महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-112
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गोसामान्योत्पत्तिप्रकारकथनपूर्वकं कपिलोत्पत्तिप्रकारकथनम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 13-112-1x |
ततो युधिष्ठिरे राजा भूयः शान्तनवं नृपम्। गोदानविस्तरं धीमान्पप्रच्छ विनयान्वितः।। | 13-112-1a 13-112-1b |
गोप्रदानगुणान्सम्यक् पुनर्मे ब्रूहि भारत। न हि तृप्याम्यहं वीर शृण्वानोऽमृतमीदृशम्।। | 13-112-2a 13-112-2b |
इत्युक्तो धर्मराजेन तदा शान्तनवो नृपः। सम्यगाह गुणांस्तस्मै गोप्रदानस्य केवलान्।। | 13-112-3a 13-112-3b |
भीष्म उवाच। | 13-112-4x |
वत्सलां गुणसम्प्रन्ना तरुणीं वस्त्रसंयुताम्। दत्त्वेदृशीं गां विप्राय सर्वपापैः प्रमुच्यते।। | 13-112-4a 13-112-4b |
असुर्या नाम ते लोका गां दत्त्वा तान्न गच्छति। | 13-112-5a |
पीतोदकां जग्धतृणां नष्टक्षीरां निरिन्द्रियाम्। जरारोगोपसम्पन्नां जीर्णां वापीमिवाजलाम्। दत्त्वा तमः प्रविशति द्विजं क्लेशेन योजयेत्।। | 13-112-6a 13-112-6b 13-112-6c |
रुष्टा दुष्टा व्याधिता दुर्बला वा नो दातव्या याश्च मूल्यैरदत्तैः। क्लेशैर्विप्रं योऽफलैः संयुनक्ति तस्याऽवीर्याश्चाफलाश्चैव लोकाः।। | 13-112-7a 13-112-7b 13-112-7c 13-112-7d |
बलान्विताः शीलवीर्योपपन्नाः सर्वे प्रशंसन्ति सुगन्धवत्यः। यथा हि गङ्गा सरितां वरिष्ठा तथाऽर्जुनीनां कपिला वरिष्ठा।। | 13-112-8a 13-112-8b 13-112-8c 13-112-8d |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-112-9x |
कस्मात्समाने बहुलाप्रदाने सद्भिः प्रशस्तं कपिलाप्रदानम्। विशेषमिच्छामि महाप्रभावं श्रोतुं समर्थोस्मि भवान्प्रवक्तुम्।। | 13-112-9a 13-112-9b 13-112-9c 13-112-9d |
भीष्म उवाच। | 13-112-10x |
वृद्धानां ब्रुवतां श्रुत्वा कपिलानामथोद्भवम्। वक्ष्यामि तदशेषेण रोहिण्यो निर्मिता यथा।। | 13-112-10a 13-112-10b |
प्रजाः सृजेति चादिष्टः पूर्वं दक्षः स्वयंभुवा। नासृजद्वृत्तिमेवाग्रे प्रजानां हितकाम्यया।। | 13-112-11a 13-112-11b |
यथा ह्यमृतमाश्रित्य वर्तयन्ति दिवौकसः। तथा वृत्तिं समाश्रित्य वर्तयन्ति प्रजा विभो।। | 13-112-12a 13-112-12b |
अचरेभ्यश्च भूतेभ्यश्चराः श्रेष्ठास्ततो नराः। ब्राह्मणाश्च ततः श्रेष्ठास्तषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः।। | 13-112-13a 13-112-13b |
यज्ञैराप्यायते सोमः स च गोषु प्रतिष्ठितः। ताभ्यो देवाः प्रमोदन्ते प्रजानां वृत्तिरासु च।। | 13-112-14a 13-112-14b |
ततः प्रजासु सृष्टासु दक्षाद्यैः क्षुधिताः प्रजाः। प्रजापतिमुपाधावन्विनिश्चित्य चतुर्मखम्।। | 13-112-15a 13-112-15b |
प्रजातान्येव भूतानि प्राक्रोशन्वृत्तिकाङ्क्षया। वृत्तिदं चान्वपद्यन्त तृषिताः पितृमातृवत्।। | 13-112-16a 13-112-16b |
इतीदं मनसा गत्वा प्रजासर्गार्थमात्मनः। प्रजापतिर्बलाधानममृतं प्रापिबत्तदा। शंसतस्तस्य तृप्तिं तु गन्धात्सुरभिरुत्थिता।। | 13-112-17a 13-112-17b 13-112-17c |
मुखजा साऽसृजद्धातुः सुरभिर्लोकमातरम्। दर्शनीयरसं वृत्तिं सुरभिं मुखजां सुताम्।। | 13-112-18a 13-112-18b |
