महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-131
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तारकासुरबाधितैर्देवैर्ब्रह्माणं प्रति स्वेषां पार्वतीशापेनानपत्यत्वकथनपूर्वकमसुरवधोपायकथनप्रार्थना।। 1 ।। ब्रह्मणां देवान्प्रति अग्नेरसन्निहितत्वेन देवीशापाविषयतया देवेन स्ववीर्यनिरोधकाले भुवि प्रस्कन्नकिञ्चिद्वीर्यांशस्य तस्मिन्संसृष्टतया च तेन गङ्गायां कुमारोत्पादनकथनेनाग्न्यन्वेषणचोदना।। 2 ।। अग्निना देवानां प्रार्थनया गङ्गायां स्वयंसृष्टरुद्रवीर्याधानम्।। 3 ।। गङ्ग्याऽग्निता स्वस्मिन्नाहितगर्भस्य मेरुगिरौ समुत्सर्जने तदीयतेजोव्याप्तयावद्वस्तूनां काञ्चनीभावप्राप्तिः।। 4 ।। एवं भीष्मेण सुवर्णोत्पत्तिप्रकारकथनम्।। 5 ।।
देवा ऊचुः। | 13-131-1x |
असुरस्तारको नाम त्वया दत्तवरः प्रभो। सुरानृषींश्च क्लिश्नाति वधस्तस्य विधीयताम्।। | 13-131-1a 13-131-1b |
तस्माद्भयं समुत्पन्नमस्माकं वै पितामह। परित्रायस्व नो देव न ह्यन्या गतिरस्ति नः।। | 13-131-2a 13-131-2b |
ब्रह्मोवाच। | 13-131-3x |
समोहं सर्वभूतानामधर्मं नेह रोचये। हन्यतां तारकः क्षिप्र सुरर्षिगणबाधिता।। | 13-131-3a 13-131-3b |
वेदा धर्माश्च नोच्छेदं गच्छेयुः सुरसत्तमाः। विहितं पूर्वमेवात्र मया वै व्येतु वो ज्वरः।। | 13-131-4a 13-131-4b |
देवा ऊचुः। | 13-131-5x |
वरदानाद्भगवतो दैतेयो बलगर्वितः। देवैर्न शक्यते हन्तु स कथं प्रशमं व्रजेत्।। | 13-131-5a 13-131-5b |
स हि नैव स्म देवानां नासुराणां न रक्षसाम्। वध्यः स्यामिति जग्राह वरं त्वत्तः पितामह।। | 13-131-6a 13-131-6b |
देवाश्च शप्ता रुद्राण्या प्रजोच्छेदे पुरा कृते। न भविष्यति वोऽपत्यमिति सर्वे जगत्पते।। | 13-131-7a 13-131-7b |
ब्रह्मोवाच। | 13-131-8x |
हुताशनो न तत्रासीच्छापकाले सुरोत्तमाः। स उत्पादयिताऽपत्यं वधाय त्रिदशद्विषाम्।। | 13-131-8a 13-131-8b |
तद्वै सर्वानतिक्रम्य देवदानवराक्षसान्। मानुषानथ गन्धर्वान्नागानथ च पक्षिणः।। | 13-131-9a 13-131-9b |
अस्त्रेणामोघपातेन शक्त्या तं घातयिष्यति। यतो वो भयपुत्पन्नं ये चान्ये सुरशत्रवः।। | 13-131-10a 13-131-10b |
सनातनो हि सङ्कल्पः काम इत्यभिधीयते। रुद्रस्य तेजः प्रस्कन्नमग्नौ निपतितं च यत्।। | 13-131-11a 13-131-11b |
तत्तजोऽग्निर्महद्भूतं द्वितीयमिव पावकम्। वधार्थं देवशत्रूणां गङ्गायां जनयिष्यति।। | 13-131-12a 13-131-12b |
स तु नावाप तं शापं नष्टः स हुतभुक्तदा। तस्माद्वो भयहृद्देवाः समुत्पत्स्यति पावकिः।। | 13-131-13a 13-131-13b |
अन्विष्यतां वै ज्वलनस्तथा चाद्य नियुज्यताम्। तारकस्य वधोपायः कथितो वै मयाऽनघाः।। | 13-131-14a 13-131-14b |
