महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-128
दिखावट
← अनुशासनपर्व-127 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-128 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-129 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति श्रियो बलात्कारेण स्वप्रार्थनया गोमूत्रपुरीषयोर्निवासस्य कथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-128-1x |
मया गवां पुरीषं वै श्रिया जुष्टमिति श्रुतम्। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं संशयोऽत्र हि मे महान्।। | 13-128-1a 13-128-1b |
भीष्म उवाच। | 13-128-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। गोभिर्नृपेहं संवादं श्रिया भारतसत्तम।। | 13-128-2a 13-128-2b |
श्रीः कृत्वेह वपुः कान्तं गोमध्येषु विवेश ह। गावोऽथ विस्मितास्तस्या दृष्ट्वा रूपस्य सम्पदम्।। | 13-128-3a 13-128-3b |
गाव ऊचुः। | 13-128-4x |
काऽसि देवि कुतो वा त्वं रूपेणाप्रतिमा भुवि। विस्मिताः स्म महाभागे तव रूपस्य सम्पदा।। | 13-128-4a 13-128-4b |
इच्छामस्त्वां वयं ज्ञातुं का त्वं क्व च गमिष्यसि। तत्त्वेन हि सुवर्णाभे सर्वमेतद्ब्रवीहि नः।। | 13-128-5a 13-128-5b |
श्रीरुवाच। | 13-128-6x |
लोकस्य कान्तिर्भद्रं वः श्रीर्नामाहं परिश्रुता। मया दैत्याः परित्यक्ता विनष्टाः शाश्वतीः समाः।। | 13-128-6a 13-128-6b |
मयाऽभिपन्ना देवाश्च मोदन्ते शाश्वतीः समाः। इन्द्रो विवस्वान्सोमश्च विष्णुरापोऽग्निरेव च।। | 13-128-7a 13-128-7b |
मयाऽभिपन्ना दीप्यन्ते ऋषयो देवतास्तथा। यान्नाविशाम्यहं गावस्ते विनश्यन्ति सर्वशः।। | 13-128-8a 13-128-8b |
धर्मश्चार्थश्च कामश्च मया जुष्टाः सुखान्विताः। एवंप्रभावां मां गावो विजानीत सुखप्रदाम्।। | 13-128-9a 13-128-9b |
इच्छामि चापि युष्मासु वस्तुं सर्वासु नित्यदा। आगत्य प्रार्थये युष्माञ्श्रीजुष्टा भवताऽनघाः।। | 13-128-10a 13-128-10b |
गाव ऊचुः। | 13-128-11x |
अध्रुवा चपला च त्वं सामान्या बहुभिः सह। न त्वामिच्छाम भद्रं ते गम्यतां यत्र रोचते।। | 13-128-11a 13-128-11b |
वपुष्मन्त्यो वयं सर्वाः किमस्माकं त्वयाऽद्य वै। यथेष्टं गम्यतां तत्र कृतकार्या वयं त्वया।। | 13-128-12a 13-128-12b |
श्रीरुवाच। | 13-128-13x |
किमेतद्वः क्षमं गावो यन्मां नेहाभिनन्दथ। न मां सम्प्रतिगृह्णीध्वं कस्माद्वै दुर्लभां सतीम्।। | 13-128-13a 13-128-13b |
सत्यश्च लोकवादोऽयं लोके चरति सुव्रताः। स्वयं प्राप्ते परिभवो भवतीति विनिश्चयः।। | 13-128-14a 13-128-14b |
महदुग्रं तपः कृत्वा मां निषेवन्ति मानवाः। देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः।। | 13-128-15a 13-128-15b |
क्षममेतद्धि वो गावः प्रतिगृह्णीत मामिह। नावमन्या ह्यहं सौम्यास्त्रैलोक्ये सचराचरे।। | 13-128-16a 13-128-16b |
गाव ऊचुः। | 13-128-17x |
नावमान्यामहे देवि न त्वां परिभवामहे। अध्रुवा चलचित्तासि ततस्त्वां वर्जयामहे।। | 13-128-17a 13-128-17b |
बहुना च किमुक्तेन गम्यतां यत्र वाञ्छसि। वपुष्मन्त्यो वयं सर्वाः किमस्माकं त्वयाऽनघे।। | 13-128-18a 13-128-18b |
श्रीरुवाच। | 13-128-19x |
अवज्ञाता भविष्यामि सर्वलोकेषु मानवैः। प्रत्याख्यातेति युष्माभिः प्रसादः क्रियतां मम।। | 13-128-19a 13-128-19b |
महाभागा भवत्यो वै शरण्याः शरणागताम्। परित्रायन्तु मां नित्यं भजमानामनिन्दिताम्।। | 13-128-20a 13-128-20b |
माननामहमिच्छामि भवत्यः सततं शिवाः। अप्येकाङ्गेष्वधो वस्तुमिच्छामि च सुकुत्सिते।। | 13-128-21a 13-128-21b |
न वोऽस्ति कुत्सितं किञ्चिदङ्गेष्वालक्ष्यतेऽनघाः। पुण्याः पवित्राः सुभगा अवाग्देशं प्रयच्छथ। वसेयं यत्र वो देहे तन्मे व्याख्यातुमर्हथ।। | 13-128-22a 13-128-22b 13-128-22c |
एवमुक्तास्तु ता गावः शुभाः करुणवत्सलाः। सम्मान्य सहिताः सर्वाः श्रियमुचुर्नराधिप।। | 13-128-23a 13-128-23b |
अवश्यं मानना कार्या तवास्माभिर्यशस्विनि। शकृन्मूत्रे निवसतां पुण्यमेतद्धि नः शुभे।। | 13-128-24a 13-128-24b |
श्रीरुवाच। | 13-128-25x |
दिष्ट्या प्रसादो युष्माभिः कृतो मेऽनुग्रहात्मकः। एवं भवतु भद्रं वः पूजिताऽस्मि सुखप्रदाः।। | 13-128-25a 13-128-25b |
भीष्म उवाच। | 13-128-26x |
एवं कृत्वा तु समयं श्रीर्गोभिः सह भारत। पश्यन्तीनां ततस्तासां तत्रैवान्तरधीयत।। | 13-128-26a 13-128-26b |
एवं गोशकृतः पुत्र माहात्म्यं तेऽनुवर्णितम्। माहात्म्यं च गवां भूयः श्रूयतां गदतो मम।। | 13-128-27a 13-128-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 128 ।। |
13-128-3 विस्मिता अभवन्निति शेषः।। 13-128-21 एका अहम्। अङ्गेषु मध्ये कुत्सिते। सुप्रीताङ्गेषु वो वस्तुमिच्छामीह न कुत्सिते इति ध.पाठः।। 13-128-23 सम्मन्त्र्य सहिता इति झ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-127 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-129 |