महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-212
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति विस्तरेण राजधर्मकथनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-212-1x |
देवदेव नमस्तुभ्यं त्र्यक्ष भो वृषभध्वज। श्रुतं मे भगवन्सर्वं त्वत्प्रसादान्महेश्वर।। | 13-212-1a 13-212-1b |
सङ्गृहीतं मया तच्च तव वाक्यमनुत्तमम्। इदानीमस्ति संदेहो मानुषेष्विह कश्चन।। | 13-212-2a 13-212-2b |
तुल्यप्राणशिरःकायो राजाऽयमिति मृश्यते। केन कर्मविपाकेन सर्वप्राधान्यमर्हति।। | 13-212-3a 13-212-3b |
स चापि दण्डयन्मर्त्यान्भर्त्सयन्विधमन्नपि। प्रेत्यभावे कथं लोकाँल्लभते पुण्यकर्मणा। राजवृत्तमहं तस्माच्छ्रोतुमिच्छामि मानद।। | 13-212-4a 13-212-4b 13-212-4c |
महेश्वर उवाच। | 13-212-5x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि राजधर्मं शुभानने।। | 13-212-5a |
राजायत्तं हि यत्सर्वं लोकवृत्तं शुभाशुभम्। महतस्तपसो देवि फलं राज्यमिति स्मृतम्।। | 13-212-6a 13-212-6b |
तपोदानमयं राज्यं परं स्थानं विधीयते। तस्माद्राज्ञः सदा मर्त्याः प्रणमन्ति यतस्ततः।। | 13-212-7a 13-212-7b |
न्यायतस्त्वं महाभागे श्रोतुकामाऽसि भामिनि। तस्मात्तस्यैव चरितं जगत्पथ्यं शृणु प्रिये।। | 13-212-8a 13-212-8b |
अराजके पुरा त्वासीत्प्रजानां सङ्कुलं महत्। तदृष्ट्वा सङ्कुलं ब्रह्मा मनुं राज्ये न्यवेदयत्। तदाप्रभृति संदृष्टं राज्ञां वृत्तं शुभाशुभम्।। | 13-212-9a 13-212-9b 13-212-9c |
तन्मे शृणु वरारोहे तस्य पथ्यं जगद्धितम्। यथा प्रेत्य लभेत्स्वर्गं यथा वीर्यं यशस्तथा।। | 13-212-10a 13-212-10b |
पित्र्यं वा भूतपूर्वं वा स्वयमुत्पाद्य वा पुनः। राज्यधर्ममनुष्ठाय विधिवद्भोक्तुमर्हति।। | 13-212-11a 13-212-11b |
आत्मानमेव प्रथमं विनयैरुपपादयेत्। अनु भृत्यान्प्रजाः पश्चादित्येष विनयक्रमः।। | 13-212-12a 13-212-12b |
स्वामिनं चोषमां कृत्वा प्रजास्तद्वृत्तकाङ्क्षया। स्वयं विनयसम्पन्ना भवन्तीह शुभेक्षणे।। | 13-212-13a 13-212-13b |
स्वस्मात्पूर्वतरा राजा विनयत्येव वै प्रजाः। अपहास्यो भवेत्तादृक्स्वदोषस्यानवेक्षणात्।। | 13-212-14a 13-212-14b |
विद्याभ्यासैर्वृद्धयोगैरात्मानं विनयं नयेत्। विद्या धर्मार्थफलिनी तद्विदो वृद्धसंज्ञिताः।। | 13-212-15a 13-212-15b |
इन्द्रियाणां जयो देवि अत ऊर्ध्वमुदाहृतः। अजये सुमहान्दोषो राजानं विनिपातयेत्।। | 13-212-16a 13-212-16b |
पञ्चैव स्ववशे कृत्वा तदर्थान्पञ्च शोषयेत्। षडुत्सृज्य यथायोगं ज्ञानेन विनयेन च। सास्त्रचक्षुर्नयपरो भूत्वा भृत्यान्समाहरेत्।। | 13-212-17a 13-212-17b 13-212-17c |