न हि तेजस्विनां शापास्तेजःसु प्रभवन्ति वै। बलान्यतिबलं प्राप्य दुर्बलानि भवन्ति वै।। | 13-131-15a 13-131-15b |
हन्यादवध्यान्वरदानपि चैव तपस्विनः। सङ्कल्पाभिरुचिः कामः सनातनतमोऽभवत्।। | 13-131-16a 13-131-16b |
जगत्पतिरनिर्देश्य सर्वगः सर्वभावनः। हृच्छयः सर्वभूतानां ज्येष्ठो रुद्रादपि प्रभुः।। | 13-131-17a 13-131-17b |
अन्विष्यतां स तु क्षिप्रं तेजोराशिर्हुताशनः। स वो मनोगतं कामं देवः सम्पादयिष्यति।। | 13-131-18a 13-131-18b |
एतद्वाक्यमुपश्रुत्य ततो देवा महात्मनः। जग्मु- संसिद्धसङ्कल्पाः पर्येषन्तो विभावसुम्।। | 13-131-19a 13-131-19b |
ततस्त्रैलोक्यमृषयो व्यचिन्वन्त सुरैः सह। काङ्क्षन्तो दर्शनं वह्नेः सर्वे तद्गतमानसाः।। | 13-131-20a 13-131-20b |
परेण तपसा युक्ताः श्रीमन्तो लोकविश्रुताः। लोकानन्वचरन्सिद्धाः सर्व एव भृगूत्तम। नष्टमात्मनि संलीनं नाभिजग्मुर्हुताशनम्।। | 13-131-21a 13-131-21b 13-131-21c |
ततः संजातसंत्रासानग्निदर्शनलालसान्। जलेचरः क्लान्तमनास्तेजसाऽग्नेः प्रदीपितः। उवाच देवान्मण्डूको रसातलतलोत्थितः। | 13-131-22a 13-131-22b 13-131-22c |
रसातलतले देवा वसत्यग्निरिति प्रभो। सन्तापादिह सम्प्राप्तः पावकप्रभवादहम्।। | 13-131-23a 13-131-23b |
स संसुप्तो जले देवा भगवान्हव्यवाहनः। अपः संसृज्य तेजोभिस्तेन सन्तापिता वयम्।। | 13-131-24a 13-131-24b |
तस्य दर्शनमिष्टं वो यदि देवा विभावसोः। तत्रैवमधिगच्छध्वं कार्यं वो यदि वह्निना।। | 13-131-25a 13-131-25b |
गम्यतां साधयिष्यामो वयं ह्यग्निभयात्सुराः। एतावदुक्त्वा मण्डूकस्त्वरितो जलमाविशत्।। | 13-131-26a 13-131-26b |
हुताशनस्तु बुबुधे मण्डूकस्य च पैशुनम्। शशाप स तमासाद्य न रसान्वेत्स्यसीति वै।। | 13-131-27a 13-131-27b |
तं वै संयुज्य शापेन मण्डूकं त्वरितो ययौ। अन्यत्र वासाय विभुर्न चात्मानमदर्शयत्।। | 13-131-28a 13-131-28b |
देवास्त्वनुग्रहं चक्रुर्मण्डूकानां भृगूत्तम। यत्तच्छृणु महाबाहो गदतो मम सर्वशः।। | 13-131-29a 13-131-29b |
देवा ऊचुः। | 13-131-30x |
अग्निशापादजिह्वाऽपि रसज्ञानबहिष्कृताः। सरस्वतीं बहुविधां यूममुच्चारयिष्यथ।। | 13-131-30a 13-131-30b |
बिलवासं गतांश्चैव निराहारानचेतसः। गतासूनपि वः शुष्कान्भूमिः सन्धारयिष्यति।। | 13-131-31a 13-131-31b |
तमोघनायामपि वै निशायां विचरिष्यथ। इत्युक्त्वा तांस्ततो देवाः पुनरेव महीमिमाम्।। | 13-131-32a 13-131-32b |
परीयुर्ज्वलनस्यार्थे न चाविन्दन्हुताशनम्। अथ तान्द्विरदः कश्चित्सुरेन्द्रद्विरदोपमः।। | 13-131-33a 13-131-33b |
अश्वत्थस्थोऽग्निरित्येवमाह देवान्भृगूद्वह। शशाप ज्वलनः सर्वान्द्विरदान्क्रोधमूर्च्छितः।। | 13-131-34a 13-131-34b |
