महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-140
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रत्युपवासब्रह्मचर्यादीनां लक्षणकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-140-1x |
द्विजातयो व्रतोपेता हविस्ते यदि भुञ्जते। अन्नं ब्राह्मणकामाय कथमेतत्पितामह।। | 13-140-1a 13-140-1b |
भीष्म उवाच। | 13-140-2x |
अवेदोक्तव्रताश्चैव भुञ्जानाः कामकारणे। वेदोक्तेषु तु भुञ्जाना व्रतलुप्ता युधिष्ठिर।। | 13-140-2a 13-140-2b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-140-3x |
यदिदं तप इत्याहुरुपवासं पृथग्जनाः। तपः स्यादेतदेवेह तपोऽन्यद्वाऽपि किं भवेत्।। | 13-140-3a 13-140-3b |
भीष्म उवाच। | 13-140-4x |
मासार्धमासोपवासाद्यत्तपो मन्यते जनः। आत्मतन्त्रोपघाती यो न तपस्वी न धर्मवित्।। | 13-140-4a 13-140-4b |
त्यागस्य चापि सम्पत्तिः शिष्यते तप उत्तमम्। सदोपवासी च भवेद्ब्रह्मचारी तथैव च।। | 13-140-5a 13-140-5b |
मुनिश्च स्यात्सदा विप्रो देवांश्चैव सदा यजेत्। कुटुम्बिको धर्मकामः सदाऽस्वप्नश्च मानवः।। | 13-140-6a 13-140-6b |
अमृताशी सदा च स्यात्पवित्रं च सदा पठेत्। ऋतवादी सदा च स्यान्नियतश्च सदा भवेत्।। | 13-140-7a 13-140-7b |
विघसाशी कथं च स्यात्सदा चैवातिथिप्रियः। अमृताशी सदा च स्यात्पवित्री च सदा भवेत्।। | 13-140-8a 13-140-8b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-140-9x |
कथं सदोपवासी स्याद्ब्रह्मचारी च पार्थिव। विघसाशी कथं च स्यात्कथं चैवातिथिप्रियः।। | 13-140-9a 13-140-9b |
भीष्म उवाच। | 13-140-10x |
अन्तरा सायमाशं च प्रातराशं च यो नरः। सदोपवासी भवति यो न भुङ्क्तेऽन्तरा पुनः।। | 13-140-10a 13-140-10b |
भार्या गच्छन्ब्रह्मचारी ऋतौ भवति चैव ह। ऋतवादी सदा च स्याद्दानशीलस्तु मानवः।। | 13-140-11a 13-140-11b |
अभक्षयन्वृथा मांसममांसाशी भवत्युत। दानं ददत्पवित्री स्यादस्वप्नश्च दिवाऽस्वपन्।। | 13-140-12a 13-140-12b |
भृत्यातिथिषु यो भुङ्क्ते भुक्तवत्सु नरः सदा। अमृतं केवलं भुङ्क्ते इति विद्धि युधिष्ठिर।। | 13-140-13a 13-140-13b |
अभुक्तवत्सु नाश्नाति ब्राह्मणेषु तु यो नरः। अभोजनेन तेनास्य जितः स्वर्गो भवत्युत।। | 13-140-14a 13-140-14b |
देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च संश्रितेभ्यस्तथैव च। अवशिष्टानि यो भुङ्क्ते तमाहुर्विघसाशिनम्।। | 13-140-15a 13-140-15b |
तेषां लोका ह्यपर्यन्ताः सदने ब्रह्मणः स्मृताः। उपस्थिता ह्यप्सरसो गन्धर्वैश्च जनाधिप।। | 13-140-16a 13-140-16b |
देवतातिथिभिः सार्धं पितृभिश्चोपभुञ्जते। रमन्ते पुत्रपौत्रैश्च तेषां गतिरनुत्तमा।। | 13-140-17a 13-140-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 140 ।। |
13-140-2 कामकारणे इच्छया हेतुना भुञ्जना भोजनं कुर्वन्तु नाम।। 13-140-4 आत्मतन्त्रं शरीररूपं कुटुम्बरूपं वा तदुपघाती।। 13-140-6 अस्वप्नः स्वधर्मे जागरूकः। वेदांश्चैव सदा जपेदिति झ.पाठः।। 13-140-8 सदा च स्यादस्वप्नश्च तथैव चेति ड.पाठः।। 13-140-12 वृथा यज्ञादिनिमित्तं विना।।
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