वृत्तश्रुतकुलोपेतानुपधाबिः परीक्षितान्। अमात्यानुपधातीतान्सोपसर्पाञ्जितेन्द्रियान्। योजयेत यथायोगं यथार्हं स्वेषु कर्मसु।। | 13-212-18a 13-212-18b 13-212-18c |
अमात्या बुद्धिसम्पन्ना राष्ट्रं बहुजनप्रियम्। दुराधर्षं पुरश्रेष्ठं कोशः कृच्छ्रसहः स्मृतः।। | 13-212-19a 13-212-19b |
अनुरक्तं बलं साम्नामद्वैधं मन्त्रमेव च। एताः प्रकृतयः स्वेषु स्वामी विनयतत्ववित्। | 13-212-20a 13-212-20b |
प्रजानां रक्षणार्थाय सर्वमेतद्विनिर्मितम्। आभिः करणभूताभिः कुर्याल्लोकहितं नृपः।। | 13-212-21a 13-212-21b |
आत्मरक्षा नरेन्द्रस्य प्रजारक्षार्थमिष्यते। तस्मात्सततमात्मानं संरक्षेदप्रमादवान्।। | 13-212-22a 13-212-22b |
भोजनाच्छादनस्नानाद्बहिर्निष्क्रमणादपि। नित्यं स्त्रीगणसंयोगाद्रक्षेदात्मानमात्मवान्।। | 13-212-23a 13-212-23b |
स्वेभ्यश्चैव परेभ्यश्च शश्त्रादपि विषादपि। सततं पुत्रदारेभ्यो रक्षेदात्मानमात्मवान्।। | 13-212-24a 13-212-24b |
सर्वेभ्य एव स्थानेभ्यो रक्षेदात्मानमात्मवान्। प्रजानां रक्षणार्थाय प्रजाहितकरो भवेत्।। | 13-212-25a 13-212-25b |
प्रजाकार्यं तु तत्कार्यं प्रजासौख्यं तु तत्सुखम्। प्रजाप्रियं प्रियं तस्य स्वहितं तु प्रजाहितम्। प्रजार्तं तस्य सर्वस्वमात्मार्थं न विधीयते। | 13-212-26a 13-212-26b 13-212-26c |
प्रकृतीनां हि रक्षार्थं रागद्वेषौ व्युदस्य च। उभयोः पक्षयोर्वादं श्रुत्वा चैव यथातथम्। तमर्थं विमृशेद्बुद्ध्या स्वयमातत्वदर्शनात्।। | 13-212-27a 13-212-27b 13-212-27c |
तत्वविद्भिश्च बहुभिर्वृद्धैः सह नरोत्तमैः। कर्तारमपराधं च देशकालौ नयानयौ।। | 13-212-28a 13-212-28b |
ज्ञात्वा सम्यग्यथाशास्त्रं ततो दण्डं नयेन्नृषु। एवं कुर्वंल्लभेद्धर्मं पक्षपातविवर्जनात्।। | 13-212-29a 13-212-29b |
प्रत्यक्षाप्तोपदेशाभ्यामनुमानेन वा पुनः। बोद्धव्यं सततं राज्ञा देशवृत्तं शुभाशुभम्।। | 13-212-30a 13-212-30b |
चारैः कर्मप्रवृत्त्या च तद्विज्ञाय विचारयेत्। अशुभं निर्हरेत्सद्यो जोषयेच्छुभमात्मनः।। | 13-212-31a 13-212-31b |
गर्ह्यान्विगर्हयेदेव पूज्यान्सम्पूजयेत्तथा। दण्ड्यांश्च दण्डयेद्देवि नात्र कार्या विचारणा।। | 13-212-32a 13-212-32b |
पञ्चावेक्षन्सदा मन्त्रं कुर्याद्बुद्धियुतैर्नरैः। कुलवृत्तश्रुतोपेतैर्नित्यं मन्त्रपरो भवेत्।। | 13-212-33a 13-212-33b |
कामकारेण वै मुख्यैर्न च मन्त्रमना भवेत्। राजा राष्ट्रहितापेक्षं सत्यधर्माणि कारयेत्।। | 13-212-34a 13-212-34b |
सर्वोद्योगं स्वयं कुर्याद्दुर्गादिषु सदा नृषु। देशवृद्धिकरान्भृत्यानप्रमादेन कारयेत्।। | 13-212-35a 13-212-35b |