प्रतीपा भवतां जिह्वा भवित्रीति भृगूद्वह। इत्युक्त्वा निःसृतोऽश्वत्थादग्निर्वारणसूचितः। प्रविवेश शमीगर्भमथ वह्निः सुषुप्सया।। | 13-131-35a 13-131-35b 13-131-35c |
अनुग्रहं तु नागानां यं चक्रुः शृणु तं प्रभो। देवा भृगुकुलश्रेष्ठ प्रीत्या सत्यपराक्रमाः।। | 13-131-36a 13-131-36b |
देवा ऊचुः। | 13-131-37x |
प्रतीपया जिह्वयाऽपि सर्वाहारान्हरिष्यथ। वाचं चोच्चारयिष्यध्वमुच्चैरव्यञ्जिताक्षराम्। इत्युक्त्वा पुनरेवाग्निमनुसस्रुर्दिवौकसः।। | 13-131-37a 13-131-37b 13-131-37c |
अश्वत्थान्निःसृतश्चाग्निः शमीगर्भमुपाविशत्। शुकेन ख्यापितो विप्र तं देवाः समुपाद्रवन्।। | 13-131-38a 13-131-38c |
शशाप सुकमग्निस्तु वाग्विहीनो भविष्यसि। जिह्वामावर्तयामास तस्यापि हुतभुक्तदा।। | 13-131-39a 13-131-39b |
दृष्ट्वा तु ज्वलनं देवाः शुकमूचुर्दयान्विताः। भविता न त्वमत्यन्तं शुकत्वे नष्टवागिति।। | 13-131-40a 13-131-40b |
आवृत्तजिह्वस्य सतो वाक्यं कान्तं भविष्यति। बालस्येव प्रवृद्धस्य कलमव्यक्तमद्भुतम्।। | 13-131-41a 13-131-41b |
इत्युक्त्वा तं शमीगर्भे वह्निमालक्ष्य देवताः। तदेवायतनं चक्रुः पुण्यं सर्वक्रियास्वपि।। | 13-131-42a 13-131-42b |
तदाप्रभृति चाप्यग्निः शमीगर्भेषु दृश्यते। उत्पादने तथोपायमभिजग्मुश्च मानवाः।। | 13-131-43a 13-131-43b |
आपो रसातले यास्तु संस्पृष्टाश्चित्रभानुना। ताः पर्वतप्रस्रवणैरूष्मां मुञ्चन्ति भार्गव। पावकेनाधिशयता सन्तप्तास्तस्य तेजसा।। | 13-131-44a 13-131-44b 13-131-44c |
अथाग्निर्देवता दृष्ट्वा बभूव व्यथितस्तदा। किमागमनमित्येवं तानपृच्छत पावकः।। | 13-131-45a 13-131-45b |
तमूचुर्विबुधाः सर्वे ते चैव परमर्षयः। त्वां नियोक्ष्यामहे कार्ये तद्भवान्कर्तुमर्हति। कृते च तस्मिन्भविता तवापि सुमहान्गुणः।। | 13-131-46a 13-131-46b 13-131-46c |
अग्निरुवाच। | 13-131-47x |
ब्रूत यद्भवतां कार्यं कर्तास्मि तदहं सुराः। भवतां तु नियोज्योस्मि मावोत्रास्तु विचारणा।। | 13-131-47a 13-131-47b |
देवा ऊचुः। | 13-131-48x |
असुरस्तारको नाम ब्रह्मणो वरदर्पितः। अस्मान्प्रबाधते वीर्याद्वधस्तस्य विधीयताम्।। | 13-131-48a 13-131-48b |
इमान्देवगणांस्तात प्रजापतिगणांस्तथा। ऋषींश्चापि महाभाग परित्रायस्व पावक।। | 13-131-49a 13-131-49b |
अपत्यं तेजसा युक्तं प्रवीरं जनयक प्रभो। यद्भयं नोऽसुरात्तस्मान्नाशयेद्धव्यवाहन।। | 13-131-50a 13-131-50c |
शप्तानां नो महादेव्या नान्यदस्ति परायणम्। अन्यत्र भवतो वीर तस्मात्त्रायस्व नः प्रभो।। | 13-131-51a 13-131-51b |
इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा भगवान्हव्यवाहनः। जगामाथ दुराधर्षो गङ्गां भागीरथीं प्रति।। | 13-131-52a 13-131-52b |
