महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-237
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति यज्ञप्रशंसनम्।। 1 ।। तथा देवानां पूजादिफलकथनम्।। 2 ।। तथा देवानां मनुष्यचिन्तितविज्ञानसामर्थ्यकथनम्।। 3 ।।
उमोवाच। | 13-237-1x |
भगवन्देवदेवेश विशिष्टं यज्ञमुच्यते। लौकिकं वैदिकं चैव तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-237-1a 13-237-1b |
महेश्वर उवाच। | 13-237-2x |
देवतानां तु पूजा या यज्ञेष्वेव समाहिता। यज्ञा वेदेष्वधीताश्च वेदा ब्राह्मणसंयुताः।। | 13-237-2a 13-237-2b |
इदं तु सकलं दिव्यं दिवि वा भुवि वा प्रिये। यज्ञार्थं विद्धि तत्सृष्टं लोकानां हितकाम्यया।। | 13-237-3a 13-237-3b |
एवं विज्ञाय तत्कर्ता सदारः सततं द्विजः। प्रेत्यभावे लभेल्लोकान्ब्रह्मकर्मसमाधिना।। | 13-237-4a 13-237-4b |
ब्राह्मणेष्वेव तद्ब्रह्म नित्यं देवि समाहितम्। तस्माद्विप्रैर्यथाशास्त्रं विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 13-237-5a 13-237-5b |
यज्ञकर्मि कृतं सर्वं देवता अभितर्पयेत्। ब्राह्मणाः क्षत्रियाश्चैव यज्ञार्थं प्रायशः स्मृताः।। | 13-237-6a 13-237-6b |
अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैर्वेदेषु परिकल्पितैः। सुशुद्धैर्यजमानैस्च ऋत्विग्भिश्च यथाविधिः। शुद्धैर्द्रव्योपकरणैर्यष्टव्यमिति निश्चयः।। | 13-237-7a 13-237-7b 13-237-7c |
तथा कृतेषु यज्ञेषु देवानां तोषणं भवेत्। तुष्टेषु सर्वदेवेषु यज्वा यज्ञफलं लभेत्।। | 13-237-8a 13-237-8b |
देवाः सन्तोषिता यज्ञैर्लोकान्संवर्धयन्त्युत। उभयोर्लोकयोर्भूतिर्देवि यज्ञे प्रदृश्यते।। | 13-237-9a 13-237-9b |
तस्माद्यज्वा दिवं गत्वा अमरैः सह मोदते। नास्ति यज्ञसमं दानं नास्ति यज्ञसमो निधिः।। | 13-237-10a 13-237-10b |
सर्वधर्मसमुद्देशो देवि यज्ञे समाहितः। एषा यज्ञकृता पूजा लौकिकीमपरां शृणु।। | 13-237-11a 13-237-11b |
देवसत्कारमुद्दिश्य क्रियते लौकिकोत्सवः।। | 13-237-12a |
देवगोष्ठेऽधिसंस्कृत्य चोत्सवं यः करोति वै। यागान्देवोपहारांश्च शुचिर्भूत्वा यथाविधि। देवान्सन्तोषयित्वा स देवि धर्ममवाप्नुयात्।। | 13-237-13a 13-237-13b 13-237-13c |
गन्धमाल्यैश्च विविधैः परमान्नेन धूपनैः। बह्वीभिः स्तुतिभिश्चैव स्तुवद्भिः प्रयतैर्नरैः।। | 13-237-14a 13-237-14b |
नृत्तैर्वाद्यैश्च गान्धर्वैरन्यैर्दृष्टिविलोभनैः। देवसत्कारमुद्दिश्य कुर्वते ये नरा भुवि।। | 13-237-15a 13-237-15b |
तेषां भक्तिकृतेनैव सत्कारेणैव पूजिताः। तेनैव तोषं संयान्ति देवि देवास्त्रिविष्टपे।। | 13-237-16a 13-237-16b |
मानुषैश्चोपकारैर्वा शुचिभिः सत्परायणैः। ब्रह्मचर्यपरैरेतत्कृतं धर्मफलं लभेत्।। | 13-237-17a 13-237-17b |
केवलैः स्तुतिभिर्देवि गन्धमाल्यसमाहितैः। प्रयतैः शुद्धगात्रैस्तु शुद्धदेशे सुपूजिताः। सन्तोषं यान्ति ते देवा भक्तैः सम्पूजितास्तथा।। | 13-237-18a 13-237-18b 13-237-18c |
देवान्सन्तोषयित्वैव देवि धर्ममवाप्नुयात्।। | 13-237-19a |
उमोवाच। | 13-237-20x |
त्रिविष्टपस्था वै भूमौ देवा मानुषचेष्टितम्। कथं ज्ञास्यन्ति विधिवत्तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-237-20a 13-237-20b |
महेश्वर उवाच। | 13-237-21x |
तदहं तेप्रवक्ष्यामि यथा तैर्विद्यते प्रिये। प्राणिनां तु शरीरेषु अन्तरात्मा व्यवस्थितः।। | 13-237-21a 13-237-21b |
आत्मानं परमं देवमिति विद्धि शुभेक्षणे। आत्मा मनोव्यवस्थानात्सर्वं वेत्ति शुभाशुभम्।। | 13-237-22a 13-237-22b |
आत्मैव देवास्तद्विद्युरव्यग्रमनसा कृतम्। सतां मनोव्यवस्थानाच्छुभं भवति वै नृणाम्।। | 13-237-23a 13-237-23b |
तस्माद्देवाऽभिसम्पूज्या ब्राह्मणानां तथैव च। यज्ञाश्च धर्मकार्याणि गुरुपूजा च शोभने।। | 13-237-24a 13-237-24b |
शुद्धगात्रैर्व्रतयुतैस्तन्मयैस्तत्परायणैः। एवं व्यवस्थितैर्नित्यं कर्तव्यमिति निश्चयः।। | 13-237-25a 13-237-25b |
एवं कृत्वा शुभाकाङ्क्षी परत्रेह च मोदते। अन्यथा मन आविश्य कृतं न फलति प्रिये। ऋतेऽपि तु मनो देवि अशुभं फलति ध्रुवम्।। | 13-237-26a 13-237-26b 13-237-26c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 237 ।। |
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