देशक्षयकरान्सर्वानप्रियांश्च विवर्जयेत्। अहन्यहनि सम्पश्येदनुजीविगणं स्वयम्।। | 13-212-36a 13-212-36b |
सुमुखः सुप्रियो दत्त्वा सम्यग्वृत्तं समाचरेत्। अधर्म्यं परुषं तीक्ष्णं वाक्यं वक्तुं न चार्हति।। | 13-212-37a 13-212-37b |
असंविश्वास्य वचनं वक्तुं सत्सु न चार्हति। नरेनरे गुणान्दोषान्सम्यग्वेदितुमर्हति।। | 13-212-38a 13-212-38b |
स्वेङ्गितं वृणुयाद्धैर्यं न कुर्यात्क्षुद्रसंविदम्। परेङ्गितज्ञो लोकेषु भूत्वा संसर्गमाचरेत्।। | 13-212-39a 13-212-39b |
स्वतश्च परतश्चैव परस्परभयादपि। अमानुषभयेभ्यश्च स्वाः प्रजाः पालयेन्नृपः।। | 13-212-40a 13-212-40b |
लुब्धाः कठोराश्चाप्यस्य मानवा दस्युवृत्तयः। निग्राह्या एव ते राज्ञा सङ्गृहीत्वा यतस्ततः।। | 13-212-41a 13-212-41b |
कुमारान्विनयोद्बोधैर्जन्मप्रभृति योजयेत्। तेषामात्मगुणोपेतं यौवराज्येन योजयेत्।। | 13-212-42a 13-212-42b |
प्रकृतीनां यथा न स्याद्राज्यभ्रंशो भवेद्भयम्। एतत्संचिन्तयेन्नित्यं तद्विधानं तथार्हति।। | 13-212-43a 13-212-43b |
अराजकं क्षणमपि राज्यं न स्याद्धि शोभने। आत्मनोऽनुविधानाय यौवराज्यं सदेष्यते।। | 13-212-44a 13-212-44b |
कुलजानां च वैद्यानां श्रोत्रियाणां तपस्विनाम्। अन्येषां वृत्तियुक्तानां विशेषं कर्तुमर्हति।। | 13-212-45a 13-212-45b |
आत्मार्थं राज्यतन्त्रार्थं कोशार्थं च समाचरेत्। दुर्गाद्राष्ट्रात्समुद्राच्च वणिग्भ्यः पुरुषात्ययात्।। | 13-212-46a 13-212-46b |
परात्मगुणसाराभ्यां भृत्यपोषणमाचरेत्। वाहनानां प्रकुर्वीत पोषणं योधकर्मसु।। | 13-212-47a 13-212-47b |
सादरः सततं भूत्वा अवेक्षाव्रतमाचरेत्। चतुर्दा विभजेत्कोशं धर्मभृत्यात्मकारणात्।। | 13-212-48a 13-212-48b |
आपदर्थं च नीतिज्ञो देशकालवशेन तु। अनाथान्व्यथितान्वृद्धान्स्वे देशे पोषयेन्नृपः।। | 13-212-49a 13-212-49b |
सन्धिं च विग्रहं चैव तद्विशेषांस्तथा पारन्। यथावत्संविमृश्यैव बुद्धिपूर्वं समाचरेत्।। | 13-212-50a 13-212-50b |
सर्वेषां सम्प्रियो भूत्वा मण्डलं सततं चरेत्। शुभेष्वपि च कार्येषु च चैकान्तः समाचरेत्।। | 13-212-51a 13-212-51b |
स्वतश्च परतश्चैव व्यसनानि विमृश्य सः। परेणि धार्मिकान्योगान्नातीयाद्द्वेषलोभतः।। | 13-212-52a 13-212-52b |
रक्ष्यत्वं वै प्रजाधर्मः क्षत्रधर्मस्तु रक्षणम्। कुनृपैः पीडितास्तस्मात्प्रजाः सर्वत्र पालयेत्।। | 13-212-53a 13-212-53b |
यात्राकालेऽनवेक्ष्यैव पश्चात्कोपफलोदयः। तद्युक्ताश्चापदश्चैव शासनादिति चिन्तयेत्।। | 13-212-54a 13-212-54b |