तया चाप्यभवन्मिश्रो गर्भं चास्यां दधे तदा। ववृधे स तदा गर्भः कक्षे कृष्णगतिर्यथा।। | 13-131-53a 13-131-53b |
तेजसा तस्य देवस्य गङ्गा विह्वलचेतना। सन्तापमगमत्तीव्रं वोढुं सा न शशाक ह।। | 13-131-54a 13-131-54b |
आहिते ज्वलनेनाथ गर्भे तेजःसमन्विते। गङ्गायामसुरः कश्चिद्भैरवं नादमानदत्।। | 13-131-55a 13-131-55b |
अबुद्धिपतितेनाथ नादेन विपुलेन सा।। वित्रस्तोद्धान्तनयना गङ्गा विप्लुतलोचना।। | 13-131-56a 13-131-56b |
विसंज्ञा नाशकद्गर्भं वोढुमात्मानमेव च। सा तु तेजःपरीताङ्गी कम्पमाना च जाह्नवी।। | 13-131-57a 13-131-57b |
उवाच ज्वलनं विप्र तदा गर्भबलोद्धुता। नते शक्ताऽस्मि भगवंस्तेजसोऽस्य विधारणे।। | 13-131-58a 13-131-58b |
विमूढाऽस्मि कृताऽनेन न मे स्वास्ध्यं यथा पुरा। विह्वला चास्मि भगवंश्चेतो नष्टं च मेऽनघ | 13-131-59a 13-131-59b |
धारणे नास्य शक्ताऽहं गर्भस्य तपतांवर। उत्स्रक्ष्येऽहमिमं दुःखान्न तु कामात्कथञ्चन।। | 13-131-60a 13-131-60b |
न तेजसाऽस्ति संस्पर्शो मम देव विभावसो। आपदर्थे हि सम्बन्धः सुसूक्ष्मोऽपि महाद्युते।। | 13-131-61a 13-131-61b |
यदत्र गुणसम्पन्नमितरद्वा हुताशन। त्वय्येव तदहं मन्ये धर्माधर्मौ च केवलौ।। | 13-131-62a 13-131-62b |
तामुवाच ततो वह्निर्धार्यतां धार्यतामिति। गर्भो मत्तेजसा युक्तो महागुणफलोदयः।। | 13-131-63a 13-131-63b |
शक्ता ह्यसि महीं कृत्स्नां वोढुं धारयितुं तथा। न हि ते किञ्चिदप्राप्यमन्यतो धारणादृते।। | 13-131-64a 13-131-64b |
`एवमुक्ता तु सा देवी तत्रैवान्तरधीयत। पावकश्चापि तेजस्वी कृत्वा कार्यं दिवौकसाम्। जगामेष्टं तदा देशं ततो भार्गवनन्दन।।' | 13-131-65a 13-131-65b 13-131-65c |
सा वह्निना वार्यमाणा देवैरपि सरिद्वरा। समुत्ससर्ज तं गर्भं मेरौ गिरिवेर तदा।। | 13-131-66a 13-131-66b |
समर्था धारणे चापि रुद्रतेजःप्रधर्षिता। नाशकत्सा तदा गर्भं सन्धारयितुमोजसा। समुत्ससर्ज तं दुःखाद्दीप्तवैश्वानरप्रभम्।। | 13-131-67a 13-131-67b 13-131-67c |
दर्शयामास चाग्निस्तां तदा गङ्गां भृगूद्वह। पप्रच्छ सरितां श्रेष्ठां कच्चिद्गर्भः सुखोदयः।। | 13-131-68a 13-131-68b |
कीदृग्गुणोपि वा देवि कीदृग्रूपश्च दृश्यते। तेजसा केन वा युक्तः सर्वमेतद्ब्रवीहि मे।। | 13-131-69a 13-131-69b |
गङ्गोवाच। | 13-131-70x |
जातरूपः स गर्भो वै तेजसा त्वमिवानघ। सुवर्णो विमलो दीप्तः पर्वतं चावभासयन्।। | 13-131-70a 13-131-70b |
पद्मोत्पलविमिश्राणां ह्रदानामिव शीतलः। गन्धोस्य स कदम्बानां तुल्यो वै तपतांवर।। | 13-131-71a 13-131-71b |
तेजसा तस्य गर्भस्य भास्करस्येव रश्मिभिः। यद्द्रव्यं परिसंसृष्टं पृथिव्यां पर्वतेषु च। तत्सर्वं काञ्चनीभूतं समन्तात्प्रत्यदृश्यत।। | 13-131-72a 13-131-72b 13-131-72c |
