264-50b |
तस्मिन्नन्तर्हिते चाहमुपांशु व्रतमाचरम्। यत्किञ्चिद्ब्राह्मणो ब्रूयात्सर्वं कुर्यामिति प्रभो।। | 13-264-51a 13-264-51b |
एतद्व्रतमहं कृत्वा मात्रा ते सह पुत्रक। ततः परमहृष्टात्मा प्राविशं गृहमेव च।। | 13-264-52a 13-264-52b |
प्रविष्टमात्रश्च गृहे सर्वं पश्यामि तन्नवम्। यद्भिन्नं यच्च वै दग्धं तेन विप्रेण पुत्रक।। | 13-264-53a 13-264-53b |
ततोऽहं विस्मयं प्राप्तः सर्वं दृष्ट्वा नवं दृढम्। अपूजयं च मनसा रौक्मिणेय सदा द्विजान्।। | 13-264-54a 13-264-54b |
इत्यहं रौक्मिणेयस्य पृच्छतो भरतर्षभ। माहात्म्यं द्विजमुख्यस्य सर्वमाख्यातवांस्तदा।। | 13-264-55a 13-264-55b |
तथा त्वमपि कौन्तेय ब्राह्मणान्सततं प्रभो। पूजयस्व महाभागान्वाग्भिर्दानैश्च नित्यदा।। | 13-264-56a 13-264-56b |
एवं व्युष्टिमहं प्राप्तो ब्राह्मणस्य प्रसादजाम्। यच्च मामाह भीष्मोऽयं तत्सत्यं भरतर्षभ।। | 13-264-57a 13-264-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुःषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 264 ।। |
13-264-8 सौम्यं कल्याणम्।। 13-264-9 ब्राह्मणप्रतिपूजायामायुरिति झ. पाठः।। 13-264-14 दीर्घश्मश्रुनखादिमानिति थ.ध.पाठः।। 13-264-23 जन इति इति शेषपूर्त्या सम्बन्धः।। 13-264-44 लिप्ते कस्मात्ते पुत्रकाद्य वै इति झ.पाठः।।
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