व्यसनेभ्यो बलं रक्षेन्नयतो व्ययतोपि वा। प्रायशो वर्जयेद्युद्धं प्राणरक्षणकारणात्।। | 13-212-55a 13-212-55b |
कारणादेवि योद्धव्यं नात्मनः परदोषतः। सुयुद्धे प्राणमोक्षश्च तस्य धर्माय इष्यते।। | 13-212-56a 13-212-56b |
अभियुक्तो बलवता कुर्यादापद्विधिं नृपः। अनुनीय तथा सर्वान्प्रजानां हितकारणात्।। | 13-212-57a 13-212-57b |
अन्यप्रकृतियुक्तानां राज्ञां वृत्तिविचारिणाम्। अन्यांश्चापत्प्रपन्नानां न तान्संयोक्तुमर्हति।। | 13-212-58a 13-212-58b |
शुभाशुभं यदा देवि व्रतं तूभयसाधनम्। आत्मैव तच्छुभं कुर्यादशुभं योजयेत्परान्। | 13-212-59a 13-212-59b |
एवमुद्देशतः प्रोक्तमलेपत्वं यथा भवेत्। एष देवि समासेन राजधर्मः प्रकीर्तितः।। | 13-212-60a 13-212-60b |
एवं संवर्तमानस्तु दण्डयन्भर्त्सयन्प्रजाः। निष्कल्मषमवाप्नोति पद्मपत्रमिवाम्भसा।। | 13-212-61a 13-212-61b |
एवं संवर्तमानस्य कालधर्मो यदा भवेत्। स्वर्गलोके तदा राजा त्रिदशैः सह तोष्यते।। | 13-212-62a 13-212-62b |
द्विविधं राज्यवृत्तं च न्यायभाग्यसमन्वितम्। एवं न्यायानुगं वृत्तं कथितं ते शुभेक्षणे।। | 13-212-63a 13-212-63b |
राज्यं न्यायानुगं तात बुद्धिशास्त्रानुगं भवेत्। धर्म्यं पथ्यं यशस्यं च स्वर्ग्यं चैव तथा भवेत्।। | 13-212-64a 13-212-64b |
राज्यं भाग्यानुगं नाम अयथावत्प्रदृश्यते। तत्तु शास्त्रविनिर्मुक्तं सतां कोपकरं भवेत्। अधर्म्यमयशस्यं च दुरन्तं च भवेद्ध्रुवम्।। | 13-212-65a 13-212-65b 13-212-65c |
यत्र स्वच्छन्दतः सर्वं क्रियते कर्म राजभिः। तत्र भाग्यवशाद्भृत्या लभन्ते न विशेषतः।। | 13-212-66a 13-212-66b |
यत्र दण्ड्या न दण्ड्यन्ते पूज्यन्ते वा नराधमाः। यत्र सन्तोपि हन्यन्ते तत्र भाग्यानुगं भवेत्।। | 13-212-67a 13-212-67b |
शुभाशुभं यथा यत्र विपरीतं प्रदृश्यते। राज्ञि चासुरपक्षे तु तत्र भाग्यानुगं भवेत्।। | 13-212-68a 13-212-68b |
भाग्यानुगे तु राजानो वर्तमाना यथातथा। प्राप्याकीर्तिमनर्थं च इह लोके शुभेक्षणे।। | 13-212-69a 13-212-69b |
परत्र सुमहाघोरं तमः प्राप्य दुरत्ययम्। तिष्ठन्ति नरके देवि प्रलयान्तादिति स्थितिः।। | 13-212-70a 13-212-70b |
मोक्षं दुष्कृतिनां चापि विद्यते कालपर्ययात्। नास्त्येव मोक्षणं देवि राज्ञां दुष्कृतिकारिणाम्।। | 13-212-71a 13-212-71b |
एतत्सर्वं समासेन राजवृत्तं शुभाशुभम्। कथितं ते महाभागे भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-212-72a 13-212-72b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 212 ।। |
अनुशासनपर्व-211 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-213 |