साऽसृजत्सौरभेयीस्तु सुरभिर्लोकमातृकाः। सुवर्णवर्णाः कपिलाः प्रजानां वृत्तिधेनवः।। | 13-112-19a 13-112-19b |
तासाममृतवृत्तीनां क्षरन्तीनां समन्ततः। बभूवामृतजः फेनः स्रवन्तीनामिवोर्मिजः।। | 13-112-20a 13-112-20b |
स वत्समुखविभ्रष्टो भवस्य भुवि तिष्ठतः। शिरस्यवापतत्क्रुद्धः स तदैक्षत च प्रभुः। ललाटप्रभवेणाक्ष्णा रोहिणीं प्रदहन्निव।। | 13-112-21a 13-112-21b 13-112-21c |
तत्तेजस्तु ततो रौद्रं कपिलां गां विशाम्पते। नानावर्णत्वमनयन्मेघानिव दिवाकरः।। | 13-112-22a 13-112-22b |
यास्तु तस्मादपक्रम्य सोममेवाभिसंश्रिताः। यथोत्पन्नाः स्ववर्णस्था न नीताश्चान्यवर्णतां।। | 13-112-23a 13-112-23b |
अथ क्रुद्धं महादेवं प्रजापतिरभाषत। अमृतेनावसिक्तस्त्वं नोच्छिष्टं विद्यते गवाम्।। | 13-112-24a 13-112-24b |
यथा ह्यमृतमादाय सोमो विष्यन्दते पुनः। तथा क्षीरं क्षरन्त्येता रोहिण्योऽमृतसम्भवाः।। | 13-112-25a 13-112-25b |
न दुष्यत्यनिलो नाग्निर्न सुवर्णं न चोदधिः। नामृतेनामृतं पीतं न वत्सैर्दुष्यते पयः।। | 13-112-26a 13-112-26b |
इमाँल्लोकान्भरिष्यन्ति हविषा प्रस्रवेण च। आसामैश्वर्यमिच्छन्ति सर्वेऽमृतमयं शुभम्।। | 13-112-27a 13-112-27b |
वृषभं च ददौ तस्मै भगवाँल्लोकभावनः। प्रसादयामास मनस्तेन रुद्रस्य भारत।। | 13-112-28a 13-112-28b |
प्रीतश्चापि महादेवश्चकार वृषभं तदा। ध्वजं च वाहनं चैव तस्मात्स वृषभध्वजः।। | 13-112-29a 13-112-29b |
ततो देवैर्महादेवस्तदा पशुपतिः कृतः। ईश्वरः स गवां मध्ये वृषभाङ्कः प्रकीर्तितः।। | 13-112-30a 13-112-30b |
एवमव्यग्रवर्णानां कपिलानां महौजसाम्। प्रदाने प्रथमः कल्पः सर्वासामेव कीर्तितः।। | 13-112-31a 13-112-31b |
लोकज्येष्ठा लोकवृत्तिप्रवृत्ता रुद्रोद्भूताः सोमविष्यन्दभूताः। सौम्याः पुण्याः कामदाः प्राणदाश्च गा वै दत्त्वा सर्वकामप्रदः स्यात्।। | 13-112-32a 13-112-32b 13-112-32c 13-112-33d |
इदं गवां प्रभवविधानमुत्तमं पठन्सदा शुचिरपि मङ्गलप्रियः। विमुच्यते कलिकलुषेण मानवः प्रियान्सुतान्धनपशुमाप्नुयात्सदा।। | 13-112-33a 13-112-33b 13-112-33c 13-112-33d |
हव्यं कव्यं तर्पणं शान्तिकर्म यानं वासो वृद्धबालस्य तुष्टिः। एतान्सर्वान्गोप्रदाने गुणान्वै दाता राजन्नाप्नुयाद्वै सदैव।। | 13-112-34a 13-112-34b 13-112-34c 13-112-34d |
वैशम्पायन उवाच। | 13-112-35x |
पितामहस्याथ निशम्य वाक्यं राजा सह भ्रातृभिराजमीढः। सुवर्णवर्णानडुहस्तथा गाः पार्थो ददौ ब्राह्मणसत्तमेभ्यः।। | 13-112-35a 13-112-35b 13-112-35c 13-112-35d |
तथैव तेभ्योपि ददौ द्विजेभ्यो गवां सहस्राणि शतानि चैव। यज्ञान्समुद्धिश्य च दक्षिणार्थे लोकान्विजेतुं परमां च कीर्तिम्।। | 13-112-36a 13-112-36b 13-112-36c 13-112-36d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 112 ।। |
13-112-6 अनन्ता नाम ते लोका गां दत्त्वा यत्र गच्छतीति थ.ध.पाठः।। 13-112-11 पीतोदकां त्यक्ततृणामिति थ.ध.पाठः।। 13-112-20 असृजद्वृत्तिमेवाग्र इति झ.पाठः।। 13-112-23 स्रवन्तीनां नदीनां।। 13-112-26 ता ह्येता नान्यवर्णगा इति ट.थ.ध.पाठः।। 13-112-35 न सुवर्णं घृतं दधीति थ.पाठः।।
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