पर्यधावत शैलांश्च नदीः प्रस्रवणानि च। व्यादीपयत्तेजसा च त्रैलोक्यं सचराचरम्।। | 13-131-73a 13-131-73b |
एवंरूपः स भगवान्पुत्रस्ते हव्यवाहन। सूर्यवैश्वानरसमः कान्त्या सोम इवापरः।। | 13-131-74a 13-131-74b |
वसिष्ठ उवाच। | 13-131-75x |
एवमुक्त्वा तु सा देवी तत्रैवान्तरधीयत। पावकश्चापि तेजस्वी कृत्वा कार्यं दिवौकसाम्। जगामेष्टं ततो देशं तदा भार्गवनन्दन।। | 13-131-75a 13-131-75b 13-131-75c |
एतैः कर्मगुणैर्लोके नामाग्नेः परिगीयते। हिरण्यरेता इति वै ऋषिभिर्विबुधैस्तथा। पृथिवी च तदा देवी ख्याता वसुमतीति वै।। | 13-131-76a 13-131-76b 13-131-76c |
स तु गर्भो महातेजा गाङ्गेयः पावकोद्भवः। दिव्यं शरवणं प्राप्य ववृधेऽद्भुतदर्शनः।। | 13-131-77a 13-131-77b |
ददृशुः कृत्तिकास्तं तु बालार्कसदृशद्युतिम्। जातस्नेहास्तु तं बालं पुपुषुः स्तन्यविस्रवैः।। | 13-131-78a 13-131-78b |
ततः स कार्तिकेयत्वमवाप परमद्युतिः। स्कन्नत्वात्स्कन्दतां चापि गुहावासाद्गुहोऽभवत्।। | 13-131-79a 13-131-79b |
एवं सुवर्णमुत्पन्नमपत्यं जातवेदसः। तत्र जाम्बूनदं श्रेष्ठं देवानामपि भूषणम्।। | 13-131-80a 13-131-80b |
ततःप्रभृति चाप्येतञ्जातरूपमुदाहृतम्। रत्नानामुत्तमं रत्नं भूषणानां तथैव च।। | 13-131-81a 13-131-81b |
पवित्रं च पवित्राणां मङ्गलानां च मङ्गलम्। यत्सुवर्णं स भगवानग्निरीशः प्रजापतिः।। | 13-131-82a 13-131-82b |
पवित्राणां पवित्रं हि कनकं द्विजसत्तमाः। अग्नीषोमात्मकं चैव जातरूपमुदाहृतम्।। | 13-131-83a 13-131-83b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 131 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
13-131-13 नष्टः अदर्शं गतः।।
13-131-16 कामः काम्यमानो वह्निः।।
13-131-21 नष्टं अदर्शनं गतम्। आत्मनि जले जलस्य तेजोजन्यत्वात्।।
13-131-26 मृग्यतां साधयिष्याम इति थ.ध.पाठः।।
13-131-27 न रसानिति। रसनेन्द्रियहीनो भविष्यसीत्यर्थः।।
13-131-28 नच देवानदर्शयदिति थ.ध.पाठः।।
13-131-30 अजिह्वा अपीति च्छेदः।।
13-131-39 जिह्वां च कर्तयामासेति ड.पाठः।।
13-131-41 बालस्येव प्रवृत्तस्येति ड.थ.ध.पाठः।।
13-131-44 ऊष्मा ऊष्माणम्। अदिशयता अधिशयानेन। पावकेनाधिशयिता इति ट.ध.पाठः।।
13-131-53 दधे आदधे। गर्भश्वास्याभवत्तदेति थ.पाठः।।
13-131-54 सोढुं सा न शशाक हेति थ.पाठः।।
13-131-56 अबुद्धिपतितेन अकस्माज्जातेन।।
13-131-61 न चेतसास्ति संस्पर्श इति थ.पाठः।।
13-131-71 कदम्बानां कदम्बपुष्पाणाम्।।
13-131-83 अग्निष्टोमात्मकं चैवेति थ.ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-130 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-132 |